बिस्कोहर की माटी
biskohar ki maati
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है। ‘नंगातलाई का गाँव’ आत्मकथा का अंश
पूरब टोले के पोखर में कमल फूलते। भोज में हिंदुओं के यहाँ भोजन कमल-पत्र पर परोसा जाता। कमल-पत्र को पुरइन कहते। कमल के नाल को भसीण कहते। आसपास कोई बड़ा कमल-तालाब था—लेंवडी का ताल। अकाल पड़ने पर लोग उसमें से भसीण (कमल-ककड़ी) खोदकर बड़े-बड़े खाँचों में सर पर लादकर खाने के लिए ले जाते। कमल-ककड़ी को सामान्यतः अभी भी गाँव में नहीं खाया जाता। कमल का बीज कमल गट्टा ज़रूर खाया जाता है। कमल से कहीं ज़्यादा बहार कोइयाँ की थी। कोइयाँ वही जलपुष्प है जिसे कुमुद कहते हैं। इसे कोका-बेली भी कहते हैं। शरद में जहाँ भी गड्डा और उसमें पानी होता है, कोइयाँ फूल उठती हैं। रेलवे-लाइन के दोनों ओर प्राय: गड्ढों में पानी भरा रहता है। आप उत्तर भारत में इसे प्रायः सर्वत्र पाएँगे। बिसनाथ बहुत दिनों समझते थे कि कोइयाँ सिर्फ़ हमारे यहाँ का फूल है। एक बार वैष्णो देवी दर्शनार्थ गए। देखा यह पंजाब में भी रेलवे-लाइन के दोनों तरफ़ खिला था—अनवरत, निरंतर। शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिंब और खिली हुई कोइयाँ की पत्तियाँ एक हो जाती हैं। इसकी गंध को जो पसंद करता है वही जानता है कि वह क्या है! इन्हीं दिनों तालाबों में सिंघाड़ा आता है। सिंघाड़े के भी फूल होते हैं—उजले और उनमें गंध भी होती है। बिसनाथ को सिंघाड़े के फूलों से भरे हुए तालाब से गंध के साथ एक हलकी सी आवाज़ भी सुनाई देती थी। वे घूम-घूमकर तालाबों से आती हुई वह गंधमिश्रित आवाज़ सुनते। सिंघाड़ा जब बतिया (छोटा) दूधिया होता है तब उसमें वह गंध भी होती है।
और शरद में ही हरसिंगार फूलता है। पितर-पक्ख (पितृपक्ष) में मालिन दाई घर के दरवाज़े पर हरसिंगार की राशि रख जाती थीं। रख जाती थीं, तो खड़ी बोली हुई। गाँव की बोली में 'कुरइ जात रहीं।' बहुत ढेर सारे फूल मानो इकट्ठे ही अनायास उनसे गिर पड़ते थे। 'कुरइ देना' है तो सकर्मक लेकिन सहजता अकर्मक की है। गाँव में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टी के अनेक वर्णों-आकारों का एक ऐसा समस्त वातावरण था जो सजीव था। बिसनाथ आदि बच्चे उसे छूते, पहचानते, उससे बतियाते थे। सभी चीज़ें प्रत्येक चीज़ में थीं और प्रत्येक सबमें। आकाश भी अपने गाँव का ही एक टोला लगता। चंदा मामा थे। उसमें एक बुढ़िया थी। जो बच्चों की दादी की सहेली थी। माँ आँचल में छिपाकर दूध पिलाती थी। बच्चे का माँ का दूध पीना सिर्फ़ दूध पीना नहीं माँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन-चरित होता है। बच्चा सुबुकता है, रोता है, माँ को मारता है, माँ भी कभी-कभी मारती है, बच्चा चिपटा रहता है, माँ चिपटाए रहती है, बच्चा माँ के पेट का स्पर्श, गंध भोगता रहता है, पेट में अपनी जगह जैसे ढूँढ़ता रहता है। बिसनाथ ने एक बार ज़ोर से काट लिया। माँ ने ज़ोर से थप्पड़ मारा फिर पास में बैठी नाउन से कहा—दाँत निकाले है, टीसत है। बच्चे दाँत निकालते हैं तब हर चीज़ को दाँत से यों ही काटते हैं, वही टीसना है। चाँदनी रात में खटिया पर लेटी माँ बच्चे को दूध पिला रही है। बच्चा दूध ही नहीं, चाँदनी भी पी रहा है, चाँदनी भी माँ जैसी ही पुलक-स्नेह-ममता दे रही है। माँ के अंक से लिपटकर माँ का दूध पीना, जड़ के चेतन होने यानी मानव-जन्म लेने की सार्थकता है। पशु-माताएँ भी यह सुख देती-पाती होंगी। और पक्षी-अंडज!
