जब मैं ग्यारह साल की थी, मिडिल की परीक्षा के बाद मेरा पढ़ना ख़त्म हो गया। पिताजी की राय नहीं पड़ी कि वे मुझे और पढ़ावें। मेरे बड़े भाई का इरादा बहुत था कि वे मुझे और शिक्षा दिलावें; पर पिताजी पुराने विचारों के आदमी थे। वे समझते कि लड़की सयानी हो चली है। समाज में उनकी हँसी होगी। घरेलू काम-काज में होशियार करना चाहते थे; क्योंकि उनका विचार था कि शिक्षा के माने यह नहीं है कि सिर्फ़ पढ़ाई हो। गृह-कार्य में चतुर होना गृहिणी का मुख्य कर्तव्य है।
बस मेरी गृहचर्या शुरू हुई। धीरे-धीरे मैं तेरह साल की हुई। घर में मेरे पिताजी, माताजी, एक बड़े भाई और एक मुझसे छोटा भाई और मेरी भाभी थीं। भाई का ब्याह, जब मैं ग्यारह साल की थी, तभी हो गया था।
मेरी माँ बड़ी चतुर गृहिणी थीं। घर का पूरा प्रबंध करने में बड़ी होशियार थीं। मुझे भी वह योग्य गृहिणी बनाना चाहती थीं। भाभी सिलाई वग़ैरा में होशियार थीं। माताजी तो गृह-कार्य सिखातीं, भाभी सीना-पिरोना सिखातीं। मैंने इन सब बातों को ख़ूब अच्छी तरह सीख लिया।
(2)
चौदहवें साल में पहुँचते-पहुँचते पिताजी को मेरे विवाह की बड़ी जल्दी पड़ी। पिताजी वृद्ध हो चले थे। वे चाहते थे कि अपने जीवन में कन्या का विवाह कर दें। माताजी का भी आग्रह था। पिताजी को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। सिर्फ़ एक जगह बात हुई और उसी जगह ब्याह तय हो गया। ब्याह के पहिले सिर्फ़ मैं खेलने-खाने और सीने-पिरोने में मग्न रहती। कभी ब्याह के लिए इच्छा न होती। सुनती कि ब्याह के बाद ससुराल जाना पड़ता है। यह सोचकर मेरी इच्छा न होती कि ब्याह हो। मैं सोचती कि कैसे सब ससुराल जाती हैं। मुझसे तो यह घर न छोड़ा जाएगा।
मुझे बचपन से किताबें पढ़ने का बहुत शौक़ था। पिताजी लाइब्रेरी से पुस्तकें मँगा देते; परंतु वे पुस्तकें सिर्फ़ बहादुरी और धर्म-कर्म की होतीं। एक दफ़े मैंने कुतूहलवश कोई उपन्यास मँगाया। माताजी ने पढ़ा, वे काफ़ी पढ़ी लिखी थीं। बस झट मना करा दिया कि लड़कियों के लिए ये किताबें न भेजना चाहिए। भाभी अगर कभी मज़ाक करतीं, वे भी रोक ली जातीं। फिर मुझे ब्याह का महत्व कैसे मालूम हो। मैं तो सिर्फ़ यही जानती कि ब्याह होने से मैं माता-पिता से अलग कर दी जाऊँगी। इसी से मैं बहुत डरती थी।
(3)
ब्याह तय हो गया। मेरे ससुरजी अच्छे आदमी थे। उन्होंने दहेज़ का क़रार न किया। पिताजी दहेज़ के बहुत ख़िलाफ़ थे। भाई के ब्याह में उन्होंने भी दहेज़ न लिया था। मेरे ससुरजी ने दहेज़ तो न लिया; पर पिताजी ने अपनी हैसियत के अनुसार बहुत दिया। मैं भी माँ-बाप की बड़ी दुलारी लड़की थी। क़रीब सात हज़ार रूपए का मेरे ब्याह में पिताजी ने ख़र्च किया।
जब बरात दरवाज़े पर आई, सब स्त्रियाँ बरात देखने के लिए दौड़ीं। मैं भी दौड़ी गई। मुझे यह ज़रा भी ख़याल न था कि लोग हँसेगे। मुझे तो विवाह खेल मालूम पड़ता था। मुझे जो रस्म करनी पड़ती थी, वह बहुत बुरी लगती थी। मज़बूरन सब करती थी। बरात देखकर मैं बहुत ख़ुश हुई। बरात में मैंने क्या देखा? सिर्फ फुलवारी, आतिशबाज़ी और रोशनी देखती रही। पतिदेव को न देखा।
ब्याह के वक़्त मुझे बैठना बड़ा नागवार लगता था। नींद के मारे मेरी आँखें झुकी पड़ती थीं। हाँ, गहने देखकर बहुत ख़ुशी हुई थी। क्योंकि मेरे ससुरजी बहुत से कीमती गहने लाए थे और सब लोग तारीफ़ करते थे।
