संस्कृत के प्रमुख नाटककार
sanskrit ke pramukh natakkar
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
Surykant Tripathi Nirala
संस्कृत के प्रमुख नाटककार
sanskrit ke pramukh natakkar
Surykant Tripathi Nirala
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी निराला
प्रस्तुत विषय पर विचार करने से पहले इस बात का संकेत कर देना उचित होगा कि नाटक किसे कहते हैं और संस्कृत में नाटक का आविर्भाव कब हुआ? निश्चय ही नाटक शब्द का आधार 'नट' शब्द है और 'नट' शब्द की व्युत्पत्ति 'नृत्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'नाचना' है। 'नृन्' धात्वतर्गत 'ऋ' के कारण 'त्' के स्थान में मूर्धन्य 'ट्' हो गया है, जैसा कि संस्कृत के भट, कट, पट, जठर तथा आढ्य आदि शब्दों में देखा जाता है। ...और ज्यो ही हम 'नट' शब्द की व्युत्पत्ति 'नृत्' धातु से मान लेते हैं त्यो ही नाटक का उद्भव हमारे सामने साकार हो जाता है। भूखड की किसी भी आदिम जाति को ले लीजिए, सभी के जीवन में नृत्य एवं गीति को मात्रा पर्याप्त दीख पड़ेगी क्योंकि प्रसाद एवं अवसाद—संयोग एवं वियोग सभी के जीवन में आते रहते हैं और इनका प्ररोचन और प्रतीकार नृत्य एवं गीति के द्वारा दिया जाता है।
हम देखते हैं कि सूर्य भगवान प्रातः काल के समय आकाश में उभरते और धरती-अंबर को तपा-खिलाकर शाम के समय पश्चिम में अपने अस्त (घर) की ओर सरक जाते हैं। फ़िर चाँद और तारे खिलते हैं। ये भी कुछ वाम आँख-मिचौली खेलकर प्रातः काल के क्षण में तिरोहित हो जाते हैं। नक्षत्रों के उतार-चढ़ाव पर ऋतुएँ निर्भर हैं और ऋतुओं के मनकों से ही मात्सर की माला सजी है। आदि मानव को नक्षत्रों की इस नियनगति के पीछे किसी छिपे देवता का हाथ दीख पड़ता था—इसी रहस्यमय देव के विविध रूपों की अर्चना में उसके धर्म एवं कर्म-कांड का उद्भव हुआ है। हम लोग हर घड़ी रोते बच्चों को उनके संमुख भाँति-भाँति का नाच करके रिझाया करते हैं। नृत्य में एक प्रकार का अजीब कौतुक है जिसपर छोटे-बड़े सभी समान रूप से रीझ जाते हैं। जब नृत्य को देख आदि मानव का सरदार वशवद बन सकता था तब उसे देख उसका देवता क्यों न रीझ जाता होगा? कर्मकांड में देवतओं के सम्मुख नाचते-गाते की कथा का मूल इसी बात में संनिहित है।
संसार की अन्य आदिम जातियों की न्याई आदिम आर्य भी नृत्य-गीति में पनपते आए थे और वे भी अपने देवी-देवताओं को इन्हीं के द्वारा रिझाया करते थे। वैदिक सूत्रों के मध्य आने वाले अवकाशों में नृत्य-गीति द्वारा मनोरंजन की प्रथा चलती रही होगा ऐसी कल्पना युक्तिसंगत प्रतीत होती है। आर्यों का परिष्कृत कर्मकांड वैदिक कर्मकांड के रूप में अमित काल के लिए अडिग बन गया, वह जैसा आदि युग में था वैसा ही शाखा-भेद के अनुसार आज भी हमारे देश में प्रवर्तमान है। उसमें किंचित-सी हेराफ़ेरी से भी अनर्थ हो जाने की आशंका बनी रहती है। किंतु परिष्कृत कर्मकांड के साथ-साथ आर्यों की दैनिक चर्चा भी चलती रही होगी और उस दैनिक जीवन में सताप एवं अवसाद के साथ प्रसाद और प्रमोद का होना भी अनिवार्य रहा होगा। और इनके प्ररोचन एवं प्रतीकार के लिए आर्य लोग भी नृत्य और गीति का सहारा लेते रहे होंगे। बस सामान्य जनता के इस सामान्य नृत्य-गान में ही हमारे नाटक का आदि मूल छिपा हुआ है।
नाट्य-शास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि ने अपने निम्नलिखित श्लोक में इसी तथ्य की ओर संकेत किया है :
न वेदव्यवहारोऽर्य संश्राव्य शूद्रजातिषु।
तस्मात् सृजापर वेदं पंचम सार्ववणिकम्॥
अर्थात् वैदिक क्रिया-कलाप को जानने-सुनने का अधिकार शूद्र को नहीं है। इसलिए ऐसा पाँचवाँ वेद बनाइए जिसे देखने-सुनने का सभी वर्गों को समान अधिकार हो। उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि वैदिक कर्मकांड के मध्य आने वाले अवकाश में मनोरंजनार्थ किए जाने वाले नृत्य-गान में अभिनय के बीज सनिहित होने पर भी साक्षात् उससे संस्कृत-नाटक का जन्म नहीं हुआ, अपितु सामान्य जनता में प्रवर्तमान नृत्य-गान से ही सामान्य जनता के लिए रचे गए नाटक का अविर्भाव हुआ है।
एक बात और—यदि वैदिक कर्मकांड का उद्देश्य एक प्रकार के अदृष्ट का सृजन करना है तो नाटक का प्रयोजन तो इससे सुतरा भिन्न है और वह है सामान्य लोक का मनोरंजन। भरत कहते हैं :
उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसश्रयम्।