यह विसनाथ ने बहुत बाद में देखा-समझा। दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में तब बत्तखें होती थीं। बत्तख अंडा देने को होती तो पानी छोड़कर ज़मीन पर आ जाती। इसके लिए एक सुरक्षित काँटेदार बाड़ा था। देखा—एक बत्तख कई अंडों को से रही है। पंख फुलाए उन्हें छिपाए है—दुनिया से बचाए है। एक कौवा थोड़ी दूर ताक में। बत्तख की चोंच सख़्त होती है। अंडों की खोल नाज़ुक।
कुछ अंडे बत्तख माँ के डैनों से बाहर छिटक जाते। बत्तख उन्हें चोंच से इतनी सतर्कता, कोमलता से डैनों के अंदर फिर छुपा लेती थी कि बस आप देखते रहिए, कुछ कह नहीं सकते—इसे 'सेस, सारद' भी नहीं बयान कर सकते। और माँ की निगाह कौवे की ताक पर भी थी। कभी-कभी वह अंडों को बड़ी सतर्कता से उलटती-पलटती भी।
किसने दी बिसनाथ की माँ और बत्तख की माँ को इतनी ममता? जैसे पानी बहता है, हवा चलती है, वैसे ही माँ में बच्चे की ममता-प्रकृति में ही सब कुछ है। जड़ चेतन में रूपांतरित होकर क्या-क्या अंतरबाह्य गढ़ता है, लीलाचारी होता है! गुरुवर हजारीप्रसाद द्विवेदी प्राय: कहते हैं—
“क्या यह सब बिना किसी प्रयोजन के है? बिना किसी उद्देश्य के है?
होगा कोई महान निहित उद्देश्य, प्रयोजन! लेकिन अभी तो 'बुश-ब्लेयर' ने इराक़ फ़तह किया है। कहाँ माँ का बच्चे को दूध पिलाना कहाँ बत्तख का अंडा सेना!
बिसनाथ पर अत्याचार हो गया। जब वह दूध पीनेवाले ही थे कि छोटा भाई आ गया। बिसनाथ दूध कटहा हो गए। उनका दूध कट गया। माँ के दूध पर छोटे भाई का क़ब्ज़ा हो गया। छोटा भाई हुमक-हुमककर अम्माँ का दूध पीता और बिसनाथ गाय का बेस्वाद दूध। कसेरिन दाई पड़ोस में रहती थीं। बिसनाथ को उन्होंने ही पाला-पोसा। सूई की डोरी से बनी हुई कथरी सुजनी कहलाती है। साफ़-सफ़्फ़ाक सुजनी पर कसेरिन दाई के साथ लेटे तीन बरस के बिसनाथ चाँद को देखते रहते। लगता है उसे हाथ से छू रहे हैं, उसे खा रहे हैं, उससे बातें कर रहे हैं। वह धुक-धुक करके चलता रहता। बादल में छिप जाता, फिर उसमें से निकल आता। इमली के छतनार पेड़ के अंतरालों से छनकर चाँदनी के कितने, टुकड़े बिखरते। शीशम की फुनगी को चाँदनी कैसे चूमती!
