उपन्यास तीन शब्दों से मिलकर बना है उप+नि+आस। हिंदी का न्यास संस्कृत के न्यासः से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति नि+अस् में घञ् प्रत्यय लगने से हुई है। न्यास का अर्थ है रखना, आरोपण करना आदि। इसमें 'उप' उपसर्ग लगने से बनता है उपन्यास। जिसका अर्थ है ‘निकट रखना।‘ अमरकोश में तमाम अर्थों का सार बताते हुए उपन्यास का अर्थ ‘बातचीत करना’ बताया गया है। अमरकोश में उपन्यास के लिए शब्द मिलता है ‘उपन्यासस्तु’ व ‘राङ्मुखम्’। हम लोग इन दिनों के भाषा लेखक जहाँ बहुत से नए-नए शब्दों की गढ़ंत और उनका प्रयोग अपने मन के माफ़िक करते जाते हैं, उसी तरह उपन्यास भी अँग्रेज़ी ‘नॉवेल’ के अर्थ में लिया जाता है। नॉवेल के ढंग का गद्य काव्य लिखने का तरीका हमारी प्राचीन संस्कृत लिखावट में न था। कुछ-कुछ इस क्रम का लेख चंपू है पर चंपू निरा गद्य काव्य नहीं है, किंतु 'गद्य-पद्यमयंचंपू' ऐसा साहित्यकार दर्पणकार ने चंपू का लक्षण लिखा है। परंतु चंपू सिवा दो के और किसी काम के नहीं हैं, एक श्रीविक्रम भट्ट का ‘नल चंपू' दूसरा कवि कर्णपूर का 'वृंद ब्रज चंपू।' यह दूसरा चंपू भी हमारी समझ से इतना प्रशंसनीय नहीं है। आदि के दो-तीन स्तवों में तो अलबत्ता कुछ चमत्कार दरसाया है, बाक़ी तो वही प्राचीन संस्कृत लेखकों के डोल पर दशमस्कंध को कन्या भाग के विस्तार से पूरा कर दिया गया है और कई एक चंपू जैसे 'नृसिंह चंपू' इत्यादि कोई किसी प्रयोजन के नहीं हैं, न काव्य रसिकों के विशेष मनभावने हो सकते हैं। चंपू ही के ढंग का 'प्रेम पतन' नामक गौड़ीय गोसाइयों के संप्रदाय का एक ग्रंथ है पर बंदरों के हाथ में भारी समान, इसे गोसाईं लोग इतना छिपाते हैं कि किसी को इसका दर्शन तक नहीं कराते। उपन्यास के ढंग पर दंडी कवि का 'दशकुमार चरित' है इसमें प्रसाद गुण और पद लालित्य तो अलबत्ता है पर उन दस राजकुमारों का चरित्र इतना असत् है कि उससे किसी प्रकार की शिक्षा नहीं निकलती। एक सुबंधु कवि का क्षुद्र गद्य काव्य वासवदत्ता आख्यायिका ‘टेल’ है पर यह प्रसाद गुण रहित क्लिष्ट और श्लेषपूर्ण है, कि सुकुमार मति वाले छात्रों को इसमें कुछ आनंद नहीं मिल सकता न इसका बंधान किसी काम का है। अतएव पढ़ने वालों को इसमें किसी तरह का मनोरंजन नहीं है; ठीक-ठीक उपन्यास के ढंग का गद्य काव्य बाणभट्ट का 'हर्षचरित' और 'कादंबरी' है, सो हर्षचरित काश्मीरधिपति श्री हर्ष के जीवन चरित के क्रम पर लिखा गया है। बंधान प्लॉट इसका किसी काम का नहीं है पर और बातें जैसे प्रसाद, माधुर्य, पद लालित्य आदि गुणों में क्या कहना, बाणभट्ट की रचना का जवाब नहीं है। इसमें जो वर्णनात्मकता है वह अद्भुत है। इसके वर्णन का उच्छिष्ट, जूठा बटोर और-और लोग कवि बनते हैं। अँग्रेज़ी नॉवेल के ठीक-ठीक क्रम का 'कादंबरी' आख्यान है जिसमें सांगोपांग गुण उपन्यास