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एक ख़त मैकॉले के नाम

एक ख़त मैकॉले के नाम

प्रियंवद 16 अक्तूबर 2023

श्रीमान मैकॉले साहब,

आप मुझे नहीं जानते। जानेंगे भी कैसे? आपके और मेरे बीच वक़्त का फ़ासला बहुत ज़्यादा है। इसे घड़ी की सुइयों से नहीं नापा जा सकता। इस फ़ासले में काल के सैकड़ों भँवर हैं। इतिहास के मायावी स्वर्ण-मृग हैं। रौंदे हुए तानाशाह, कुचली गई सत्ताएँ और नए विचारों के जगमगाते असंख्य आकाशदीप हैं। इन्हें नापने वाली कोई घड़ी फ़िलहाल तक तो नहीं बनी है। इसके अलावा भी, आप मुझे क्योंकर जानेंगे? कहाँ आप इस देश के पहले और आज भी पूजे जा रहे भाग्य विधाता, और कहाँ मैं, इस देश के एक छोटे शहर का अकिंचन, मामूली हिंदुस्तानी, जिसे आप पूरी ज़िंदगी हिक़ारत से देखते रहे। धरती का बोझ समझते रहे। आपने तो कभी सोचा भी नहीं होगा कि यहाँ की गंदी, सँकरी और अँधेरी गलियों में ज़िंदगी गुज़ारने वाला कोई व्यक्ति कभी आपको ख़त लिखने का दुस्साहस भी करेगा।

पर मैकॉले साहब, आपसे बेहतर कौन जानता है कि इतिहास और समय अपनी बंद मुट्ठी से जादू की तरह कुछ भी निकाल सकते हैं। यह विचित्र और असंभव दिखता संयोग भी। कितनी बार तो ऐसा हुआ है कि एक मामूली ज़ुकाम, मरहम की एक डिबिया और किसी नाक की बनावट लाखों लोगों की क़िस्मत और ज़िंदगी बदल देते हैं। सोचिए ज़रा, अगर जहाँआरा नहीं जलती या क्लाइव ने आत्महत्या के लिए जो बंदूक़ इस्तेमाल की अगर वह चल जाती, तो क्या इस देश का इतिहास यही होता? नहीं न?

सन् 1599 की आख़िरी रात के, आख़िरी घंटों में आपके मुल्क में भी तो यही हुआ था। रानी एलिज़ाबेथ ने इंग्लैंड की एक मामूली कंपनी, ईस्ट इंडिया कंपनी, के पूर्वी देशों में व्यापार करने की इजाज़त माँगने वाले काग़ज़ पर मोहर मारकर इस देश के करोड़ों लोगों की क़िस्मत और ज़िंदगी बदल दी थी। उस रात नींद में सोए हुए अकबर ने कब सोचा था कि एक दिन मुग़ल बादशाह ख़त्म हो जाएँगे। नवाब, पेशवा, निज़ाम, राजा ख़त्म हो जाएँगे। इनके दरबार, शहर, ज़ुबानें, तहज़ीब, दौलत ख़त्म हो जाएँगी, और यह काम एक बेहद मामूली व्यापारी कंपनी के, बेहद मामूली, लफ़ंगे कारिंदे करेंगे। किसने सोचा था, एक दिन यह कंपनी इस मुल्क की 90 प्रतिशत ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेगी। इसकी ग़ुलामी में देश के 15 करोड़ लोग होंगे। एक साल में यह उस समय भी, आज से जोड़ें, तो 300 करोड़ रुपए के बराबर का टैक्स वसूलेगी।

नहीं मैकॉले साहब, किसी ने नहीं सोचा था। न अकबर ने, न एलिज़ाबेथ ने, न सिराजुद्दौला ने, न क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स ने सोचा था। ऐसा तो मीर जाफ़र, जगत सेठ और अमीचंद ने भी नहीं सोचा था। ख़ुद ईस्ट इंडिया कंपनी के डाइरेक्टर्स ने भी नहीं सोचा था, पर इतिहास और समय ने अपनी जादुई, बंद मुट्ठी खोलकर यह सब सामने हाज़िर कर दिया।

मैं आपको, इस कंपनी को श्रद्धा से प्रणाम करता हूँ मैकॉले साहब। यह मत सोचिएगा मैं उपहास या वक्रोक्ति में यह कह रहा हूँ। मैं सचमुच इसकी सफलता और शक्ति से हतप्रभ हूँ। इस कंपनी ने दो सौ साल तक, आधी दुनिया में व्यापार करने के साथ उस पर राज भी किया है। इस कंपनी के पास अपनी सेना थी। अपने हथियार थे। अपने क़िले थे। इसने मुग़ल और चीन के साम्राज्यों से टक्कर ली थी। आज की क़ीमत से जोड़ें, तो अरबों रुपए की पूँजी उसके पास थी। उसके पास लाखों कर्मचारी थे जिनकी क़ब्रें आज भी दुनिया और उनके अपने देशों में बची हैं, और न जाने कितनी मिट्टी बनकर गुमनामी में खो चुकी हैं। इसी कंपनी ने पहली बार ‘शेयर मार्केट’ शब्द को जन्म दिया। इसके शेयरों के उतार चढ़ाव के साथ लाखों लोगों की ज़िंदगी जुड़ी थी। हमारे आज के विशाल कॉरपोरेट जगत की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ, जो हथियार बनाती हैं, जो ज़मीन से तेल निकालती हैं, उनका व्यापार करती हैं, दवा, फ़र्टिलाइज़र बनाती हैं, देशों की सरकारें बनाती-बिगाड़ती हैं, इन सबकी ‘महान जननी’ यही कंपनी तो थी। इसने ही पहली बार दुनिया को पूँजी की ताक़त सिखाई। सिखाया कि मुनाफ़े के अलावा व्यापार का दूसरा कोई सच और दूसरा कोई भगवान नहीं होता। इसने बाज़ार की ताक़त के नए सूत्र लिखे, नए नैरेटिव गढ़े। व्यापार में हर तरह के झूठ, भ्रष्टाचार, क्रूरता, बेईमानी और लूट को उचित और न्यायपूर्ण बताया। अकाल, महामारी, बाढ़, भूकंप की तबाही में इंसानी लाशों से धन कमाने की इच्छा और नीयत को गुण बताया। उसे महिमामंडित किया।