हितोपदेशमननं धृतिक्रीडासुखादिकृत्॥
दुःखार्तानां समर्थानां शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विधान्तिजननं काले नाट्यमेतव् भविष्यति।।
मेरा बनाया नाट्य-शास्त्र उत्तम, मध्यम एवं अधम लोगों के क्रिया-चक्र पर निर्भर है। उसका प्रयोजन क्षेमकारी आदेश देना, मनोविनोद एवं प्रसाद उपजाना और दुःखियों का, समयों का ; शोकातों एवं तपस्वियों का समान रूप से दिल बहलाना है। उक्त श्लोक से निष्कर्ष निकलता है कि इस प्रकार के उद्देश्य वाले नाटक का जन्म वैदिक क्रियाकलाप से संबद्ध नृत्य-गान से न होकर आर्यों की आम जनता में प्रवर्तमान नृत्य-गान से हुआ है—फिर भी नाट्य को गौरवान्वित करने की दृष्टि से भरत ने उसके घटकों को चारों वेदों में संग्रह करने की बात कही है :
जग्राह पाठ्यमृग्वेदांत् सामभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्यणादपि॥
अर्थात् भरत ने नाट्य का पाठ्यांश, (अर्थात् भाषा) ऋग्वेद से ली, गीत सामवेद से लिए, अभिनय (क्रिया-कलाप) यजुर्वेद से लिया और रस अथर्ववेद (के भैषज्य) से लिया और इस प्रकार इस पाँचवें वेद की रचना का। किंतु यह बात युक्ति-विपरीत है—क्योंकि नाटक के चारों ही घटक मूल रूप से जनता में पहले से ही वर्तमान थे और वहीं से इसका संनिवेश वेदों में भी हुआ था—तथापि नाट्य को आदर देने की दृष्टि से भरत ने उक्त प्रकार से नाट्य-संग्रह की बात कही है।
भरत के संकेत से स्पष्ट है कि संस्कृत में रूढ़ नाटक का आविर्भाव उस युग में हुआ था जबकि आर्यों की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह फल-फूल कर झड़ने की ओर उन्मुख हो रही थी और उसके अनुमार शूद्र को वेद-श्रवण का अधिकार नहीं रह गया था। हमारी दृष्टि में भारतीय सभ्यता के विकास में ऐसा युग उस समय आया था जबकि रूढ़ कठोरताओं को दूर करने के निमित्त इस देश में बुद्ध आदि सुधारकों का अवतरण हुआ था और साथ ही हमारी आंतरिक कमज़ोरियों से प्रेरित होकर फ़्रांस तथा यूनान के आक्रमणकारी इस देश में घुस आए थे। और यद्यपि नाटक की आदिम रूपरेखा आर्ष-काव्यों में आने वाली महापुरुषों की जीवनियों के अभिनय के रूप में आम जनता में पहले ही से चली आ रही थी तथापि उसका उपलन्यमान विकास देश में यूनानी सामंतों के आने पर ही हुआ था, जोकि ग्रीक-विद्रया राजाओं के दरबारों में खेले जानेवाले नाटकों से चुनकर लिए हुए घटकों को अपने में सम्मिलित करके ही परिपक्वता को प्राप्त हुआ। भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र में हमें नाटक के उसी परिपुष्ट रूप का वर्णन मिलता है और भाण आदि नाटककारों की रचनाओं में हमें नाटक का वही परिपुष्ट रूप जगमगाता दीख पड़ता है।
संस्कृत नाटक का जन्म आम जनता के सामान्य जीवन में हुआ है न कि वैदिक किया-चक्र में, यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है जबकि हम उसके पाठ्यांश अर्थात् भाषा-तत्त्व पर ध्यान देते हैं। स्मरण रहे कि नाटक का पाठ्यांश केवल संस्कृत ही नहीं, अपितु प्राकृत भी है और वह भी अपने विविध रूपों में, जोकि नाटक में भाग लेने वाले पात्रों के सामाजिक स्तर के अनुसार उनमें सदा के लिए बाँट दी गई हैं। निश्चय ही मागधी, शूरसेनी एवं महाराष्ट्री आदि प्राकृतों का संबंध मूल रूप से उस प्रदेश विशेष के साथ रहा होगा, जिस-जिसमें कि वे बोली जाती थीं—किंतु नाटकों में पहुँचकर उनका यह संबंध देश-विशेष के साथ जुड़ा न रहकर पात्र-विशेष के साथ बँध गया है, यहाँ तक कि गीत के लिए तो हर देश के लिए महाराष्ट्री ही नियत कर दी गई है। प्राकृतों के प्रयोग की यह परिस्थिति ऐसे युग में उभरी होगी जबकि प्राकृत भी निरी बोलियाँ न रहकर साहित्यिक भाषाएँ बन चुकी थी और उनके जीवन-तन्तु देश-विशेष से छूटकर श्रेणी-विशेष एवं सरणि-विशेष के साथ जुड़ चुके होंगे। प्राकृतों की यह परिस्थिति हमें ईसा की बारहवीं शती में उभरती प्रतीत होती है और तभी से हमें संस्कृत में नाटक का उत्थान भी होता दीख पड़ता है।
संस्कृत में दुखांत नाटकों का अभाव है और यह तथ्य हमारे देश की उस दार्शनिक दृष्टि की ओर संकेत करता है जिसके अनुसार कि हमारी दृष्टि हमेशा परलोक की ओर लगी रहती है और जिसके अनुसार हमारे जीवन का चरम अवसान प्रसाद में होता है, न कि अवसाद में। किंतु इस बात का यह आशय कदापि नहीं कि संस्कृत के नाटकों में अवसाद का सुतरा अभाव है। संस्कृत के नाटकों में जगह-जगह ऐसी घटनाएँ आ खड़ी होती हैं जो रोमांचकारी हैं और जिनमें विषाद एवं अवसाद अपने सघन स्वर में साकार हुए हैं। किंतु इन सभी संतापों एवं उत्पातों का चरम परिणाम प्रसाद में किया गया है, क्योंकि जीवन ‘जीने’ का नाम है और हमारे अशेष क्रियाकलापों का एकमात्र उद्देश्य इस 'जीने' में से मरण के अंधकार को सदा के लिए धो डालना है।
