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विद्यानिवास मिश्र

गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

विद्यानिवास मिश्र की संपूर्ण रचनाएँ

निबंध 1

 

उद्धरण 4

एक प्रकार से नाम और रूप ही सृष्टि का पर्याय है, नाम सूत्र है, रूप विस्तार है। नाम प्रतीतियों की अविच्छिन्न श्रृंखला है, रूप प्रतीति का एक गृहीत क्षण। नाम सूक्ष्म है, रूप स्थूल।

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इस ज़िंदगी को एकदम उतार कर फेंक दें, इसका साहस नहीं, और नई ज़िंदगी बुन सकें, इसके लिए संकल्प है यत्न। केवल शब्द हैं, रो लें या हँस लें या कह कर चुप हो जाएँ।

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परंपरा अपने को ही काटकर, तोड़ कर आगे बढ़ती है, इसलिए कि वह निरंतर मनुष्यों को अनुशासित रखते हुए भी स्वाधीनता के नए-नए आयामों में प्रतिष्ठित करती चलती है। परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है।

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परंपरा को स्वीकार करने का अर्थ बंधन नहीं, अनुशासन का स्वेच्छा से वरण है।

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