आज वह कंपनी बेशक नहीं है मैकॉले साहब, पर दुनिया की बड़ी कंपनियाँ सब कुछ, बिल्कुल उसी तरह कर रही हैं। सोचिए ज़रा, आप लोगों की मदद से उस कंपनी ने अपनी संस्कृति, विचार और ढाँचे की कितनी गहरी नींव डाली थी। उसने इंसान के अंदर लाभ और पूँजी के, भोग के एक ऐसे अजर, अमर, अपराजेय दैत्य को जन्म दिया कि आज तक दुनिया उसकी पूजा-अर्चना में लगी है। कितनी क्रांतियाँ हो गईं, कितने दार्शनिक हुए, कितने नए विचार और मत जन्मे, कितनी ही शासन प्रणालियाँ आईं, कितनी ही किताबें इस दैत्य के विरोध में लिखी गईं, शासन बदले, राजा बदले, पुनर्जागरण हुए; पर इस जननी कंपनी के बोए हुए बीज नष्ट नहीं हुए। उसके भ्रूणों का कोई बाल-बाँका भी नहीं कर सका। क्या ऐसी कंपनी मेरे या किसी भी मामूली हिंदुस्तानी के प्रणाम की पात्र नहीं है?

मैकॉले साहब आज अगर कोई लंदन की लेडनहॉल स्ट्रीट जाए, तो वहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई निशान तक नहीं पाएगा। न कोई तख़्ती, न दफ़्तर, न ही वहाँ किसी की मूर्ति लगी है, जो बताए कि यहाँ कभी इस कंपनी की भव्य और विशाल इमारत थी। समय ने सब निगल लिया है। पर मैंने आपसे पहले ही कहा है कि समय और इतिहास अपनी बंद मुट्ठी से कभी भी, कुछ भी निकाल सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है एक दिन यह कंपनी फ़ीनिक्स की तरह अपनी राख से फिर जन्मेगी। अधिक विराट, भव्य और अधिक प्रभुता के साथ। हो सकता है आज की बड़ी कंपनियों में ही कोई इस तथ्य और इस सत्य को समझे कि ईस्ट इंडिया कंपनी ही उसकी महान और धरती को रौंदने वाली, गर्व से इतराती हुई जननी थी, और वह उसकी विरासत की उत्तराधिकारी है, तो वह कंपनी अपनी जननी के प्रति श्रद्धा से सिर झुकाएगी। हो सकता है, आज कोई इतिहासकार ही ईस्ट इंडिया कंपनी के इस वैभव और शक्ति को फिर से रचे और आज की कोई कंपनी फिर से, लेडनहॉल स्ट्रीट पर उसी जगह, उस चार मंज़िला इमारत का रेप्लिका खड़ा कर दे। वह इमारत दुनिया में कॉरपोरेट संस्कृति को जन्म दे वाली माँ का ऐसा पवित्रतम और महानतम तीर्थ-स्थल बन जाए, जहाँ बिज़नेस मैनेजमेंट का हर विद्यार्थी जाकर सबसे पहले प्रणाम करे। सिर झुकाए। क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्स और आपके प्रति आजीवन अक्षुण्ण श्रद्धा से भरा रहे। आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाया जाए कि क्लाइव इस देश का असली मुक्तिदाता और भाग्य विधाता था। उसके पहले यह देश बर्बर, अज्ञानी और पिछड़ा हुआ था। क्लाइव ने ही इस आधुनिक भारत को जन्म दिया। आप जैसे कलाइव भक्त तो उस समय ही ऐसा लिख चुके थे। आज के इतिहासकार नए सिरे से इस सत्य को उद्धोषित करेंगे और आने वाली पीढ़ियाँ इस पर विश्वास भी करेंगी।

मैकॉले साहब, हँसिए मत, मैं यह सब निराधार नहीं बोल रहा हूँ। अपने देश और दुनिया में बहती हवाओं की चाल देख रहा हूँ। इनमें घुली नई गंध महसूस कर रहा हूँ। इतिहास के इस भुलाए जा चुके शव को फिर से जीवित किया जा रहा है। नदी, पहाड़, जंगल, खेत सब उसी तरह कंपनियों को बेचे जा रहे हैं; जैसे तब बेचे गए थे। आप मुझे आँखें तरेरकर देख रहे हैं, शायद इसलिए कि मैं सिर्फ़ आपके देश की कंपनी की ही बात क्यों कर रहा हूँ? फ़्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड देशों की कंपनियों की बात क्यों नहीं कर रहा, जब कि ये सब, एक ही तरह के चरित्र और एक ही नीयत की कंपनियाँ थीं।