हमारे लक्षण-ग्रंथों में नाटक के दो विमाग किए गए हैं रूपक और उप-रूपक। रूपक को नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथि, अंक और ईहामृग—इन दस उपविभागों में और उपरूपक को नाटिका और सट्टक आदि अठारह अविभागों में बाँटा गया है। इन उपविभागों का प्रमुख आधार पात्रों की विधा एवं अंक आदि की संख्या है, जिसमें उलझना इस समय हमारे लिए अनुचित है क्योंकि नाटक की आत्मा अर्थात् 'संघर्ष' का तो सभी नाटकों में विद्यमान होना वांछनीय है।
आइए, अब संस्कृत के प्रमुख नाटटकारों का दिग्दर्शन भी कर लीजिए :
संस्कृत में सबसे पहले नाटक अश्वघोष के हैं, जिनके खंडित हस्तलेख मध्य एशिया में प्राप्त हुए हैं और जिनके पुनः उद्धार एवं संपादन में प्रोफ़ेसर ल्यूडर्स ने सचमुच नाटकीय करामात दिखाई है—किंतु ये नाटक त्रुटित हैं इसलिए इनपर विचार करना अनुपयुक्त है। बाण और कालिदास ने कवि के रूप में भास का आदर के साथ नाम लिया है और संस्कृत के अन्य लेखकों ने भी नाटककार के रूप में उनकी प्रशंसा की है। 1911 ईसवीं में गणपति शास्त्री ने संस्कृत के तेरह नाटकों का उद्धार किया था और उन सभी का लेखक उन्होंने भास को ठहराया था। नाटकीय कला की दृष्टि से तेरहों नाटक कालिदास से पहले के स्तर में आते हैं। इन सभी में सूत्रधार के प्रवेश के बाद नादी-वाचन है, प्रस्तावना के स्थान में स्थापना का प्रयोग है और व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगों के छीटें जगह-जगह छपे पड़े हैं। भास के एक नाटक का नाम स्वप्नवासवदत्त पहले से सुनिश्चित है। इन तेरह नाटकों में एक का नाम स्वप्नवासवदत्त है और क्योंकि स्वप्नवासवदत्त का कर्ता भास है और यह नाटक इन तेरह नाटकों में उन्हीं के साथ मिला है, इस लिए गणपति शास्त्री के मत में ये सभी नाटक भास की रचना हैं। उनके इस मतव्य से बहुत से विद्वान् सहमत हैं।
किंतु कुछ विद्वान इस निष्कर्ष को नहीं मानते। उनका कहना है कि कला की निर्दिष्ट विशेषता व्यक्ति विशेष की विशेषता न होकर उस देश विशेष की विशेषता है जहाँ कि ये नाटक उपलब्ध हुए हैं। क्योंकि ये विशेषताएँ उस प्रदेश के इतर नाटकों में भी पाई जाती हैं—जैसे कि भत्तविलाम प्रहसन में, जोकि भास की रचना नहीं है। अनार्ष प्रयोगों का संबंध भी परिस्थिति-विशेष, काल-विशेष एवं प्रदेश-विशेष के साथ है न कि लेखक विशेष के साथ, क्योंकि बौद्धकाल के युग-विशेष में खंडित संस्कृत का प्रयोग आम प्रचलित था। साथ ही, ऐसे उद्धरण, जोकि संस्कृत कवियों ने स्वप्नवासवदत्त से लिखे बनाए जाते हैं। वर्तमान स्वप्नवासवदत्त में नहीं मिलते और यह मुक्ति प्रबल है, जिसकी उपेक्षा करना अनुचित है। इन विद्वानों के मन में ये तेरहों नाटक भास की मौलिक रचनाओं के रूपांतरण हैं जोकि संभवतः पल्लवराज नरसिंह वर्मा के द्वितीय के राजकाल में (860-300 ई. पू.) रंगमंच संबंधी धारणाओं एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर किसी नाटककार ने कर दिए होंगे। ये नाटक स्वयं भास की रचना हो या किसी अन्य कवि की, उनकी मौलिकता और मर उत्कृष्ट कोटि की हैं और हमें ये नाटक संस्कृत नाट्य-कला के कांडहार में रूप में सजे दीख पड़ते हैं। इन नाटकों में दो का आधार रामायण, छह का महाभारत, एक का कृष्ण-जीवन और चार का आधार काल्पनिक कथाएँ हैं।
रामायण प्रसूत प्रतिमा नाटक में सात अंक हैं। इसमें राजा दशरथ की मृत्यु से आरंभ करके राम के राज्याभिषेक तक की कथा का मौलिक अभिनय है। भरत ननिहाल से अयोध्या लौटते समय मृत सम्राटों की पंक्ति में अपने पिता दशरथ की प्रतिमा को देख चौंक जाते हैं—इस प्रतिमा के आधार पर ही नाटक का 'प्रतिमा' नाम पड़ा है। सीताहरण का समाचार पाकर भरत अपनी सेना श्रीराम की सहायता के लिए पठाते हैं, किंतु सेना के वहाँ पहुँचने से पहले ही रामचंद्र शत्रु-विजय पूरी करके लौट आते हैं। राज्याभिषेक के साथ नाटक समाप्त हो जाता है। अभिषेक नाटक के छह अंकों में बालि-वध से लेकर रामाभिषेक तक की कथा का अभिनय है। पर बालि-वध दिखाकर भास ने भारतीय परिपाटी का उल्लंघन किया है।
