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नख-बिंदु

nakh bindu

शांति प्रिय द्विवेदी

और अधिकशांति प्रिय द्विवेदी

    आज से कुछ ही वर्ष पहले का संसार बहुत बदल गया है। एक ज़माना था जब दुनिया के किसी कोने में कोई परिवर्तन होने में वर्षों बीत जाते थे फिर भी कोई अभूतपूर्व परिवर्तन नहीं होता था। मोटे तौर से यही देखने में आता रहा कि साम्राज्यों के लिए लड़ाइयाँ होती थीं और एक राजा या बादशाह के बाद कोई दूसरा गद्दी पर बैठ जाता था। इस प्रकार के राज्य- परिवर्तन के कारण इतिहास में युगों का लेखा-जोखा नृपतियों के शासनकाल से किया जाता था। शासकों का जीवन-मरण ही इतिहासों का युग-युगांतर था। इतिहास का यही ढंग 19वीं शताब्दी तक चला आया है। इसके बाद सचमुच इतिहास में एक परिवर्तन होता है—हम इतिहास का युग-विभाजन कोरमकोर राजाओं के शासन काल से नहीं, बल्कि शासक जिनके राजा हैं उनकी उन्नति और अवनति के हिसाब-किताब से करने लगे है और देश के शुभचिंतकों के नाम के साथ युग को ज्ञापित करके (यथा, ‘गांधी-युग’) इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि इतिहास को देखने का हमारा दृष्टिकोण कितना बदल गया है।

    हाँ तो, एक ज़माना था जब दुनिया के किसी कोने में युग-परिवर्तन होने में सदियाँ बीत जाती थीं। इसका अभिप्राय यह कि परिवर्तन तो होते ही थे किंतु वह परिवर्तन, जिससे समाज और जीवन का ढंग बदलता है, मनुष्य विकास की ओर चलता है, दुर्लभ था। कारण, जिनको लेकर समाज और जीवन है उनकी आवाज़ दबी हुई थी, राजसत्ताओं के कोलाहल में उनकी वह दबी आवाज़ क्षीणतम होकर सुनाई पड़ती थी—क्रंदन के स्वर में। समाज रो रहा था और राजनीति अपने हलवे माँड़े में लगी हुई थी। फलतः हम इतिहास में राज्य-विस्तार तो देखते हैं किंतु समाज-संस्कार शून्य। किंतु वह दबी हुई आवाज़, वह क्रंदन का क्षीण स्वर सर्वथा शून्य में ही लोन नहीं हो गया, वह अपने युग के ज्ञानियों के हृदय पर अति होता गया। उन ज्ञानियों ने, उन सहृदय सामाजिक श्रोताओं ने जनसाधारण के स्वर को साहित्य की रचना में मुखरित किया, विवेक-पूर्वक।

    19वीं शताब्दी तक इसी प्रकार साहित्य-रचना होती रही। इस साहित्य-रचना में समाज के दूषित अंश भी हैं। विवेकवान् रचयिता द्वारा जहाँ सामाजिक उत्थान के स्वप्न मिले, वहाँ रसिकों द्वारा पतन के भाव भी। एक ओर समाज उच्चवर्गीय (राजविलासी) लोगों के दूषणों को ही जीवन का आनंद समझकर उसी में अपनी आत्मा का हनन कर अपने को भुलाता रहा था, दूसरी ओर अपनी कमज़ोरियों में भी सत्साहित्य के प्रति वह श्रद्धालु था, क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास जैसे साहित्य-स्रष्टा उसके उद्बोधक थे।

    किंतु यह प्रगति नहीं थी, यह तो समाज का ढहना-गिरना और उसकी रोकथाम थी। प्रगति का प्रारंभ तो होता है 19वीं शताब्दी के अंत से ही। सत्साहित्य के प्रति श्रद्धालु होकर भी तब तक समाज अकर्मण्य था। उसकी श्रद्धा रूढ़ि हो गई थी, अतः साहित्य द्वारा प्राप्त आदर्श समाज के जीवन में गतिमान् होकर कुण्ठित था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इसी रूढ़ि एवं अकर्मयता के विरुद्ध समाज-सुधारकों द्वारा असंतोष जगा। यहीं से प्रगति का श्रीगणेश है। समाज-सुधार के आंदोलन ज़ोर पकड़ते गए और आज हम देखते हैं कि तब से अब तक कितना परिवर्तन हो गया है। यदि मध्ययुग का कोई मनुष्य आज के समाज को देख पाए तो वह विस्मय से अवाक् हो जाएगा, इसीलिए आज भी जो रूढ़ि ग्रस्त हैं वे प्रगति के प्रति प्रतिक्रियाशील है।