आपकी बात सही है मैकॉले साहब। शायद कुछ देर के लिए मैं इतिहास पढ़ने और लिखने की अनिवार्य तटस्थता से विचलित हो गया था। आप तो जानते हैं कि हिंदुस्तान में इन दूसरे देशों की कंपनियों का फैलाव और प्रभुत्व का समय ज़्यादा नहीं रहा। यह सच है कि आपकी कंपनी से पहले पुर्तगाल और हॉलैंड की कंपनियाँ आई थीं। 1498 ई. में भारत पहुँचने के समुद्री रास्ते को ढूँढ़कर, समुद्र से भारत के कालीकट तट पर उतरने वाला पहला विदेशी पुर्तगाली था। 1500 में कालीकट में उन्होंने अपना एक गोदाम बना लिया। पुर्तगालियों के बाद हॉलैंड की कंपनी आई। इसके बाद आपका देश आया। 1584 में पहला अँग्रेज़ अकबर के दरबार में पहुँचा, तब मुग़लों को देश में आए हुए 60 साल हुए थे। 1664 ई. में फ़्रांस में भारत से व्यापार करने के लिए कंपनी बनाई गई।

1644 ई. में आगरा के लाल क़िले में जहाँआरा कपड़ों में आग लगने से जल गई। सारे हकीम, वैद्य उसे ठीक करने में नाकाम रहे। तब शाहजहाँ को दरबारियों ने बताया कि सूरत में एक दूसरे मुल्क से व्यापार करने आए हुए कुछ लोगों ने एक छोटी मंडी या बस्ती बना ली है। उनके पास ऐसे डॉक्टर हैं जो इस तरह के घावों को भरने का तरीक़ा जानते हैं। शाहजहाँ के कहने पर अँग्रेज़ों ने अपने सबसे क़ाबिल डॉक्टर गैबरिएल बाउटन (Boughton) को आगरा भेजा। उसने जहाँआरा को पूरी तरह ठीक कर दिया। शाहजहाँ ने उससे कहा कि वह जो चाहे माँग ले। मैकॉले साहब, शाहजहाँ ने तब सूरत शहर और बंदरगाह की सारी आमदनी जहाँआरा को सिर्फ़ पान ख़र्च के लिए दे रखी थी। सोचिए, आपके मुल्क पर क़िस्मत किस क़दर मेहरबान हुई होगी। गैबरिएल कंपनी भक्त था। उसने शाहजहाँ से कहा कि वह एक ऐसा फ़रमान जारी करे जिसमें अँग्रेज़ों को बंगाल में व्यापार करने की इजाज़त दी जाए। उसके व्यापार पर कोई महसूल (टैक्स) न हो और बंगाल में उसे अपनी फ़ैक्ट्री (गोदाम) बनाने की इजाज़त भी दी जाए। शाहजहाँ ने ऐसा फ़रमान जारी कर दिया। गैबरिएल आगरा से सीधा बंगाल गया। वहाँ शाहजहाँ का लड़का शुजा गवर्नर था। अब फिर क़िस्मत का खेल देखिए साहब! वहाँ शुजा की एक बेगम बीमार थी। गैबरिएल ने उसे भी ठीक कर दिया। अब शाहजहाँ, के साथ उसका बेटा भी गैबरिएल के एहसान तले दब गया। हिंदुस्तान का मुग़ल बादशाह शाहजहाँ, जिसने ताजमहल बनवाया, जिसके पास कोहेनूर था, तख़्ते ताऊस था, वह, और बंगाल के सबसे उपजाऊ और सोना उगलने वाले प्रांत का गवर्नर उसका बेटा, दोनों जिस व्यक्ति के एहसान से दबे हों, उसके मुक़द्दर को क्या कहिएगा? यही हुआ। 1656 तक, यानी 12 साल तक शुजा ने अँग्रेज़ों को बंगाल में हर तरह से व्यापार करने और पाँव जमाने की पूरी छूट दे दी। बस, यहीं से आपकी कंपनी ने दूसरे मुल्कों की कंपनियों को पीछे छोड़ना शुरू कर दिया। ध्यान दीजिए, यह पलासी से सौ साल पहले की घटना है। क्लाइव तक आते-आते आपके पाँव बहुत मज़बूती से जम चुके थे।

पलासी की लड़ाई से पहले ही, दक्षिण में क्लाइव ने अपने मज़बूत दुश्मन फ़्रांसीसियों को कई लड़ाइयों में हराकर कमज़ोर कर दिया था। कलकत्ता में भी सिराजुद्दौला को हराने के साथ ही उसने चंद्रनगर, ढाका और क़ासिम बाज़ार की फ़्रांसीसी फ़ैक्ट्रियों या गोदामों को ख़त्म कर दिया था। बंगाल में उसने अपना एकछत्र राय क़ायम कर लिया था। मीर जाफ़र उसका ग़ुलाम जैसा ही था। पलासी की लड़ाई के बाद एक तरह से देश में सिर्फ़ आपकी कंपनी बची थी जिसमें जान थी, ताक़त थी, हौसला था। यही कंपनी ताक़तवर होती चली गई।

पुर्तगाल हालाँकि सबसे पहले इस देश में आया था, पर वह पश्चिमी हिस्से में ही रह गया। 1700 तक इंग्लैंड उसे पीछे छोड़ चुका था। हॉलैंड शुरू से ही बहुत कमज़ोर था। कितना अजीब है मैकॉले साहब, कि औरंगज़ेब के मरने के बाद इतने बड़े मुल्क, इतने बड़े साम्राज्य, इसकी फ़ौजें, धन, संपदा, करोड़ों लोगों की आबादी की ज़िंदगी और भविष्य, पलासी के बाद सिर्फ़ एक शहर कलकत्ता में लिखा जाता रहा, और वह भी सिर्फ़ दो बेहद मामूली क्लर्कों—क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स—के हाथों से। उनके शासन के लगभग 25 सालों में ही हमारे आज के इस मुल्क का ढाँचा तैयार हुआ। हमने ग़ुलामी का जुआ पहन लिया।