फूलों की बात हो रही थी—कमल, कोइयाँ, हरसिंगार की। लेकिन ये तो फूल हैं और फूल कहे जाते हैं। ऐसे कितने फूल थे जिनकी चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती, और हैं वे असली फूल—तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, अमरूद, कदंब, बैंगन, कोंहड़ा (काशीफल), शरीफ़ा, आम के बौर, कटहल, बेल (बेला, चमेली, जूहीवाला बेला नहीं), अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के सेमल के फूल। कदम (कदंब) के फूलों से पेड़ लदबदा जाता। कृष्ण जी उसी पर झूलते थे—' झूला पड़ा कदम की डाली,' 'नंदक नंद कदंबक तरुतर'। क्या कदंब और भी देशों में होता है? मुझे तो लगता है कदंब का दुनियाभर में एक ही पेड़ है—बिस्कोहर के पच्छूँ टोला में ताल के पास। सरसों के फूल का पीला सागर लहराता हुआ। खेतों में तेल—तेल की गंध, जैसे हवा उसमें अनेक रूपों में तैर रही हो। सरसों के अनवरत फूल-खेत सौंदर्य को कितना पावन बना देते हैं। बिसनाथ के गाँव में एक फल और बहुत इफ़रात होता था—उसे भरभंडा कहते थे, उसे ही शायद सत्यानाशी कहते हैं। नाम चाहे जैसा हो सुंदरता में उसका कोई जवाब नहीं। फूल पीली तितली जैसा, आँखें आने पर माँ उसका दूध आँख में लगातीं और दूबों के अनेक वर्णी छोटे-छोटे फूल—बचपन में इन सबको चखा है, सूँघा है, कानों में खोसा है। और देखिए—धान, गेहूँ, जौ के भी फूल होते हैं—ज़ीरे की शक्ल में—भुट्टे का फूल, धान के खेत और भुट्टे की गंध जो नहीं जानता उसे क्या कौन समझाए!
फूल खिले, खिले फूल
धान फूल, कोदो फूल
कुटकी फूल खिले।
फूल खिले, खिले फूल
गोभी फूल, परवल फूल
करेला, लौकी, खेक्सा
मिर्ची फूल खिले।
फूल खिले, खिले फूल
खीरा फूल, तोरई फूल
महुआ फूल खिले।
ऐसी हो बारिश
ख़ूब फूल खिलें।
—नवल शुक्ल
घास पात से भरे मेड़ों पर, मैदानों में, तालाब के भीटों पर नाना प्रकार के साँप मिलते थे। साँप से डर तो लगता था लेकिन वे प्रायः मिलते-दिखते थे। डोंड़हा और मजगिदवा विषहीन थे। डोंड़हा को मारा नहीं जाता। उसे साँपों में वामन जाति का मानते थे। धामिन भी विषहीन है लेकिन वह लंबी होती है, मुँह से कुश पकड़कर पूँछ से मार दे तो अंग सड़ जाए। सबसे ख़तरनाक गोहुअन जिसे हमारे गाँव में ‘फेंटारा' कहते थे और उतना ही ख़तरनाक 'घोर कड़ाइच' जिसके काट लेने पर आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाकर मरे। फिर भटिहा—जिसके दो मुँह होते हैं। आम, पीपल, केवड़े की झाड़ी में रहने वाले साँप बहुत ख़तरनाक।