पंचरात्र का आधार महाभारत है और इसमें तीन अंक हैं। दुर्योधन यज्ञ रचता है और उसमें आचार्य द्रोण को मुँहमाँगी वस्तु देने की प्रतिज्ञा करता है। द्रोण पांडवों को उनका राज्य लौटा देना माँग लेते हैं। विचार-विनिमय के बाद दुर्योधन इस शर्त पर उनकी माँग पूरी करना स्वीकार कर लेता है कि उस दिन से पाँचवी रात तक के समय में पांडवों को खोज निकाला जाए। निदान कौरव विराट नगर पर धावा बोल देते हैं और वहाँ की गौओं को खदेड़ लेते हैं। युद्ध होता है और वृहन्नला के रूप में अर्जुन कौरवों को परास्त कर देता है। पांडवों का पता चल जाता है और दुर्योधन अपना वचन पूरा कर देता है।
दूतवाक्य में एक अंक है और इसमें कृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन के दरबार में आते हैं। इस नाटक में प्राकृत का एक भी संदर्भ नहीं है और यह बात ध्यान देने योग्य है। मध्यम व्यायोग में भी एक ही अंक है। घटोत्कच अपनी माता की पारणा के लिए एक ब्राह्मण के मझले पुत्र को ले जा रहा है। ब्राह्मण-पुत्र पानी की तलाश में इधर-उधर चला जाता है। घटोत्कच उसे 'मध्यम' कहकर आवाज़ देता है। इस नाम को सुनकर भीमसेन उधर आ निकलते हैं। और घटोत्कच के साथ ऊँची-नीची करते हैं। दोनों में युद्ध होता है किंतु इससे पूर्व की भीमसेन घटोत्कच को धराशायी कर दें, घटोत्कच की माता उधर आ निकलती है और दोनों का बीच-बिचाव कर देती है। भेद खुल जाने पर तीनों प्रसन्न होते हैं और घटोत्कच आगे से किसी भी ब्राह्मण को न मारने की प्रतिज्ञा करता है।
दूत घटोत्कच में एक ही अंक है। इसमें अभिमन्यु के वध के बाद घटोत्कच आता है और अर्जुन के हाथ कौरवों के समूल विनाश की भविष्यवाणी करता है। कर्णभार में एक ही अंक है। इसमें इंद्र वेष भरकर कर्ण का अमोघ कवच उससे माँग लेता है। उरुभग के एक ही अंक में भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध वर्णित है। मंच पर दुर्योधन की मृत्यु दिखाकर भास ने परिपाटी का उल्लंघन किया है। बालचरित के पाँच अंकों में कृष्ण की बाल-लीला का अभिनय है। नाटकवर्णित कृष्ण विषयक घटनाएँ भागवत, विष्णुपुराण एवं हरिवंश आदि में नहीं मिलती। कृष्ण को वसुदेव का सातवाँ पुत्र बताया गया है और नाटक में राधा का नाम तक नहीं आता। कृष्ण लीला की आत्मा श्रृंगाररस का नाटक में अभाव है और यह बात ध्यान देने योग्य है। इस नाटक में भास ने कृष्ण और अरिष्ट का पारस्परिक युद्ध दिखाकर मंच पर ही अरिष्ट का निधन भी दिखाया है जोकि संस्कृत-परिपाटी के प्रतिकूल है।
प्रतिज्ञा यौगन्धरायण में चार अंक हैं इसमें उज्जैन का प्रद्योत राजा उदयन राजा को कैद कर लेता है क्योंकि वह उसके साथ अपनी कन्या वासवदत्ता का विवाह करना चाहता है। उदयन का मंत्री यौगन्धरायण अपने स्वामी को छुड़ाने का संकल्प करता है और अंत में अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है। भामह ने (700 ई.पू.) में इस नाटक के कथानक की समालोचना की है।
स्वप्नवासवदत्त में छह अंक हैं। उदयन वासवदत्ता के साथ विवाह करने के बाद उसमें इतना रम जाता है कि शत्रु उसके राज्य का बड़ा भाग उससे छीन लेते हैं। उसके मंत्री को खोया राज्य वापस लेने की युक्ति सूझ जाती है। एक दिन जबकि राजा शिकार के लिए जंगल में दूर निकल जाता है मंत्री झूठमूठ यह प्रचारित कर देता है कि मंत्री और वासवदत्ता दोनों शिविर में लगी आग में जल मरे हैं। संयासी का वेष धारण करके वह वासवदत्ता को मगधराज की पुत्री पद्मावती के पास ले जाता है क्योंकि पद्मावती का विवाह वह उदयन के साथ कराना चाहता है जिससे कि उनके पिता की सहायता से शत्रु का दमन कर राजा का खोया हुआ राज्य फिर से प्राप्त कर लिया जाए। वासवदत्ता पद्मावती की देख-रेख करती है। उदयन वासवदत्ता को मरा जान बेहाल हो जाता है और न चाहने पर भी पद्मावती से विवाह कर लेता है। विवाह के बाद एक दिन पद्मावती की तबीयत खराब होती है और राजा लीला भवन में रह जाता है। वासवदत्ता भी पद्मावती की सेवा के लिए वहाँ पहुँचती है। राजा की आँख लग जाती है और सोते-सोते उसके मुँह से कातर स्वर में 'वासवदत्ता' 'वासवदत्ता' यह नाम निकल पड़ता है। राजा के मुँह से स्वप्न में अपना नाम सुनकर वासवदत्ता प्रसन्न होती है किंतु उसके जाग जाने के भय से वह वहाँ से सरक जाती है और मंत्री सब बातों का भेद कर प्रकट देता है। उदयन पद्मावती और वासवदत्ता के साथ आनंद से रहने लगता है।