आपस में लड़ते-मरते, उनके आगे झुकते चले गए। कितनी शर्म और हैरत की बात है, और हमारा क्या दुर्गंधाता पतन रहा होगा, अगर हम यह और जान लें, कि इनमें एक व्यक्ति क्लाइव, इंग्लैंड का लफ़ंगा, आवारा लड़का था जो दुकानदारों से वसूली करता था, और दूसरा कंपनी का बेहद नीचे दर्जे का मामूली क्लर्क था, जो पहले मद्रास आया था फिर कलकत्ता। इन्हीं दोनों ने पच्चीस सालों के अंदर इतने बड़े हिंदुस्तान की क़िस्मत लिख दी। इन्होंने इतनी बेरहमी और इतनी तेज़ रफ़्तार से मुल्क को लूटा जिसकी मिसाल दुनिया में जल्दी नहीं मिलती। आपने पढ़ा ही होगा मैकॉले साहब, कि एक भी मुग़ल बादशाह इस मुल्क से पाँच रुपए बाहर लेकर नहीं गया। वह यहीं रहा, जिया और मरा। पर आज वे हमारे मुल्क के लुटेरे और कलंक कहे जाते हैं, और यह कंपनी और इसके क़ारिंदे, जो दो सौ साल तक मुल्क का पैसा निचोड़कर बाहर ले जाते रहे, हमारे आदर्श हैं। हम इनके विरोध में कभी कुछ नहीं कहते। इतिहास की किताबों में इसका ज़िक्र नहीं करते। ऐसा मुल्क, ऐसी क़ौम, ऐसी नस्ल आपकी ग़ुलाम क्यों नहीं होती? हम नंगे, भूखे और हड्डियों का ढाँचा क्यों नहीं होते? इस सोने की चिड़िया का एक एक पंख उन्होंने इत्मीनान और सलीक़े से नोचा है। आप जानते ही होंगे, अकबर के समय इस देश की जीडीपी, विश्व उत्पादन की 25 टन थी। आपकी कंपनी के आने के बाद वह गिरती गई। ये सब आँकड़े मौजूद हैं। हमारे आर.सी. दत्त, दादा भाई नौरोजी और लाजपत राय इस लूट पर किताबें लिख गए हैं। दादा भाई ने तो इसे ‘द ग्रेट ड्रेन’ कहा। इसके पूरे आँकडे दिए हैं। पर अब इस मुल्क में वे लोग ख़ुद ही भुला दिए गए हैं।

यह सच है मैकॉले साहब, कि हम हिंदुस्तानी नया स्वर्ग रचने की बजाय अपने पुराने नर्क में रहना ज़्यादा पसंद करते हैं। उसी में ख़ुश रहते हैं। हमारे इस पतन में आपकी कंपनी या आपका कोई दोष नहीं था। खोट तो हमारे ख़मीर में ही था। तभी आप सब इतनी आसानी से यह कर गुज़रे। सोचिए ज़रा तो हैरत होती है, हमारे हिंदुस्तान में ज़मीन से आने का सिर्फ़ एक सँकरा रास्ता था और हम इसे भी कभी हमलावरों के लिए बंद नहीं कर पाए। सैकड़ों सालों तक सिकंदर के बाद यूनानी, शक, हूण, तैमूर, नादिरशाह, अहमदशाह, सब इसी रास्ते से आकर घोड़ों के खुरों से हमें रौंदते रहे। इसके अलावा हमारे तीन और समुद्र थे। वहाँ का रास्ता मिलते ही यूरोपीय जहाज़, कश्तियाँ, टिड्डों की तरह हमारे समुद्र-तटों पर उतरने लगे। उन्हें भी कहीं कोई रोकने वाला नहीं था। यह सब कैसे होता रहा? वास्तव में औरंगज़ेब के मरते ही हिंदुस्तान में सब कुछ तेज़ी से बिखरना शुरू हो गया था। रोहिल्ले, जाट, मराठा, राजपूत ऊपर के आधे हिंदुस्तान में आपस में लड़ रहे थे; तो दक्षिण में अलग-अलग रजवाड़े और वंश आपसी लड़ाइयों में मशग़ूल थे। आपको चुनौती दी भी, तो सिर्फ़ हैदर अली और टीपू सुल्तान ने। याद होगा आपको, तब, लंदन में अँग्रेज़ माँएँ अपने बच्चों को यह कहकर सुलाती थीं, बेटा सो जा नहीं तो टीपू आ जाएगा। क्या लुत्फ़अंदोज़ बात है मैकॉले साहब, कि हमारे यहाँ यह जुमला आज तक के सबसे हिट जुमलों में एक बन चुका है, बेशक टीपू नहीं तो गब्बर सिंह के मामले में ही। आपने यह नाम नहीं सुना होगा। वैसे था आपकी ही बिरादरी का। ख़ैर! बात इस देश के पतन की हो रही थी। तो देश के तीन तरफ़ समुद्र था। जहाज़ों से पुर्तगाली, डच, फ़्रांसीसी और अँग्रेज़ लगातार आ रहे थे। यहाँ व्यापार कर रहे थे। गोदाम बना रहे थे। दफ़्तर बना रहे थे। अपनी फ़ौजें रख रहे थे जिनमें इनके मुल्क के लोग नहीं के बराबर थे। हमारे लोग ही ज़्यादा होते थे। इन व्यापारियों के लिए ये हमारे अपने ही देश के लोगों से युद्ध करते थे। अगर ये लोग कंपनी का साथ न देते तो क्या इतनी आसानी से आपके पैर जम सकते थे? पर ख़मीर का क्या करेंगे?