अजीब बात है साँपों से भय भी लगता था और हर जगह अवचेतन में डर से ही सही उनकी प्रतीक्षा भी करते थे। छोटे-छोटे पौधों के बीच में सरसराते हुए साँप को देखना भी भयानक रस हो सकता है। इसी तरह बिच्छू! साँप के काटे लोग बहुत कम बचते थे। बिच्छू काटने से दर्द बहुत होता था, कोई मरता नहीं था। फूलों की गंधों से साँप, महामारी, देवी, चुड़ैल आदि का संबंध जोड़ा जाता था। गुड़हल का फूल देवी का फूल था। नीम के फूल और पत्ते चेचक में रोगी के पास रख दिए जाते। फूल बेर के भी होते हैं और उनकी गंध वन्य, मादक होती है। बसंत में फूल आते हैं। बेर का फूल सूँघकर बर्रे ततैया का डंक झड़ जाता है। तब उन्हें हाथ से पकड़ लेते, उन्हें जेब में भर लेते। उनकी कमर में धागा बाँधकर लड़ाते।
ख़ूब गर्मी चिलचिलाती पड़ती। घर में सबको सोता पाकर चुपके से निकल जाते, दुपहरिया का नाच देखते। गर्मी में कभी-कभी लू लगने की घटनाएँ सुनाई पड़तीं। माँ लू से बचने के लिए धोती या क़मीज़ से गाँठ लगाकर प्याज़ बाँध देतीं। लू लगने की दवा थी कच्चे आम का पन्ना। भूनकर गुड़ या चीनी में उसका शरबत पीना, देह में लेपना, नहाना। कच्चे आम को भून या उबालकर उससे सिर धोते थे। कच्चे आमों के झौंर के झौंर पेड़ पर लगे देखना, कच्चे आम की हरी गंध, पकने से पहले ही जामुन खाना, तोड़ना—यह गर्मी की बहार थी। कटहल गर्मी का फल और तरकारी भी है।
वर्षा ऐसे सीधे एकाएक नहीं आती थी। पहले बादल घिरते—गड़गड़ाहट होती। पूरा आकाश बादलों से ऐसा घिर जाता कि दिन में रात हो जाती। 'चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, घन घमंड गरजत घन घोरा और कंपित-जगम-नीड़ बिहंगम।' वर्षा ऐसी ऋतु है जिसमें संगीत सबसे ज़्यादा होता है, तबला, मृदंग और सितार का। जोश ने लिखा है—'बजा रहा है सितार पानी' और वर्षा ऐसे नहीं—आती हुई दिखलाई पड़ती थी। मेरे घर की छत से—जैसे घोड़ों की क़तार दूर से दौड़ी हुई चली आ रही हो—और पास, और पास अब नदी पर बरसा, अब डेगहर पर, अब बड़की बग़िया पर, अब पड़ोस घर में टप-टप-टप, आँधी चले तो टीन छप्पर उड़े। कई दिन लगातार बरसे तो दीवार गिरे, घर धँसके—बढ़िया आवे। भीषण गर्मी के बाद बरसात में पुलकित कुत्ते, बकरी, मुर्ग़ी-मुर्ग़े—भौं-भौं, में-में, चूँ-चूँ करते मगन बेमतलब इधर-उधर भागें, थिरकें। पहली वर्षा में नहाने से दाद-खाज, फोड़ा-फुँसी ठीक हो जाते हैं—लेकिन मछलियाँ कभी-कभी उबस के माँजा (फेन) लगने से भी मर जाती हैं—राजा दशरथ राम के बिरह में ऐसे व्याकुल 'माँजा मनहु मीन कहँ व्यापा।' जोंक, केंचुआ, ग्वालिन-जुगनू, अगनिहवा, बोका, करकच्ची, गोंजर आदि, मच्छर, डाँसा आदि कीड़े-मकोड़ों की बहुतायत—भूमि जीव संकुल रहे, किंतु नाना प्रकार के दूबों, वनस्पतियों की नव-हरित आभा की लहरों का क्या कहना—धोए-धोए पातन की बात ही निराली है!