स्वप्नवासवदत्त में नाटकीय तत्त्वों का उत्कर्ष देखकर किसी ने यह कहावत प्रचलित कर दी थी :
भास नाटकचक्रेऽपि छेकै क्षिप्ते परीक्षितुम्।
स्वप्नवासवदत्तस्य पावकोऽभून्न दाहक॥
अर्थात् भास के और सब नाटक तो अग्नि में भस्म हो गए, किंतु स्वप्नवासवदत्त अपने तत्त्वों के उत्कर्ष के कारण आग से अछूता बच गया। चारुदत्त में चार अंक हैं—चारुदत्त एक ग़रीब ब्राह्मण है। वह वसंतसेना नामक वेश्या के साथ प्रेम करता है और वह भी उसे दिल से चाहती है। एक रात चोरों के भय से वसंतसेना अपने आभूषण चारुदत्त के पास रख देती है। शर्विलक नाम का चोर चारुदत्त के घर से उन आभूषणों को चुरा लेता है और अगले दिन उन्हें वसंतसेना के समुख पेश करके उससे अपनी प्रेयसी को मुक्ति दिलाना चाहता है। इसी प्रसंग पर नाटक की समाप्ति हो जाती है।
अविमारक में छह अंक हैं। कुंतिभोज राजा की पुत्री कुरगी राजकुमार अविमारक के साथ प्रेम करती है, किंतु अविमारक शाप के कारण अपना राज खो बैठा है। वह छिपे-छिपे राजकुमारी से मिलता है। अंत में नारद मुनि भेद खोल देते हैं और दोनों का धूमधाम से विवाह हो जाता है।
भास के नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता उनके कथातत्त्व की मौलिकता है, जो सरलता की छाप के कारण शतधा आकर्षक बनकर प्रेक्षकों के समुख उपस्थित होती है। कथा-तत्त्व को आगे चलाने की प्रक्रिया भी इन नाटकों की अत्यंत सुंदर है, निराली है क्योंकि यह चलती न दीखने पर भी तेजी के साथ कथा को आगे बढ़ाती हैं। भास की शैली परिपक्व है। उनकी रचनाओं में दैवी सरलता है जो कालिदास के सिवाय और किसी भी नाटककार में नहीं मिलती। प्रतिमा-नाटक के पाँचवें अंक के तीसरे श्लोक में आता है :
योऽस्या करा आम्पति दर्पणेऽपि
स नैति खेडं कलशं वहन्थया
कष्टं वनं स्त्रीजन सौकुमार्य
समं सताभिः कठिनीकरोति॥
इस पद्य में राम ने पौधों को सीचती हुई सीता के सौकुमार्य का अत्यंत ही मनोरम वर्णन किया है। श्लोक की प्रथम पंक्ति मार्मिक है : सीता का जो हाथ दर्पण में खड़ा हुआ भी थक जाता है यह वाक्य सीता के सौकुमार्य को चार चाँद लगा देता है और उसे सौंदर्य की उसी परिधि में ला बिठाता है जिसके विषय में तुलसीदास ने कहा था की सुंदरता कह सुंदर करही
इस प्रकार की छोटी-छोटी पक्तियाँ उन पिचकारियों का काम करती हैं जोकि देखने में तो छोटी हैं किंतु जिनका फुहारा दूर तक जाता है। और सहज ही प्रेक्षक को आमूलचूल रस में सराबोर कर देता है। सीता का सौकुमार्य वन-तापसों की दृष्टि में तो वंदनीय था ही स्वतः राक्षसराज रावण 'स्वरपदपरिहीणा हव्यवारा' कहकर उसकी वंदना करता है। इस प्रकार की सारगर्भ उक्तियाँ भास के नाटकों में भरी पड़ी हैं इनको सर्चलाइट में भास की मौलिकता सहस्रधा फूटी पड़ती है।
ईसा के बाद की पाँचवीं शती में कालिदास के रूप में साक्षात् नाट्य-कला धराधाम पर उतरती और उनकी रचना मालविकाग्निमित्र एवं विक्रमोर्वंशीय में किशोरावस्था बिताकर उनके अमर नाटक अभिशानशाकुंतल में प्रफुल्ल यौवन का रसास्वादन करती है।
मालविकाग्निमित्र में पाँच अंक हैं। मालविका, मालवा के राजा माधवसेन की बहिन है। उसका विवाह विदिशा के राजा अग्निमित्र के साथ ठहर चुका है। माधवसेन बहिन के साथ विदिशा को प्रस्थान करता है। मार्ग में उसका भतीजा यज्ञसेन उसपर आक्रमण कर देता है। माधवसेन कैद हो जाता है, किंतु उसके साथी आगे निकल जाते हैं। मार्ग में उनपर डाकू छापा मारते हैं और मालविका भी रास्ते से भटक जाती है। चलती-चलती वह विदिशा के प्रांतरक्षक के घर पहुँचती और वहाँ से अग्निमित्र की रानी धारिणी की शरण में जा पहुँचती है। अग्निमित्र उसके साथ प्रेम करने लगता है और विदूषक के द्वारा उसके साथ मेल-जोल बढ़ाता है। किंतु उसकी छोटी रानी इरावती दोनों की प्रेमलीला में प्रतिरोधक बनती है। कुछ दिन बाद माधवसेन के दल के दो आदमी जोकि मार्ग में भटक गए थे, अग्निमित्र के दरबार में आ पहुँचते हैं और मालविका की असलियत को प्रकाशित कर देते हैं। राजा मालविका के साथ विवाह करके आनंदपूर्वक जीवन बिताते हैं।