के मिलते हैं; क्या भया जो संस्कृत में उपन्यास नहीं हैं एक कादंबरी अकेली उस न्यूनता को भरपूर पूर्ण करती है। बंग भाषा में 'दुर्गेश नंदिनी’ प्रभृति शतसः उपन्यास एक से एक चढ़-बढ़ कर हैं। बंगदेसी जैसे और बातों में उत्साह और तरक्की के ओर-छोर तक पहुँचते हैं वैसे ही नाटक और उपन्यास लिखने में भी किसी से कम नहीं हैं। उर्दू में 'अलिफ़ लैला' उपन्यास की गिनती में समावेसित हो सकता है। अलिफ़ लैला के किस्सों की बंदिश ही सराहने योग्य है। अब मुख्य उपन्यास संबंधी लेख अँग्रेज़ी ही भाषा का एक अंग है। हम लोग जैसा और बातों में अंग्रेज़ों की नकल करते हैं वैसा ही उपन्यास लिखना भी उन्हीं के दृष्टांत पर सीख रहे हैं। हाल ही में लाला श्रीनिवास दास जी का ‘परीक्षा गुरु' नामक ग्रंथ जिसे हम उपन्यास ही में गिनते हैं और जिसका ‘समालोचना’ में हमारे प्रिय शुभचिंतक सा.सु.नि. (सार सुधा निधि) के सुयोग्य संपादक महाशय हम से कुछ अनमने से हो गए हैं। अलबत्ता कुछ-कुछ अँग्रेज़ी नॉवेल के ढंग पर है परंतु नॉवेल प्रौढ़ बुद्धिवालों के लिए लिखे जाते हैं न कि निरे स्कूलों में क ख ग सीखने वालों के लिए। ग्रंथकर्ता महाशय को अनेक प्रकार के उपदेश वाक्य और विज्ञान चातुरी ही अगर प्रगट करना था, तो 'गुलदस्ते यखलाक' या विद्यांकुर के ढंग की कोई पुस्तक बनाते। यदि इस उपन्यास के सब ठौर-ठौर के अनुवाद निकाल लिए जाएँ तो ओरिजिनल पोरशन (असली हिस्सा) उस पुस्तक का कुछ रह ही न जाएगा। इसी से सुकुमार मति वाले स्कूल के बालकों को नॉवेल रीडिंग (उपन्यास का पढ़ना) गुणकारी नहीं समझा जाता। उपन्यास तो प्रौढ़ बुद्धि युवा जनों के मन रमाने वाली गुटिका है जिसका मुख्य अंग शृंगार रस है। इसी कारण यह इम्मोरल असत् काव्य समझा जाता है, बिना जिसके यह ऐसा भासित होता है जैसा सर्वांग सुंदरी रमणी की किसी ने नाक काट लिया हो। बंदिश ‘परीक्षा गुरु’ की निस्संदेह बहुत उत्तमोत्तम और यथार्थ है पर इसकी भाषा की रुखाई और निरा उपदेश वाक्य पढ़ते-पढ़ते जी ऊब जाता है। इसी से हमने लिखा कि नॉवेल इम्मोरल असत्-उपदेशक होकर भी बुरे और भले पात्रों के चरित्र का बराबर में मुकाबला करते अंत में भले पात्र को उपन्यास के क़िस्से का मुख्य नायक बनाए; एक ऐसी भारी शिक्षा उसमें से निकल आती है कि यह उसके समस्त असत् लेख को ढाँप लेती है। इस तरह लेख की चातुरी केवल रेनॉल्ड साहब की मिस्ट्रीज़ में है जिसे हम कादंबरी से भी कई बातों में उत्तम समझते हैं। सच तो ये है कि हिंदी अभी इस लायक हुई ही नहीं कि इसमें नॉवेल लिखे जाएँ, न निख़ालिस हिंदी रसिकों की समझ अभी इतनी बढ़ी है कि नॉवेल की काट-छाँट समझ सकें।
- पुस्तक : हिंदी प्रदीप (पृष्ठ 16)
- रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
- संस्करण : 1983
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