पाश्चात्य रंगमंच और आधुनिक भारतीय नाट्य
pashchaty rangmanch aur adhunik bharatiy naty
चार्ल्स फाबरी
Charles Fabry
पाश्चात्य रंगमंच और आधुनिक भारतीय नाट्य
pashchaty rangmanch aur adhunik bharatiy naty
Charles Fabry
चार्ल्स फाबरी
और अधिकचार्ल्स फाबरी
यह अभिनंदन-ग्रंथ सेठ गोविंददास जी को समर्पित है अतः यह उचित ही होगा कि पाश्चात्य रंगमंच के विषय में किसी विछिन्न दृष्टिकोण से न लिखा जाए, वरन् आज के भारतीय नाट्य (थियेटर) के प्रसंग में ही उसका अवलोकन किया जाए। यह इसलिए और भी अभिप्रेत है कि इन पंक्तियों के लेखक ने तीस वर्षों से भी अधिक समय से संस्कृत नाट्य का अध्ययन किया है और गत पच्चीस वर्षों से वह आधुनिक भारतीय नाट्य-आंदोलन के घनिष्ठ तथा अत्यंत निकट संपर्क में रहा है।
आधुनिक भारतीय नाट्य-आंदोलन से सहानुभूति तथा रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख यह स्पष्ट है कि भारत में रंगमंच को बड़ी कठिन परिस्थितियों से होकर गुज़रना पड़ रहा है। प्राचीन काल की भाँति धुमक्कड़ नट अब भी हैं, गाँवो के मेलों-उत्सवों में ये अब भी जाते हैं, लेकिन उनका लोप होता जा रहा है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकाधिक फैलते जाने वाले सिनेमा के प्रलोभनों के सामने ठहरने में वे असमर्थ हैं। यह सच है कि प्राचीन जनपदीय-नाट्य को जीवित रखने के लिए प्रयत्न किए गए हैं, और किए जा रहे हैं, यही नहीं, उसका उपयोग ग्रामोन्नति संबंधी विचारों तथा पंचवर्षीय योजना को प्रचारित करने के लिए भी किया गया है और ये प्रशंसनीय उद्देश्य हैं—सभी समझदार लोगों का समर्थन इनको मिलाना चाहिए, फ़िर भी वास्तविक नाट्य के उद्देश्यों से भिन्न, ये एक-दूसरे ही स्तर की बातें हैं और इनसे क्रमशः समाप्त हो रही पुराने ढंग की यात्रा और रामलीला मंडलियों आदि को अधिक सहायता नहीं मिलेगी। यह भी एक प्रकार का नाट्य है और हमारे ऐसे प्राचीन संस्कृत नाट्य-जीवन से होता हुआ आया है, जो समारोहों तथा उत्सव-दिवसों में राज-दरबारों से फैलता हुआ नगर की गलियों और चौराहों में व्याप्त हो गया था।
आज भारत का दूसरा नाट्य वह नया आंदोलन है जो पाश्चात्य रंगमंच के प्रभाव में भारत के कलकत्ता, बंबई, मद्रास आदि बड़े शहरों से शुरू हुआ था और जिसे सबसे पहले, यहाँ बसने वाले अंग्रेज़ अपने साथ लाए थे। इस नवोदित एवं महत्वाकांक्षी नाट्य-आंदोलन की जैसी स्थिति है उसके लिए पाश्चात्य रंगमंच का अध्ययन करना उपयोगी होगा। भारत में आधुनिफ रंगमंच प्राय संपूर्ण रूप से अव्यावसायिक हाथों में है। सबसे अधिक महत्वाकांक्षी मंडलियों में ऐसे पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष होते हैं, जो अपने दफ़्तर के समय के बाद—अस्पताल और सचिवालय में, चित्र-फलक पर अथवा विश्यविद्यालय की अध्ययन-कक्षा में अपना काम पूरा करने के बाद, एकत्र होते हैं और अपने अतिरिक्त समय का उपयोग, नाटक प्रस्तुत करने के लिए करते हैं। इससे अधिक उत्साही समूह और हो ही कौन-सा सकता है?