1757 से पहले अफ़गानिस्तान के ज़मीनी रास्ते से आकर नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली दिल्ली लूट चुके थे। सोचिए ज़रा, अहमदशाह सात बार आया। यह मुल्क सबके लिए जैसे हरा-भरा चरागाह बन गया था। इनके मुक़ाबले गद्दी पर बैठे हमारे लोग कायर, अय्याश, मूर्ख और निकम्मे थे। हुकूमत और बादशाहत के नाम पर इन्होंने सैकड़ों सालों तक सिर्फ़ जनता का ख़ून चूसा था। ये हमेशा एक दूसरे के साथ लड़ते-मरते रहते थे। हद दर्जे के स्वार्थी और लालची थे। गद्दारी इनकी फ़ितरत में थी। इनकी आपसी लड़ाइयों में अँग्रेज़ी और फ़्रांसीसी कंपनी की फ़ौजें, जिनमें हिंदुस्तानी सिपाही ज़्यादा होते थे, किसी एक तरफ़ से हिस्सा ले रही थीं। किसी की जीत में शामिल थीं। बदले में उससे धन, ज़मीन और अधिक ताक़त हासिल कर रही थीं। ये देते चले जा रहे थे।

फिर पलासी की लड़ाई ने मुल्क की क़िस्मत बदल दी। सिराजुद्दौला क्यों न हारता। मैकॉले साहब? सब तो क्लाइव से मिल गए थे। मीर जाफ़र और दुर्लभ राय मिल चुके थे। जगत सेठ, अमीचंद, महताब राय मिल गए थे। बंगाल का नवाब बनने के लिए मीर जाफ़र ने तो क्लाइव को सब कुछ सौंप दिया था। सारी ताक़त, क़ानून, अकूत दौलत। आगे भी मुल्क लूटने और व्यापार बढ़ाने की पूरी आज़ादी दे दी थी। शर्म आती है मैकॉले साहब कि कोई नवाब या राजा कैसे इस तरह अपना मुल्क बेचने के सुलहनामे पर दस्तख़त कर सकता है? अपनी ग़रीब, मजबूर जनता, अपने किसानों, मज़दूरों, कारीगरों को धोखा दे सकता है? क्या थे वे अँग्रेज़? एक मामूली कंपनी के मामूली क्लर्क ही न? पर यहाँ की हुकूमत अपनी अय्याशी और लालच में अंधे-बहरों की तरह उनके डमरू पर नाच रही थी। अगर आज दुनिया के नक़्शे पर निगाह दौड़ाएँ तो समझ में आ जाता है कि वह सब तब कैसे हुआ होगा? कैसे आम लोग बेबस रहे होंगे? आज फिर वैसी ही कंपनियाँ, वैसे ही क्लर्क मुल्कों को लूट रहे हैं। सरकारों की आड़ में दुनिया पर राज कर रहे हैं। देशों की सरकारें मीर जाफ़र की ही तरह उनके लाभ के सुलहनामों पर दस्तख़त कर रही हैं। अपनी ज़मीन अपने खेत, अपने कारख़ाने, अपनी नदियाँ, पर्वत, जंगल, अपनी ताक़त उन्हें सौंप रही हैं। ये कंपनियाँ ही कई देशों में सरकारें बना रही हैं, गिरा रही हैं। पूँजी की यह ताक़त इनके पास एक दिन में नहीं आई है। चार सौ साल पहले आपकी कंपनी ने इसी पूँजी से धीरे-धीरे दुनिया को मुट्ठी में किया था। पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति, विज्ञान, विकास, अन्वेषण, तकनीक इसी पूँजी की ताक़त के अलग-अलग चेहरे और संस्करण हैं।

पूँजी की ताक़त धरती की अब तक की सबसे बड़ी ताक़त सिद्ध हुई है। इसके फैलने की रफ़्तार किसी भी आँधी-तूफ़ान से तेज़ साबित हुई है। सोचिए मैकॉले साहब, इंसान ने एक करोड़ साठ लाख साल पहले पेड़ों से उतरकर धरती पर पाँव रखे। उसकी इस लंबी यात्रा में सभ्यता का समय सिर्फ़ पिछले दस हज़ार वर्ष का है। इसमें भी, पूँजी और विज्ञान का समय पिछले छह सौ साल का है। एक करोड़ साठ लाख सालों की यात्रा में महज़ पिछले छह सौ सालों में ही, इंसानों की संपत्ति और युद्ध की भूख ने, प्रकृति, वायुमंडल, नदी, जंगल, पहाड़ सब भकोस लिए। इन सबको क़ब्ज़े में लेकर, वह अब धरती के संपूर्ण विनाश पर आमादा है। सोचिए ज़रा, धरती पर इतनी बड़ी हत्यारी प्रजाति कोई दूसरी जन्मी है? मेरे शहर के चारों ओर, 70 मील के घेरे में, शाम होते ही कई इंच मोटी धूल, धुँए, कालिख और ज़हरीली गैसों की पर्त जम जाती है। 100 वॉट के बल्ब दीप की तरह टिमटिमाते हैं। पेड़ों का रंग हरा नहीं, कत्थई और काला हो जाता है। परिंदे बेचैनी से देर तक फड़फड़ाते हैं। उनकी चोंच टेढ़ी, आवाज़ बेसुरी और आँखों में क्रूरता उतर आई है। इसके नीचे इंसान हर साँस के साथ ज़हर निगलता है। आँखें गंधक और तेज़ाब की गंध से जलती हैं। सुबह उसका थूक काला निकलता है। जवानी में फेफड़े छलनी हो जाते हैं। विकास और औद्योगीकरण का यह हत्यारा दैत्य, आपके मुल्क ने ही उपनिवेशों की लूट से जना था। मैकॉले साहब, आपके मरने के बाद हमारे देश में मोहनदास करमचंद गांधी नाम का इंसान जन्मा था। उसने आपकी इस पाशविक सभ्यता के ख़तों को समझा था। इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। लोगों को चेतावनी दी थी। आपका देश तो उसे अपनी हुकूमत में बचाकर ले आया, लेकिन हमारे देश के आज़ाद होने के पाँच महीने बाद ही उसकी हत्या कर दी गई। आप होते, तो आपको निश्चित ही यह हत्या उचित लगती, क्योंकि वह आदमी आपकी सोची और घोषित की गई इस महान सभ्यता को वापस गाँवों और सादे जीवन की ओर ले जा रहा था। आपके पूँजीवादी साम्राज्य के विरुद्ध ग्राम समाज के नए विचार रख रहा था। सादे जीवन की ओर ले जा रहा था। आप उसके हत्यारों की स्तुति में बेशक, वीर होरेशियस की तरह का कोई काव्य रच डालते। शायद कल आपकी तरह कोई रच ही डालेगा।