कालिदास का शकुंतला नाटक प्रेम-सवलित जीवन का आदर्श अभिनय है। इसका एक-एक पद और एक-एक वाक्य अपनी जगह पर विधा रखा है और कथा को आगे बढ़ाने में अनिवार्य कड़ी का काम कर रहा है। शब्दों के चुनाव में एक ऐसे पारखी का हाथ दीख पड़ता है, जिसकी दृष्टि शब्द और अर्थ घुल-मिलकर एक हो चुके हैं और जिसकी चुकटी में अर्थ-रहित शब्द-पुष्प आने ही नहीं पाता। और फ़िर कालिदास के अर्थ को तो देखिए—कितना परिपूत एवं मंगलमय है। यह प्रतीत होता है कि चेतनाचेतन जगत का सारा ही मंगल इन शब्द-पुष्पों की पंखड़ियों में एकत्र कर दिया है। कालिदास के काव्य पढ़िए, पक्तियाँ पढ़िए—रस की पिचकारियाँ छूटती दीख पड़ेंगी जिनमें प्रेक्षक का हृदयपटल रस में सराबोर हो जाता है और वह एक ऐसे काव्य-जगत में सरक जाता है जहाँ रस ही रस का आसार है और जो ‘कुछ न होने’ पर भी कवि के हाथों ‘सब कुछ’ में परिणत हो गया है। और फ़िर वह ‘सब कुछ’ कितना अनायास, कितना स्वारसिक। कुछ न करने पर भी विश्व का सारा मंगल मूर्त बनकर सामने उत्तान होता चला जाता है। कालिदास की कला सचमुच निराली है—उसकी बाजीगरी अपने जैसी आप है।
भरतखंड पर अनेक कवि आए और यहाँ के मनु-जगत को कुछ कहकर, कुछ सुनाकर अपने जगत में चले गए। भरतखंड के मानव ने उनकी वाणी को सुना और उन्हें साधुवाद भी दिए और बस बात समाप्त हो गई। कालिदास के अवतरण पर अशेष भरतखंड चौकन्ना होकर खड़ा हो गया और प्रशांत मुद्रा के साथ उसने उसकी शाश्वत वाणी को सुना और उसके अभिनय को देखा। उसकी वाणी में और उसके अभिनय में यहाँ के मानव को अपना चिरविस्मृत रूप फ़िर से सबल होता दीख पड़ा; उसकी (सरस्वती) मुद्रा को देख इसे अपनी चिति-शकुंतला की सुध आ गई और तत्परता के साथ इंद्रियशत्रुओं का दमन करके यह अपनी प्रेयसी परमार्थता से मिलकर एक हो गया। अन्य कवियों की वाणी में और कालिदास की भारती में हमें यही मौलिक भेद दीख पड़ता है।
कालिदास की वाणी को हमने जानकर भारती के नामसे पुकारा है—क्योंकि इसमें भरतखडं की समस्त भागलिक शक्तियाँ एक साथ मुखरित हो उठी हैं और इसके भीतर की किरणों के प्रकाश में यह सारा भरतखंड परिपूत होकर अमित काल के लिए जगमगा उठा है।
कालिदास की रचनाओं में हमें जीवन की वही उदात्त व्यापकता दीख पड़ती है जोकि वाल्मीकि और व्यास की रचनाओं में छिपी पड़ी है और जिसके होने पर ही किसी कवि को हम विश्व-कवि कहा करते हैं। कालिदास के बाद की रचनाओं में यह व्यापक्ता नहीं रह जाती। अब कवित्त का प्ररोचन उदात्त जीवन न रहकर सामान्य जीवन बन जाता है और कवियों की रचनाएँ हमें अवदान जीवन की और न ले जाकर जीवन के उन कोनों की और ले जाती है जिनका होना तो जीवन में अनिवार्य है किंतु जहाँ प्रकाश की अपेक्षा अंधकार की मात्रा अधिक रहा करती है। शूद्रक के मृच्छकटिक नाटक में हमें जीवन के ऐसे ही कोनों की झाकियाँ मिलती हैं।
चारुदत्त एक निधन ब्राह्मण है। वह वसंतसेना नाम की वेश्या से प्रेम करता है, जोकि वेश्या होने पर भी शिष्ट एवं साधन-संपन्न महिला है। वहाँ के महाराज का साला शकार भी उससे प्रेम करता है किंतु यह उसे दुतकार चुकी है। शकार का सारा क्रोध अब चारुदत पर आ टूटता है। उपवन में चारुदत्त से मिलने के लिए वसंतसेना एक गाड़ी पर सवार होती है। किंतु यह गाड़ी दुर्भाग्य से शकार की है और वसंतसेना अनजाने ही उसमें बैठ शकार के यहाँ जा पहुँचती है। शकार मारे प्रसन्नता के फूला नहीं समाता और प्रेम करने के लिए आगे बढ़ता है; किंतु वसंतसेना घृणा के साथ उसे दुतकार देती है। इसपर शकार उसे धरती पर मार गिराता है। अगले दिन इस अपराध को वह चारदत्त के सिर थोपता और दरबार में उसपर मुकदमा दायर करता है। चारुदत्त को दोषी ठहराया जाता है और उसे फाँसी की सजा सुना दी जाती है। इसी बीच आर्यक राजगद्दी पर अधिकार कर लेता है और अपने उपकारी चारुदत्त को फाँसी से बचा लेता है। वसंतसेना, जोकि चोट के कारण बेहोश हो गई थी, होश में आ जाती और अपने प्रेमी चारुदत्त से आ मिलती है।
नाटक की विशेषता इस बात में है कि इसमें कवि ने उदात्त जीवन का अभिनय न करके जीवन के उन पहलुओं को सहलाया है जोकि अत्यंत सामान्य है और आभिजात समाज में जिनका होना किसी सीमा तक वांछनीय समझा जाता रहा है। शूद्रक की दृष्टि में अभिजात-वर्ग के लिए वेश्याओं के यहाँ आना-जाना शिष्टता का चिह्न था। फलतः चारुदत्त वसंतसेना के साथ प्रेम करके भी ब्राह्मण बना रहता है और समाज में उसका आदर बना रहता है। वेश्याओं के साथ दूत एवं नाचने- गाने का समवाय संबंध है और इन सभी पहलुओं पर इस नाटक में अच्छा प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में शूद्रक ने जीवन के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार प्रयोजनों में से बीच के दो प्रयोजनों को अपनी रचना का आधार बनाया है। वात्स्यायन मुनि के काम-शास्त्र में हमें इन्हीं दोनों की चर्चा मिलती है।