दुर्भाग्यवश, रंग-विधान और अभिनय तथा दिग्दर्शन और उपस्थापन संबंधी उनका ज्ञान उनके उत्साह की तुलना में, कुछ भी नहीं होता। उनमें से अधिकांश तो प्रस्तुतः अच्छे नाट्य के विषय में बहुत ही थोड़ा जानते हैं और इसका सीधा-सा कारण यह है कि ये लोग अधिकांशत: फ़िल्मों से (जो नितांत भिन्न माध्यम है) और दूसरी अव्यावसायिक मंडलियों से ही अपने भाव तथा विचार ग्रहण करते हैं। जो यूरोप और अमरीका जा चुके हैं, ऐसे—उनमें से बहुत थोड़े—व्यक्तियों ने ही श्रेष्ठ प्रथम श्रेणी के नाटक देखे होते हैं। वे किसी अच्छी स्तर की व्यावसायिक मंडली को भी नहीं देख पाते क्योंकि भारत में ऐसी व्यावसायिक मंडलियाँ शायद ही कोई होगी।
वास्तव में, पाश्चात्य रंगमंच और भारतीय रंगमंच में, यही सर्वाधिक प्रमुख अंतर है। कई सौ सालों से, निश्चय ही उत्तर-मध्य-युग से, पुनर्जागरण के समय से लेकर अबतक पाश्चात्य रंगमंच मुख्यतः व्यावसायिक रहा है। अव्यवसायी तो वहाँ हमेशा से थे, विशेषकर अव्यावसायिक नाटकों के उस स्वर्ग—इंग्लैंड में, 'मिड समर नाइस ड्रीम' में मामूली काम-धंधा करने वाले लोगों की मनमोहक अव्यवसायी कंपनी देखने को मिलती है। किंतु, अधिकांश नाट्य-संबंधी कार्य व्यावसायिक कंपनियों द्वारा किया जाता रहा। कभी उनको किसी राजकुमार अथवा राजा से कुछ धन मिल गया और उन्होंने किसी तरह अपना काम चला लिया या अधिकतर तो यही हुआ कि वे लोग घूम-घूमकर अभिनय करते थे, अकबर नितांत दरिद्रतापूर्ण दिन बिताते थे, एक क़स्बे से दूसरे क़स्बे और एक गाँव में दूसरे गाँव में जाते, ज़्यादातर सलिहानों-पोसाने में और बाज़ार के मैदानों में मामूली तौर पर बनाए गए मंचों पर अभिनय करते, उसके लिए नगण्य-सा पारिश्रमिक पाते, कभी किसी उत्साही प्रशंसक से अच्छा खाना मिल जाता और कभी एक खेत से दूसरे खेत में माँगने हुए घूमना पड़ता, कभी-कभी मुर्गा या रोटी के लिए किसी किसान के परिवार को गाना सुना देते। (इसी से 'गीत के बदले में कुछ पा जाना' वाला अंग्रेज़ी मुहावरा बना है।)
इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ये घुमक्कड़ नट अपनी कला में पूर्णतः दत्त-चित्त थे और ये पिछली कई शताब्दियों से रंगमंच की ज्योति प्रदीप्त किए रहे। आज भारत में उत्साही नौसिखुए नाट्य के लिए केवल अपना फालतू वक्त देते हैं और उधर पश्चिमी यूरोप और इंग्लैंड के इन घुमक्कड़ नटों ने रंगमंच के लिए सबकुछ त्याग दिया था—अपना परिवार, घर, संपत्ति, व्यवसाय, सभी कुछ, और नाट्य-देवी की सेवा में अपना समस्त जीवन अर्पित कर देने का व्रत लिया था।
मध्यकाल और आदिकाल के भारत की व्यावसायिक कंपनियों के विषय में हमें जो ज्ञात है, उसकी तुलना इनसे करना पूर्णतः उचित होगा। कई प्रमाणों से हमें पता चलता है कि पश्चिम की ही भाँति, यहाँ भी घुमक्कड़ नटों का व्यवसाय अपेक्षाकृत गौरवहीन समझा जाता था। इन अभिनेताओं की दरिद्रता और दुरवस्था की कल्पना की जा सकती है। एक अत्यंत खेदजनक प्रमाण मनु में मिलता है, जिन्होंने अपने धर्म-शास्त्र में उस व्यक्ति को अपेक्षाकृत कम कठोर दंड देने की व्यवस्था की है, जो किसी नट की पत्नी के साथ संभोग करता हुआ पकड़ा जाए, क्योंकि पाठ में लिखा है—यह विदित है कि दरिद्रता के कारण नट अपनी पत्नियों को ऐसे संबंध रखने की छूट दे देते हैं। क्या इससे भी अधिक दारुण भाग्य की कल्पना की जा सकती है?