क्या एक सवाल का जवाब देंगे मैकॉले साहब? इतिहास सिर्फ़ युद्ध और विजय का ही क्यों लिखा जाता है? उसमें कभी दबे-कुचले, कमज़ोर लोगों के जीवन क्यों नहीं होते? उन मामूली लोगों के सुख-दुख क्यों नहीं होते, जो उस समय राय, समाज, धर्म, कलाओं की रीढ़ होते हैं? उस समय जो खेतों में हल चला रहे थे, चूल्हों पर रोटी सेंक रहे थे, चाक पर बर्तन बना रहे थे, प्रेम कर रहे थे, कविताएँ लिख रहे थे। क़ैदख़ानों में मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, देव-प्रतिमाओं के आगे नाच रहे थे, भट्ठियों में तलवारों के लिए लोहा गला रहे थे… वे सब इतिहास में क्यों नहीं होते? बाउल, फ़क़ीरों के गीत, पालकी उठाने वाले कहारों के टूटे कंधे, नदियों पर गुज़रने वाले बजरों के मल्लाहों के गीत, श्मशान के डोम, हरम की बाँदियों के जीवन क्यों नहीं होते? इतिहास में हमें उस समय की कंपनियों के शेयर की क़ीमतें आसानी से मिल जाएँगी, बेरहम सरकारों की अनूठी या निरर्थक घोषणाएँ, क़ानून मिल जाएँगे, पर उस समय गाई जाने वाली लोरी नहीं मिलेगी। क़त्ल करने वालों के रंगीन क़िस्से मिल जाएँगे, पर क़त्ल किए जाने से ठीक पहले, मरने वाले की फटी आँखें नहीं मिलेंगी। फ़लक को चीरने वाली उसकी आख़िरी चीख़ नहीं सुनाई देगी।

आपने भी तो अपने ‘महान इंग्लैंड’ का इतिहास लिखा है। कलकत्ता में आप थ्यूसिडिडीज़ ही पढ़ते रहते थे। हिरोदतस से प्लूटार्क, लिवि, गिब्बन को घोटकर पी चुके थे। पर आपने भी क्या लिखा? ग्रीस और रोम की महान सभ्यताओं के आगे सिर झुकाया है। उनकी महानताओं के गीत लिखे हैं। एक शब्द भी आपने रोम के गुलामों और ग्लैडिएटर्स की हत्याओं, पशुता के चरम प्रतीक कोलोजियम की निंदा में नहीं लिखा। आपने जो लिखा, वह शायद आपको अब याद न हो, इसलिए सुन लीजिए। मुझे याद है :

Then out spake brave Horatius
The Captain of the Gate:
To every man upon this earth
Death comeths soon or late.
And how can man die better
Than facing fearful odds,
For the ashes of his fathers,
And the temples of his gods

1857 की हमारी क्रांतिको, जिसे आप सिपाही विद्रोह कहते हैं, कुचलने के लिए इंग्लैंड के लोग तब इसी गीत को गाकर, अपने सिपाहियों में हिंदुस्तानियों को क़त्ल करने, उनसे बर्बर बदला लेने का जोश भरते थे। और भी सुनिए, जो आपने लिखा है :

Let no man stop to plunder
But slay and slay and slay
The gods who live for ever
Are on our side to day

कितनी घृणा थी आपके अंदर हमारे इन क्रांतिकारियों के लिए। उनसे ख़ूनी बदला लेने के लिए आपकी आत्मा तड़प रही थी। नाना साहब के लिए आप कैसी मौत चाहते थे याद है? रेवैलेक (Ravaillac) जैसी। ‘‘मुझे लगता है इतना अधिक बदला लेने की भावना से भरा होना तकलीफ़देह है… मैं, जो किसी जानवर या चिड़िया को तकलीफ़ में नहीं देख सकता, लेकिन नाना साहब को अगर फ़्राक्वा रेवैलैक जैसी यातना दी जाए, तो मैं बिना पलक झपकाए उसे देखता रह सकता हूँ।’’ और कैसे मारा गया था रेवैलेक? उसने हेनरी चौथे की हत्या की थी। खींचे जाने और टुकड़े किए जाने से पहले, उसे जलते हुए गंधक, पिघले हुए गर्म लेड, खौलते तेल से जलाया गया। उसकी खाल को प्लास जैसे औज़ार से खींचा गया। फिर उसकी बाँहों और पाँवों को दो विपरीत दिशाओं में खींचने वाले घोड़ों से बाँधा गया। ये जानवर ताक़त और जोश से भरे हुए थे। उन्होंने उसकी एक जांघ खींचकर अलग कर दी। इस बर्बरता के डेढ़ घंटे बाद रेवैलेक मर गया।

