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मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता

मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता

विजय शर्मा 08 सितम्बर 2023

But there are passions that it is not for man to choose. They are born with him at the moment of his birth into this world, and he is not granted the power to refuse them.

                                                                                                                                                                                                                                                             — Nikolai Gogol

24 जून 2022–26 जून 2022

पहली पंक्ति लिखना मेरे लिए पहले प्रेम की तरह मुश्किल रहा है। लेकिन मैं अपनी बात इस बात से ज़रूर शुरू कर सकता हूँ कि इन तीन दिनों में मैंने अपने मनोचिकित्सक की दी हुई गोलियाँ नहीं लीं। या कहें नहीं लेनी पड़ीं।

यात्रा का कोई सिरा नहीं होता, जैसे जीवन का—यह बात उस समय और अधिक साफ़ हो जाती है, जब हम उन रास्तों से गुज़रते हैं, जो देहरादून के पहाड़ों के बदन को चीर कर बनाए गए हैं। ये रास्ते पहाड़ों की नस जान पड़ते हैं और उन पर रेंगने वाली दुनिया—उन नसों में दौड़ता ख़ून। यहाँ चारों दिशाएँ एक दिशा की तरफ़ जाती हुई प्रतीत होती हैं। कहीं खड़े हो जाओ तो समूची प्रकृति आपके मुक़ाबले में खड़ी नज़र आती है और मन में कोई आतंक-सा जन्म लेता है—ख़ुद को ‘एलियनेट’ पाने का आतंक।

अजीब बात यह है कि इन दिनों जितने लोग इन पहाड़ों में जाने का प्रयास दिखलाते हैं, उनमें से अधिकतर ही एक तरह की एलिट-हीनता का शिकार हैं और अधिक से अधिक एलियनेट नज़र आने की कोशिश करते हैं। वहाँ समझ आता है कि शहर हमारी तरबियत कुछ इस तरह से कर रहा है कि हम जितने अच्छे उपभोक्ता होंगे, उतने ही अच्छे आदमी। यह थ्योरी भले किसी किताब में न लिखी हो, लेकिन उन चेहरों पर ज़रूर लिखी होती है; जो उन पहाड़ों और पेड़ों के बीच भी अपने शहरी अस्तित्व एक ज़रा-सा अंश भी खोने को तैयार नहीं होते।

बहरहाल, बात कहीं की कहीं जा रही है। मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता। मैं जहाँ खड़ा हुआ, वहाँ समूची प्रकृति मेरे मुक़ाबले में खड़ी नज़र आई और उस समय मैंने स्वयं को हज़ार ‘सिक्योरिटी’ से अधिक सुरक्षित पाया। इन पेड़ों को देखते हुए अक्सर उस सवाल की तरफ़ ध्यान चला जाता है, जिसे हम समय के साथ भूलते जाते हैं। हमारा ‘मोनेर मानुष’ अब कहाँ है?

गोगोल ऊपर व्यक्त उद्धरण में जिस ‘पैशन’ की बात कर रहे हैं, जो हमें हमारे बचपन को एक आकार दिया करता था; क्या वह अब भी हमारे जीवन को आकार दे रहा है? अवश्य दे रहा है... हम कितना भी भाग लें... जन्म के समय का शाप, मृत्यु तक साथ नहीं छोड़ता। ऐसे मौक़ों पर खुली वादियाँ, हमें हमारे मन के भीतर देखने को प्रेरित करती हैं। बाहर जितना फैलाव, जितना बीहड़... अंदर भी उतना ही... उन्हीं बीहड़ों से कुछ स्मृतियाँ इस तरह से झाँकना शुरू करती हैं कि अब तक के जीवन का सार कुछ क्षणों में बँध कर रह जाता है।

वे पेड़ जिन्होंने मुझे कभी छाँव नहीं दी, वे झरने जो मेरी आँखों से कभी नहीं बहे, वे चट्टानें जिनने कभी मेरे हृदय पर गिरने की ज़हमत नहीं उठाई... वे सब एक ही क्षण में मेरी आँखों के सामने नाचने लगते हैं। और फिर महसूस होता है कि मनुष्य की देह हाड़-मांस से अधिक स्मृतियों से बनी है, एक ऐसा फ़िक्शन से जो शायद कभी लिखा नहीं जा सकेगा!

देहरादून में जिस मित्र से मुलाक़ात न हो सकी, उसकी कमी मैंने झरने के बहते पानी में पाँव डाल कर पूरी की और एक अडिग पत्थर से प्रार्थना की कि मेरी थकान बहा ले जाए।

पहाड़ियों के बीच छोटे-छोटे घर अपने जीवन की अपूर्ण कामना की तरह लगते हैं। वहाँ वास्तव में जाना किसी ट्रेकिंग को सर करने से अधिक मुश्किल लगता है। समूचे बदन पर लदे पत्ते और लकड़ियाँ ढोती लड़कियों और भेड़ें चराते बच्चों को देख कर सरकार के कई स्लोगन न चाहते हुए भी याद आ जाते हैं। ख़राब स्मरण-शक्ति की यही एक कमी है कि जैसे हर दुःख देने वाली बात मरते दम तक याद रहेगी!

मरने से आख़िरी बात यह ध्यान आती है कि उन पहाड़ों के बीच मृत्यु की कामना बेहद सुखद लगी। वहाँ किसी पहाड़ी से गिर कर मरना शहरों के अस्पतालों में या सडकों पर टक्कर खा कर मरने से काफ़ी बेहतर होगा। कम अज़ कम मरने के बाद ज़लील होने से बचा जा सकेगा... वापस लौट आया हूँ... इतना ही... दवा का समय हो रहा है।

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