    यह नहीं कि 19वीं शताब्दी के अंत से नवीन राजतंत्र विगत राजतंत्र की अपेक्षा हमारे सामाजिक अभ्युदय के प्रति अधिक आत्मीय था। सच तो यह है कि हमें अपने सामाजिक उत्थान के लिए अपने ही पैरों पर खड़ा होना पड़ा है। यदि मध्ययुग का राजतंत्र हमारी सामाजिक उन्नति की ओर से निश्चेष्ट था तो नवीन राजतंत्र भी निरपेक्ष रहा। कहा जाता है कि नवीन राजतंत्र ने हमें सामाजिक या धार्मिक उन्नति के लिए पूर्ण स्वतंत्रता दी, इसमें हस्तक्षेप करना उसने उचित नहीं समझा। उसकी यह तटस्थ नीति एक प्रकार से अपने लिए एक सुरक्षित निश्चिंतता थी। मध्ययुग में राजतंत्रों को जनता की परवाह नहीं थी, वह उनकी लाठी की भैंस थी, उनका आमना-सामना तो समान शक्तियों से ही होता था, फलतः राजशक्तियाँ आपस में ही लड़ती-भिड़ती थीं। किंतु नवीन राजतंत्र ने मध्ययुग की राजशक्तियों को पिंजड़े का शेर बना दिया, उनकी ओर से उसे भय नहीं रह गया। रह गई जनता। नवीन राजतंत्र को अपने देश की नागरिकता द्वारा जनता की शक्ति का परिचय है, विशेषतः इसलिए भी कि वहाँ जनता द्वारा ही कितनी राज क्रांतियाँ हो चुकी हैं। फलत: मध्ययुग के विषम शासन-भार से मृतप्राय जनता को कुछ जीवन देकर अपना आभारी बनाना नवीन राजतंत्र को ठीक जान पड़ा, अतएव वह सामाजिक या धार्मिक स्वतंत्रता का पृष्ठपोषक बन गया। किंतु इस सौजन्य (!) में उसका एक अपना भी उपकार था यह कि जनता सामाजिक या धार्मिक सुधारों में ही अपने को भूली रहे, राजनीति की ओर उसकी दृष्टि पड़ने पावे। परंतु जागृति एकांगिनी नहीं होती, वह धीरे-धीरे सर्वांगीण हो जाती है। आज हम देखते हैं कि केवल सामाजिक बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक जागृति भी हमारे देश में व्याप्त हो गई है। ऐसे समय में जो साम्प्रदायिक विद्वेष चल रहे हैं उनके द्वारा शासकों की उस शुभेच्छा का भी पर्दाफ़ाश हो गया है जो सामाजिक या धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में प्रदर्शित की गई थी।

    जगे हुए आदमी को अंधड़ और तूफ़ान भी देखने पड़ते हैं, उसे इन सबसे अपनी दृष्टि को स्वच्छ रखकर प्रगति के पथ पर गतिशील होना पड़ता है। अंधाधुंध चलते रहना ही प्रगति नहीं है। आज हमारी जागृति देश के ग्रीष्मकाल (संतप्त काल) की जागृति है, यह एक प्रज्वलित सौभाग्य है, ठंडे मिज़ाज से ही हम इसका सदुपयोग कर सकते है। आँधी और तूफ़ान में स्थितप्रज्ञ होकर ही हम ठीक राह पर चल सकते हैं, अन्यथा गुमराह हो जाने की अधिक आशंका है। मध्ययुग के अनेक दूषणों से हम आज भी युद्ध कर रहे हैं। कहीं प्रगति की झोंक में हम वर्तमान युग से भी इतने दूषण ले लें कि प्रगति के बजाय हमें अपनी गंदगी से ही पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाए। समाज, साहित्य और राजनीति इन सब को बड़े सजग हृदय से नव-निर्माण देना है, तनिक सी भूल हमें सदियों पोछे ढकेल सकती है। हमें याद रखना चाहिए कि आज विश्व के रंगमंच पर एक-एक दिन में एक-एक शताब्दी बन रही है, उसमें हमें भी अपना भाग्य आजमाना है।

    आज की प्रगति में महिलाएँ भी आगे बढ़ी हैं, कर्त्तव्य-क्षेत्र में वे बहुत कुछ पुरुषों के समीप पहुँच गई है। सदियों के बाद उन्होंने अपनी शक्ति को पहचाना है। वे चाहें तो अपनी आत्मचेतना से प्रगति को संरक्षिका बन सकती हैं। वे अपने व्यक्तित्व की शीतलता से उत्तप्त मस्तिष्कों को प्रकृतिस्थ हृदय से सोचने की प्रेरणा दे सकती है। युगों तक तो वे पर्दे में रही हैं, अब पर्दे से बाहर जाने पर भी उनमें वह लज्जा और गतिधीरता तो बनी ही रहनी चाहिए जो बहुत समझ-बूझकर पद-निक्षेप करती है। आज की प्रगति में उन्हें अपनी उसी गतिधीरता को छंद की तरह नियोजित करना है, ताकि प्रगति स्वच्छंद होकर दुर्गति में पड़ जाए।

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