आपने जिस तरह फ़्राक्वा रेवैलेक के साथ किए गए इस सलूक का समर्थन किया, वह आपके इतिहासकार और अँग्रेज़ी सभ्यता के अंधभक्त के अनुकूल ही था, पर इसके ठीक उलट मेलिए (MESLIER) ने जिस तरह उसे याद किया, वह भी सुन लीजिए। शायद आपने न पढ़ा हो। मेलिए (MESLIER) के ये शब्द आज इतिहास में दर्ज हैं। हमारा आज का सबसे बड़ा सच हैं : ‘‘विचार, अभिव्यक्ति और छपे शब्द आज़ाद हों। शिक्षा धर्म निरपेक्ष और जकड़नों से रहित हो और मनुष्य हर दिन अपने स्वप्नों के समाज की ओर बढ़े। मौजूदा सामाजिक व्यवस्था असमान है। यह लाखों लोगों को, निम्न स्तर की ग़रीबी और अज्ञानता में रखकर, बहुत थोड़े लोगों को धनी बनाती है। उन्हें अय्याशी से भ्रष्ट करती है। बुराई की जड़ संपत्ति की संस्था में है। संपत्ति चोरी है, और शिक्षा, धर्म और क़ानून, इस चोरी को अपराध रहित बनाने और उसकी रक्षा करने के हिसाब से बनाए जाते हैं। कुछ थोड़े लोगों का, बहुत सारे लोगों के विरुद्ध किए जा रहे इस षड़यंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांति करना पूरी तरह न्यायपूर्ण है। कहाँ हैं हमारे फ़्रांस के फ़्राक्वा क्लेमेंट (जिसने हेनरी तृतीय की हत्या की) और कहाँ हैं रेवैलेक? क्या हमारे समय में ऐसे लोग आज भी ज़िंदा हैं, जो मनुष्यों के दुश्मन, इन घृणित राक्षसों को रोक सकें, इनकी हत्या कर सकें, और इस, तरह लोगों को आतंक से मुक्त कर सकें।’’ (विल डयूराँ : खंड : IX : PP 616)

कितना विचित्र है। मैकाले साहब, कि रैवैलेक की हत्या की तरह नाना साहब की हत्या चाहने वाले आप आज हमारे भारत के नए भाग्य विधाता हैं।

मैकॉले साहब, मेरा देश सचमुच आपका ऋणी है। इसलिए, कि आपकी दी हुई चार चीज़ों से ही अब यह देश चल रहा है। आपके वोट की ताक़त से बनाई गई अँग्रेज़ी शिक्षा नीति, सरकारी नौकरियों के ढाँचे, (पहले ICS अब IAS) भारतीय दंड संहिता (IPC) और आपका चाहा और सोचा गया हमारे देश का एक ऐसा वर्ग, जो अपने ख़ून और रंग में हिंदुस्तानी है; पर अपनी सोच, राय, जीवन मूल्यों और निष्ठा में अँग्रेज़ है। आपकी सभ्यता और जीवन-शैली का अनुसरण करता है। ग़रीब, कमज़ोर, किसान और मज़दूर से नफ़रत करता है। ये लोग उसे अपनी ऐश की सुनहरी चादर में पैबंद की तरह दिखते हैं। यह वर्ग पूरी बेशर्मी से मारी एंटोनिएट की तरह कहता है, अगर ग़रीबों के पास खाने के लिए रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते? उसकी सारी निष्ठाएँ और जीवन-लक्ष्य पूँजी अर्जित करने में हैं। आपका चाहा और तैयार किया हुआ यह वर्ग, आज इस देश के गैर इंसानी, बदहवास महानगरों में रहता हुआ, वैभवपूर्ण जीवन और अंधी लिप्साओं के भोग में वहशियों की तरह व्यस्त और तृप्त है। किसी भी विचार, संवेदना, ज्ञान, मानवीय गरिमा, स्वंत्रता, अधिकार, समानता, जीवन मूल्य के स्पर्श से भी दूर, अपनी अतृप्त लालसाओं के निष्ठुर द्वीप में जी रहा है। आपकी दी हुई इन चारों चीज़ों ने मिलकर ही अँग्रेज़ी हूकूमत वाले हिंदुस्तान पर शासन किया था। यही चारों बातें मिलकर आज फिर यह देश चला रही हैं। कुछ भी नहीं बदल पाए हम मैकॉले साहब। आप आज भी इस देश की नसों में बह रहे हैं। इसका जीवन, इसका प्राण हैं। आपकी महिमा ही है कि आज इस देश में कोई आपकी कंपनी और अँग्रेज़ी राज्य की लूट की बात नहीं करता। इनकी निंदा नहीं करता, क्लाइव, हेस्टिंग्स, डलहौज़ी को भी बुरा नहीं कहता। अलबत्ता गांधी, नेहरू की निंदा ज़रूर करता है। उन्हें देश का शत्रु बताता है। है न अद्भुत देश? ऐसे लोग? हमारी आत्माओं में ग़ुलामी और बेईमानी की कितनी गहरी जड़ें, आपकी कंपनी और आपने डाली हैं। पर ग़लती आपकी नहीं हमारी ही है। हमारे उसी ख़मीर की है। आज का सच तो यही है कि इस देश में सब जगह आपकी प्रतिमाएँ होनी चाहिए। मैकॉले नगर, मैकॉले संस्थान होने चाहिए। कनखियों से मत घूरिए मैकॉले साहब। मैं क़तई आपका उपहास नहीं कर रहा। सच कह रहा हूँ। ख़ुद ही सोचिए। 1857 की क्रांति को घृणा और भयानक प्रतिशोध से देखने, और हमारी नस्ल को धरती से मिटा देने की इच्छा रखने और हुँकार भरने वाले आप, (आपके साथ चार्ल्स डिकेंस भी शामिल थे न?), अपनी क़ब्र में लेटे हुए हमारे भारत के नए भाग्य विधाता बन चुके हैं, लेकिन हमारी आज़ादी की उस पहली लड़ाई में शामिल होने वाला आख़िरी म़ुगल बादशाह, अस्सी साल की उम्र में रंगून की एक तंग कोठरी में तन्हा और गुमनामी में, आप लोगों की क़ैद में मरा, पर उसको कोई याद नहीं करता। अपनी क़ब्र के अँधेरों में वह आज भी गुनगुनाता है :