शूद्रक का दृष्टिकोण दरबार के आस-पास फलने-फूलने वाले जीवन तक सीमित था। उसकी दृष्टि में साहित्य का लक्ष्य जीवन की सत्य, शिव, सुंदर की ओर ले जाना न होकर, जीवन की व्याख्या करना मात्र था—वह जीवन भला है या बुरा इस बात से उसे क्या सरोकार? वह तो बढ़ई है जिसका काम खिलौने घडना है, लकड़ी भली है या बुरी इससे उसे क्या मतलब! शूद्रक का बनाया खिलौना सचमुच सलौना है, उसके अनेक पहलू हैं, बहुत से अंग हैं और सभी अंग अपनी-अपनी जगह चतुराई से बिठाए गए हैं। उसकी शकटी सुनहरी न होकर सचमुच मिट्टी की है और उसने जान-बूझकर अपना खिलौना मिट्टी से बनाया है, वह इसलिए कि दुनिया स्वयं मिट्टी की बनी है और इसलिए वह मिट्टी के खिलौनो को अधिक पसंद करती और उन्हीं में रमती-रमती जीवन से उपरत भी हो जाती है। शूद्रक की कथा का लक्ष्य आम लोगों के जीवन का अभिनय करके आम लोगों का दिल बहलाना है।
और यदि शूद्रक के मृच्छकटिक में कामसूत्र-निर्दिष्ट शिष्ट जनो के जीवन का अभिनय है तो विशाखदत्त के मुद्राराक्षस नाटक में देश के तात्कालिक राजनीतिक पहलू का अभिनय किया गया है। कथा यो है—राक्षस नंदों का भक्त है और वह चंद्रगुप्त से जलता है। उसकी दृष्टि में राज्य के अधिकारी नंद हैं, जिन्हें कपट से मारकर किसी ने चंद्रगुप्त को गद्दी पर बिठा दिया है। वह चंद्रगुप्त को राज्यच्युत करने के लिए दिन-रात उपाय करता है किंतु चाणक्य उनकी एक नहीं चलने देता। इतना ही नहीं—दूतों द्वारा वह राक्षस की मुद्रा हथिया लेता है और उसकी मुहर लगाकर एक पत्र राक्षस के सहायकों के पास भेजता है। इसे पाकर राक्षस के सहायक टूट जाते हैं और राक्षस बिचारा अकेला रह जाता है, इसी बीच राक्षस के एक अभिन्न मित्र को फाँसी का हुक्म होता है। राक्षस उसे बचाने का यत्न करता है किंतु सब विफल। अंत में चाणक्य उसके मित्र को इस शर्त पर छोड़ देने के लिए राज़ी होता है कि राक्षस चंद्रगुप्त का प्रधान मंत्रित्व स्वीकार कर ले। कोई चारा न पाकर राक्षस इस शर्त को मान लेता है और नाटक की प्रसाद में समाप्ति हो जाती है।
मुद्राराक्षस का वस्तु-तत्त्व राजनीतिक है और इस दृष्टि से यह नाटक संस्कृत में अद्वितीय है। दरबारों में दिन-रात खेले जाने वाले दाँव-पेचों का इसमें फड़कता अभिनय है जो इस बात पर बल देता है कि धन-प्राप्ति के लिए किसी प्रकार का पाप भी पाप नहीं है क्योंकि राजनीति में सफलता ही पुण्य है और उसे प्राप्त करने के लिए शासक को सभी प्रकार के पाप क्षम्य हैं। यदि शूद्रल अपने समकालिक समाज के सामान्य पहलू का अभिनेता है तो विशाखदत्त अपने युग के राजनीतिक चित्रपट का चतुर चितेरा है। सामाजिक जीवन की व्याख्या करना दोनों का समान लक्ष्य है।
रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद नाटक हर्षवर्धन के बताए जाते हैं, किंतु कुछ लोग उन्हें उसके दरबारी कवि बाणभट्ट की रचना बताते हैं। तीनों ही नाटक सामान्य कोटि के हैं और यह बाण की कादंबरी को देखते हुए उसकी रचना नहीं माने जा सकते। रत्नावली के चार अंकों में उदयन की प्रेम-गाथा का अभिनय है। कौशांबी का राजा उदयन लंका की राजकुमारी सागरिका से प्रेम करता है। इस बात से जलकर वासवदत्ता सागरिका को कैद कर लेती है; किंतु उदयन एक जादूगर की सहायता से उसे फैद से छुड़ा लेता है। लंका का राजा सागरिका को अपनी पुत्री घोषित करके उसे उदयन के साथ मिला देता है। प्रियदर्शिका के चार अंकों में उदयन और अरण्यिका के प्रेम की गाथा है।
नागानंद में पाँच अंक हैं। विद्याघरों का राजकुमार जीमूतवादन संसः नामक साँप को गरुड़ के मुँह से, अपना शरीर उसके सम्मुख प्रस्तुत करके, बचाता है। उसके त्याग को देखकर गरुड़ भी हिसा से मुँह मोड़ लेता है और सभी मरे साँपो को फ़िर से जीवित कर देता है। जीमूतवाहन को गोरी फ़िर से जीवन-दान देती है और उसे विद्याघरों का राजा बना देती है। तीनों नाटक सामान्य कोटि के हैं। रत्नावली में आने वाला लंका की राजकुमारी का वर्णन एवं जादूगर के हाथों उसका स्वतंत्र किया जाना पद्मावत वर्णित घटनाओं की याद दिलाता है, जबकि नागानंद पर बुद्ध धर्म का प्रभाव सुव्यक्त है।