इसी प्रकार पश्चिम में भी अभिनेत्रियाँ असम्मान की दृष्टि से देखी जाती थीं। इसका कारण, निस्संदेह, भारत की ही भाँति, उनकी गरीबी और बेघरबार होना खानाबदोशों जैसा घूमना-फ़िरना, था। लेकिन भारत में नाट्य धीरे-धीरे आधुनिक अव्यवसायी के हाथों में आ गया है, तो पश्चिम में, 19वीं शताब्दी में महान व्यावसायिक नाट्य का उदय हुआ। निश्चय ही, इसका संबंध बड़े शहरों तथा औद्योगिक क्रांति के विकास से था, जिसने कि बहुत से मध्यवर्गीय लोगों को इतना समृद्ध कर दिया कि वे 'उच्च श्रेणी के मनोरंजन' की माँग कर सकें। यह पता चला कि नाट्य भी 'एक उद्योग' है और बहुत लाभकारी उद्योग है। समाज में अभिनेता की प्रतिष्ठा, शीघ्र ही, बढ़ गई, अभिनेताओं को महाराज-महारानियों तथा गणराज्यों के राष्ट्रपतियों के यहाँ प्रवेश मिलने लगा, उन्हें भद्रजनोचित उपाधियाँ भी मिली। पत्रादिक तथा जनता उनमें अभिरुचि लेने लगी और कुछ देशों में तो अभिनेतागण ऐसी स्थिति में हो गए कि स्वयं अपने थियेटर चला सकें। इसे 'अभिनेता-प्रबंधक थियेटर’ कहा गया।
यद्यपि मैं यहाँ पिछले लगभग सौ वर्षों के विस्तृत इतिहास की चर्चा नहीं करना चाहता फ़िर भी इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि अभिनेता और नाट्य की सामाजिक स्थिति बहुत अधिक सुधर जाने का परिणाम यह नहीं हुआ कि 'व्यापारिक नाट्य' कोई सस्ता और खराब धंधा हो जाए, बल्कि उसमें सर्वागीण सुधार ही हुआ। यह अवश्य है कि निरंतर रुचियों का सस्ते ढंग से पोषण करने के लिए अश्लीलतापूर्ण प्रहसन और हलके-फुलके आपरेटा, अर्थहीन धमारी स्वाँग तथा अन्य निकृष्ट चीज़ें होती रही। परंतु यहीं इसका उल्लेख भी कर देना चाहिए कि व्यावसायिक नाट्य ने एक कहीं प्रबुद्ध जनता की सत्ता को खोज निकाला है, जो गंभीर एवं कलात्मक नाटक चाहती है और जो एक के बाद दूसरी रात, बराबर नाट्य-गृह में आती रहेगी, यदि शेक्सपियर, इब्सन, शॉ, गाल्सवर्दी (नाट्य-गृह में अत्यंत लोकप्रिय) और फ्रांस, जर्मनी अथवा रूस के किन्हीं भी प्रयोगशील नाटककारों के नाटक खेले जाएँ। अनेक देशों में, देश की सरकार पर आश्रित ‘राष्ट्रीय नाट्यगृह’ भी हैं, जो आर्थिक लाभ को महत्त्व नहीं देते। मेरा विचार है कि इनमें से प्राचीनतम है, पेरिस का कॉमेडी फन्गेज़ (Comedie Francaise)। अन्यत्र, आदर्शवादियों के गैरसरकारी दलों ने ऐसे नाट्य को जन्म दिया, जो व्यवहारत राष्ट्रीय नाट्य-सा ही हो गया, जैसे, लंदन में ओल्ड विक, जिसे राज्याश्रय तो नहीं प्राप्त है पर जनता का अत्यधिक अनुराग मिला है। ओल्ड विक में कभी कोई सस्ती चीज़ नहीं चल सकती। गत सौ वर्षों से भी अधिक समय में जर्मनी में नाट्य की स्थिति अत्यंत शुभ रही है क्योंकि सभी छोटे-मोटे राजकुमार और नरेश, वथेरिया के नरेश, सैक्सनी के नरेश आदि अपने स्वयं के नाट्यगृहों के बड़े भारी संरक्षक थे। जर्मनी के एकीकरण के साथ-साथ, इन्हीं नाट्यगृहों के कारण, अत्यंत उत्साहमय प्रादेशिक नाट्य-वातावरण का विकास हुआ। निश्चय ही, जर्मनी ही ऐसा एकमात्र देश है जहाँ देश की राजधानी, सर्वश्रेष्ठ नाट्य-प्रदर्शनो के मामले में हर प्रकार से अग्रगण्य नहीं है। हेमटेन, मानिस और फ्रैंकफ़र्ट में उतने ही अच्छे नाट्य-गृह हैं, जितने कि बर्लिन में होंगे। दूसरे देशों में, समस्त श्रेष्ठ नाट्य-कलाप राजधानियों में केंद्रित रहता है; जैसे, उदाहरण के लिए, हंगरी में।