पसे-मर्ग मेरे मज़ार पर, जो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने, सरे-शाम ही से बुझा दिया

मेरी आँख झपकी थी एक पल, मेरे दिल ने चाहा कि उठके चल
दिले-बेक़रार ने ओ मियाँ, वहीं चुटकी लेके जगा दिया

मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परी
वो जो तेरा आशिक़े-ज़ार था, तहे-ख़ाक उसको दबा दिया

मैंने दिल दिया, मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की
किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों में उड़ा दिया

इसके लड़कों के सिर काटकर उसके सामने लाए गए थे। आज इसके वंशज इस देश के सबसे बड़े शत्रु बना दिए गए हैं, और आप भाग्य विधाता।

बहुत लिख दिया। अब आख़िरी बात। आपने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि जब आप ब्रिटिश म्यूज़ियम की लाइब्रेरी में पहले एक पाठक, और बाद में ट्रस्टी की तरह जाते थे, तब वहाँ एक कमरे में लंबी दाढ़ी वाला आदमी, लाइब्रेरी बंद होने तक किताबों में डूबा रहता था। यही वह आदमी था मैकॉले साहब, जो बाद में न अर्थशास्त्री बना, न देवदूत, लेकिन आपके बुर्जुआजी समाज, विचार, दुनिया और व्याख्याओं का सबसे पैना और कड़वा आलोचक बना। इसी ने वंचितों, मज़दूरों, मेहनतकशों को ‘वर्ग संघर्ष’ का विश्वप्रसिद्ध विचार और सूत्र दिया। मनुष्य के इतिहास का एक नया पाठ रचा। एक नया दर्शन पैदा किया, जो हर तरह से भौतिकवादी था और इस असमान, ग़लत दुनिया को सुधारने पर नहीं, बल्कि उसे बदलने पर विश्वास करता था। उसने माना है कि उसको यह सब बुर्जुआ इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों ने सिखाया है। बेशक आप इसी वर्ग और मानसिकता के थे। वह आपके लिखे इंग्लैंड के प्रसिद्ध इतिहास को, एक चापलूस और होशियार बातूनी इतिहासकार का लिखा इतिहास मानकर उससे नफ़रत करता था। उसका मानना था कि आपने बुर्जआजी हित के लिए इंग्लैंड का झूठा इतिहास लिखा है। आप शायद लंदन में उससे कभी मिले नहीं होंगे मैकॉले साहब। अगर मिले होते और 1857 पर उसकी लिखी टिप्पणियाँ, रिपोर्ट पढ़ी होतीं तो भारत की इस क्रांति के लिए आपका नज़रिया बदल जाता। सिर्फ़ यही नहीं, मुमकिन था, नस्लवादी श्रेष्ठता पर आपका विश्वास, आपकी जनविरोधी मानसिकता उच्चवर्ग की श्रेष्ठता का अहंकार और ग़रीब, किसानों, मज़दूरों के प्रति उपहास उड़ाने वाली नफ़रत कुछ कम हो जाती। आप मनुष्य और मनुष्यता के कुछ नज़दीक आ जाते।

मुआफ़ी चाहता हूँ मैकॉले साहब, ख़त कुछ लंबा हो गया है। बस आपको इतना और बताता चलूँ, कि आपको ख़त लिखने का विचार आख़िर मन में आया क्योंकर? मैंने पहले भी आपसे अपने देश के एक व्यक्ति, मोहनदास करमचंद गांधी का ज़िक्र किया है। हमारे देश की करेंसी में अभी इस व्यक्ति का चित्र बचा हुआ है। इसे कई ख़ब्त थे। इनमें से एक था—ख़त लिखने का ख़ब्त। उसने सैकेड़ों लोगों को हजारों ख़त लिखे। तोलस्तोय, हिटलर, रोम्या रोलां, रवींद्रनाथ और बहुतों को। उसके सपनों में एक हिंदुस्तान था। आज़ादी की लड़ाई इसी हिंदुस्तान को सामने रखकर लड़ी गई थी। पर आज़ादी मिलने के साथ ही गांधी को हाशिए पर डाल दिया गया। समय के साथ उसका नहीं, आपकी इच्छाओं और इरादों का हिंदुस्तान बनता चला गया। अगर आज वह जीवित होता, तो इस हिंदुस्तान को देखकर आपको ज़रूर ख़त लिखता। बस, मुझे लगा मैं ही यह काम कर डालूँ। क्या करूँ मैकॉले साहब, वह इसी तरह इस नामुराद ज़िंदगी में आता-जाता रहता है। यही सोचकर ख़त लिख दिया। आपकी क़ब्र का पता जानता हूँ। पत्र उसी पते पर पोस्ट करूँगा—

श्री मैकॉले साहब की क़ब्र, वेस्टमिनिस्टर एबि क़ब्रिस्तान, सैमुएल एडिसन के पाँव के नीचे, जॉन्सन की क़ब्र से तीन गज़ दूर, वेस्टमिनिस्टर, इंग्लैंड

तो बात बस इतनी ही थी। अब आज्ञा चाहूँगा। कुछ भी ग़लत या बुरा कहा-सुना हो तो अज्ञानी हिंदुस्तानी समझकर क्षमा कर दीजिएगा।

— आपसे अपनी आज़ादी के 75 वर्ष के बाद भी, आपका सदैव ऋणी, और आपकी कृपा के सदैव आकांक्षी देश के एक छोटे शहर का, एक अज्ञानी, अज्ञात हिंदुस्तानी

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'अकार' के 59वें में पूर्व-प्रकाशित, वहीं से साभार

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