फिर गंदगी कीचड़, बदबू की लदर-पदर। बाढ़ आवे, सिवान-खेत-खलिहान पानी से भर जाए तो दिसा-मैदान की भारी तकलीफ़। जलावन की लकड़ी पहले न इकट्ठा कर ली तो गीली लकड़ी, गीले कंडे से घर धुएँ से भर जाए। बरसात के बाद बिस्कोहर की धरती, सिवान, आकाश, दिशाएँ, तालाब, बूढ़ी राप्ती नदी निखर उठते थे। धान के पौधे झूमने लगते थे, भुट्टे, चरी, सनई के पौधे, करेले, खीरे, कांकर, भिंडी, तोरी के पौधे, फिर लताएँ। शरद में फूल-तालाब में शैवाल (सेवार) उसमें नीला जल—आकाश का प्रतिबिंब—नीले जल के कारण तालाब का जल अगाध लगता। स्नान करने से आत्मीय शीतलता और विशुद्धता की अनुभूति—तालाबों का नीला प्रसन्न जल—बिसनाथ को लगता अभी इसमें से कोई देवी-देवता प्रकट होगा। खेतों में पानी देने के लिए छोटी-छोटी नालियाँ बनाई जातीं, उसे 'बरहा' कहते थे, उसमें से जल सुरीला शब्द करता हुआ, शाही शान से बहता जैसे चाँदी की धारा रेंग रही हो, उस पर सूर्य की किरणें पड़तीं।
जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता। बरसात की भीगी चाँदनी चमकती तो नहीं लेकिन मधुर और शोभा के भार से दबी ज़्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत।
पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफ़ी कम है—ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो, बिसनाथ दस से ज़्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में, बरसात की चाँदनी रात में जूही की ख़ुशबू आ रही है। बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी ख़ुशबू प्राणों में बसी रहती थीं। यों भी चाँदनी में सफ़ेद फूल ऐसे लगते हैं मानो पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो। चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और ख़ुशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औरत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी, जिसके फूलों की ख़ुशबू आ रही थी। प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाश, चाँदनी, सुगंधि सब देख रहे थे। वह बहुत दूर की चीज़ इतने नज़दीक आ गई थी। सौंदर्य क्या होता है, तदाकार परिणति क्या होती है? जीवन की सार्थकता क्या होती है; यह सब बाद में सुना, समझा, सीखा सब उसी के संदर्भ में। वह नारी मिली भी—बिसनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में ही हुई। कई बार मिलने के बाद बहुत हिम्मत बाँधने के बाद उस नारी से अपनी भावना व्यक्त करने के लिए कहा, “जे तुम्हैं पाइ जाइ ते जरूरै बौराय जाइ—जो तुम्हें पा जाएगा वह ज़रूर ही पागल हो जाएगा।
“जाइ देव बिसनाथ बाबू, उनसे तौ हमार कब्बों ठीक से भेंटौ नाहीं भई।
बिसनाथ मान ही नहीं सकते कि बिस्कोहर से अच्छा कोई गाँव हो सकता है और बिस्कोहर से ज़्यादा सुंदर कहीं की औरत हो सकती है।
बिसनाथ को अपनी माँ के पेट का रंग हल्दी मिलाकर बनाई गई पूड़ी का रंग लगता—गंध दूध की। पिता के कुर्ते को ज़रूर सूँघते। उसमें पसीने की बू बहुत अच्छी लगती। नारी शरीर से उन्हें बिस्कोहर की ही फ़सलों, वनस्पतियों की उत्कट गंध आती है। तालाब की चिकनी मिट्टी की गंध गेहूँ, भुट्टा, खीरा की गंध या पुआल की होती है...। फूले हुए नीम की गंध को नारी-शरीर या शृंगार से कभी नहीं जोड़ सकते। वह गंध मादक, गंभीर और असीमित की ओर ले जाने वाली होती है। संगीत, गंध, बच्चे—बिसनाथ के लिए सबसे बड़े सेतु हैं काल, इतिहास को पार करने के। बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब ने एक पहाड़ी ठुमरी गाई है—अब तो आओ साजन—सुनें अकेले में या याद करें इस ठुमरी को तो रुलाई आती है और वही औरत इसमें व्याकुल नज़र आती है। अप्राप्ति की कितनी और कैसी प्राप्तियाँ होती हैं! वह सफ़ेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश सँवारे हुए हैं। आँखों में पता नहीं कैसी आर्द्र व्यथा है। वह सिर्फ़ इंतज़ार करती है। संगीत, नृत्य, मूर्ति, कविता, स्थापत्य, चित्र गरज कि हर कला रूप के आस्वाद में वह मौजूद है। बिसनाथ के लिए हर दुःख-सुख से जोड़ने की सेतु है।
इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध अजीब तौर पर जुड़ा हुआ है।
- पुस्तक : अंतराल (भाग-2) (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : विश्वनाथ त्रिपाठी
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2022
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