ब्याह हो गया, मैंने ब्याह का अर्थ न समझा, चुपचाप पुतली की तरह बैठी रही। जो-जो रस्म पंडितजी बताते, करती जाती। वर-कन्या की प्रतिज्ञा का एक शब्द भी मैंने नहीं सुना। ब्याह के दूसरे दिन विदाई की साइत थी। जब मैंने सुना कि एक अपरिचित जगह जाना पड़ेगा, मुझे बहुत बुरा मालूम पड़ा। मैंने ख़ूब रोना शुरू किया। अब मुझे वे गहने अच्छे न मालूम पड़ते थे। न तो मेरी माता ने और न भाभी ही ने बताया कि ससुराल में कैसे रहना चाहिए। सिर्फ़ माँ ने एक दफ़े रोते-रोते कहा था—'बेटी, अच्छी तरह रहना, रोओ मत।'
मैं और भी फूट-फूटकर रोने लगी। उस वक़्त ऐसा मालूम होता था कि अथाह सागर में बही जा रही हूँ, जिसका कोई किनारा नहीं है।
(4)
जब ससुराल आई, तो सभी अपरचित। मुझे बड़ा खराब लगा। मेरे ससुराल के लोग बड़े खुश हुए। मैं एक मात्र उनकी पुत्र वधू थी। बड़ा आदर सत्कार हुआ; परंतु मुझे यह आदर-सत्कार बिल्कुल अच्छा न लगता था। मैके से बढ़कर यहाँ दुलार प्यार होता; लेकिन इस प्यार में मुझे नीरसता मालूम पड़ती। दो ननदें थीं, वे भी दिन-रात मेरी ख़ातिर में लगी रहती; परंतु मुझे यह सब अच्छा न लगता। मैं अपने मैके की मज़दूरिन से दिन भर यही बातें करती कि कब यहाँ से जाऊँगी। पतिदेव का स्वभाव बड़ा मीठा था। वे मुझसे उम्र में 7 साल बड़े थे। मैं 15 साल की थी। वे 21 साल के। मैं उनसे बहुत डरती थी। उनकी सूरत को देखकर मुझे डर मालूम होता। मैं बहुत घबराती। वे बड़े प्रेम से मुझे समझाते; पर मैं कभी उनकी तरफ ख़ुशी से देखती भी न थी। उनसे दूर ही दूर रहती। विवाह के 17 वें दिन अपने मैके चली आई। मुझे ज़रा भी किसी से मुहब्बत न हुई।
(5)
परंतु पतिदेव बड़े सहनशील थे। वे समझते थे कि अभी मेरा लड़कपन है। गौने के बाद उन्होंने अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ाना शुरू किया। बात-बात में शादी का महत्व बताया। पति के प्रति और ससुराल वालों के प्रति मेरा कर्त्तव्य बताया। हर बात में यही कहते, कि तुम्हारा घर यही है। तुम अब अपने घर में हो। कुमारी जीवन में पिता का घर अपना होता है। और जहाँ शादी हुई कि वह घर दूसरा हो जाता है। पति ही का घर स्त्री का मुख्य घर है। धीरे-धीरे मैंने उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू किया। अपना कर्त्तव्य निश्चित किया, धीरे-धीरे घरवालों में प्रेम भी उत्पन्न हुआ। पति-प्रेम इतना बढ़ा कि अब एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते।
अगर हम लोगों को बचपन ही से यह सिखाया जाता कि पति का गृह उसका गृह है, ब्याह का महत्व समझाया जाता, तो मैं इतने दिन तक क्यों इस महल का निरादर करती। बचपन का ब्याह इसीलिए ख़राब कहा गया है। अब मैं पछताती हूँ। शादी के बाद उतने दिन मैं अपने कर्तव्य से अलग रही। छोटी उम्र में ब्याह का महत्व हम लोगों को नहीं मालूम होता। बस, हम लोग सिर्फ़ खेल समझती हैं।
- पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 75)
- संपादक : प्रेमचंद
- रचनाकार : यशोदा देवी
- प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
- संस्करण : 1932
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