भट्टनारायण कृत वेणीसहार के छह अंकों में भीमसेन द्रौपदी के केशपाश को सजाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता है। द्यूतभवन में दुःशासन द्वारा अपमानित होकर द्रौपदी ने अपनी वेणी खुली छोड़ दी थी और उसे तबतक खुली रखने की प्रतिज्ञा की थी जबतक कि दुर्योधन को मारकर भीमसेन स्वयं उसे न बाँधे। इस नाटक में भीमसेन की इसी कथा का वीररसपूर्ण अभिनय दिखाया गया है। नाटक के कुछ दृश्यों में नाटकीय छटा खिल उठी है---किंतु कथानक कुछ ढीला-ढाला है और यह बात इस नाटक को प्रथम कोटि से नीचे गिराने के लिए पर्याप्त है।
ईसा के पश्चात् सातवीं सदी में भवभूति ने महावीर-चरित, मालती-माधव और उत्तररामचरित नाम के तीन नाटक लिखे। महावीर-चरित के सात अंकों में राम विवाह से प्रारंभ करके उनके अभिषेक तक की कथा का अभिनय है। सीता को वरने के लिए रावण भी अपना दूत पठाता है, किंतु राम शिवधनुष को खींच देते हैं और रावण का दूत मेंहमान रह जाता है। रावण का मंत्री माल्यवान् राम से बदला लेने की ठान लेता है। शूर्पणखा, मंथरा के वेष में अयोध्या पहुँचती और कैकेयी की ओर से राजा दशरथ के सामने दो वर प्रस्तुत करती है। माल्यवान् ही बालि को राम पर धावा बोलने की सलाह देता है। अंतिम अंक में राम विमान में बैठकर अयोध्या को लौट आते हैं।
भवभूति की दूसरी रचना मालती माधव है जोकि दस अंकों में है। इसमें विदर्भराज के मंत्री देवरात के पुत्र माधव का पद्मावती के राजा के मंत्री भूरिवसु को पुत्री मालती से विवाह संपन्न होता है और साथ ही माधव के मित्र मकरंद का मालती की सहेली मदयतिका से परिणय होता है।
नाटक में श्रृंगाररस की प्रधानता है और मालती-माधव के विरहोद्गारों में एक गहरी कूक है जो पाठकों के दिल में गाँस की नाई घँसती चली जाती है। भवभूति का तीसरा नाटक उत्तररामचरित है, जिसमें सात अंक हैं। इसका आधार रामायण का उत्तरकांड है। अंत में राम का सीता एवं उनके पुत्र लव-कुश के साथ पुनर्मिलन सुंदर तरीके से दिखाया गया है।
निःसंदेह उत्तररामचरित की कथावस्तु उदात्त कोटि की है और उसमें करुण रस का परिपाक परा कोटि पर जा पहुँचा है। नाटक की कुछ सूक्तियाँ मन को मोह लेती हैं और कथा का प्रवाह भी त्वरित, समपद एवं गौरवशाली है। किंतु यह सब होते हुए भी हम कहेंगे कि भवभूति नाट्य-पंडित हैं, उत्कृष्ट कोटि के नाट्यकार नहीं। उनकी भाषा दुरूह है, उनके श्लोकों के जगड्वाल में प्रेक्षक घबरा जाता है और उनकी रचना में एक ऐसी बनावट है जो सहृदय प्रेक्षकों को अखरती है।
भवभूति के साथ संस्कृत नाटक की विभूति समाप्त हो जाती है और कवित्व का यह पहलू पंगु बन जाता है। कहने को तो नाटक बाद में भी लिखे गए और पर्याप्त मात्रा में लिखे गए, किंतु वे लिखने के लिए लिखे गए, देखे जाने के लिए नहीं। और नाटक के विषय में इस प्रवृत्ति का उदय होना उसकी आत्मा को नष्ट कर देना है।
और अब डालिए शब्द ब्रह्म की क्रममयी काव्य-जाह्वनी पर एक विहंगम दृष्टि, कितना विशाल है इसका आयाम और कितना विपुल है इसका व्याम? इस जाह्ववी के दो नट हैं, पहला विशुद्ध श्रव्य-काव्य और दूसरा दृश्य-काव्य। पहले तट पर आपको वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि अनेक कविपुङ्गव इसकी अर्चना में करबद्ध होकर खड़े मिलेंगे—इनकी अंजलियों के अमर प्रसूनों ने कविता-जाह्नवी के इस तट को सदा के लिए परिपूत एवं भास्वर बना दिया है। फ़िर देखिए इसके दृश्य-तट को। सैकड़ों मील के अंतराल के बाद आपको इसपर भाण, कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त और भवभूति अपनी अजलियों में नाट्य-प्रसून लिए भव्यमुद्रा में खड़े दीख पड़ेंगे। ये सारे ही पविपुङ्गव भरतखंड के अमर दूत हैं; इन सभी के अभिनय में इस खंड के मानव की आत्मा साकार हुई है। किंतु जहाँ कालिदास की नाट्य-कला में स्वयं प्रतिरोधी एवं अभ्यनुशा शक्तिरूप कालब्रह्म अपनी झाँकी ले रहा है वहाँ इतर नाट्यकारों की नाट्य-कला कुछ काल के लिए बुलंद होकर सहसा मंद पड़ जाती है और कविता-सरित के इस तट पर सुनसान छा जाता है। इस नीरव में ही हमारी काव्य सरित एक टीस के साथ, एक विषादपूर्ण निःश्वास के साथ आगे बढ़ती दीख पड़ती है—इस आशा को मन में रखकर कि आगे कहीं कोई कालिदास फ़िर मिलेगा और भारती के यशोगान में दूसरी बार भूखंड को भर देगा।
- पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य (पृष्ठ 229)
- संपादक : नगेन्द्र
- रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
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