भले ही यह स्पष्ट हो कि परिणाम में, व्यापारिक, व्यावसायिक, नाट्य मुख्यतः आर्थिक लाभ के उद्देश्य से चलाया जाता था और इसके बावजूद कुल मिलाकर बुरा नहीं था, कुछ तो इसलिए भी कि व्यापक शिक्षा के साथ-साथ जनता की रुचि बहुत अधिक सुधर गई थी, फ़िर भी, यह सच है कि बीसवीं शताब्दी में व्यापारिक, व्यावसायिक नाट्य के प्रति, धीरे-धीरे प्रतिक्रिया होनी शुरू हुई। 1920-30 के बाद से ‘बहुत पहले से चले आते' नाट्यगृह क्रमशः नई प्रतिभा के लिए द्वार बंद करने लगे। इन व्यापारिक नाट्य-गृहों के दिग्दर्शन का स्वर इतना उत्कृष्ट और इतना अधिक व्यय-साध्य हो गया था कि नए नाटकों के साथ प्रयोग करने में प्रबंधक लोग अधिकाधिक हिचकने लगे, क्योंकि लगभग चार सौ रातों से बराबर चलते रहने वाले किसी पुराने, अत्यंत लोकप्रिय नाटक को अभी और सौ रातों तक वे चला सकते थे। ऐसी स्थिति में, कोई नाटककार अपने नए नाटक को लेकर भला किसके पास जाता? एक वस्तुत प्रसिद्ध नाटककार, श्री क्लिफर्ड बैंकस ने देखा कि भले ही वे अत्यंत प्रसिद्ध हो गए हैं पर उनके एक बहुत अच्छे नाटक को व्यावसायिक नाट्य-गृह प्रतिवर्ष केवल इसलिए अस्वीकृत कर देते थे, क्योंकि पुराने नाटक को देखने के लिए जनता हर रात उमड़ी आती थी और नए नाटक को शुरू करने के लिए नाट्य- गृहों के पास कोई भी मौक़ा न था। आख़िरकार, श्री बेकस ने केन्सिगटन में एक नाट्य-गृह किराए पर लिया, अपनी कंपनी गुटाई और उनका नाटक अत्यधिक सफल हुआ।
इस स्थिति ने अव्यावसायिक तथा 'कला-नाट्य-गृहों' को एक नई भूमिका दी। सन् 1920-30 के पहले भी अर्ध-व्यावसायिक अथवा छोटे और प्राय नौसिखुए ढंग के ऐसे व्यावसायिक नाट्य-गृहों में नए नाटक 'आज़माए' जाते थे—-जो उपनगरों में स्थित थे और छोटे-मोटे थे, यथा ‘क्यू’ नाट्य-गृह। उपनगर के छोटे नाट्य-गृह में सफल होने के बाद ही वेस्टएड के प्रबंधक इन नाटकों को लंदन में वेस्ट एड के बड़े-बड़े नाट्यगृहों में खेले जाने के लिए लेते थे। फलतः 1930-40 और 1940-50 के बीच छोटे-छोटे हॉलों, कक्षों और त्यक्त पुराने सिनेमाओं में, बहुत से छोटे-छोटे ‘कला-नाट्यगृह’ शुरू हो गए। इनका उद्देश्य ऐसे नाटकों को प्रस्तुत करना था, जिनके साथ प्रयोग करने के लिए बड़े नाट्य-गृह तैयार नहीं थे। पेरिस, बर्लिन और लंदन में ऐसे नाट्य-गृहों में एक नया कलात्मक नाट्य-वातावरण विकसित हुआ। संघर्ष करते हुए और प्राय आर्थिक संकट में रहकर इन कंपनियों ने काम चलाने भर को, नए उपाय धीरे-धीरे खोज निकाले। एक बहुत अच्छा तरीका यह है कि कंपनी को 'क्लब' का रूप दे दिया गया, नियमित रूप से चंदा देने वाले सदस्य बनाए गए, और जब एक बार ऐसे सदस्य बन गए तो बचे हुए टिकट स्थायी सदस्यों की दर से कुछ अधिक मूल्य पर, अस्थायी सदस्यों के हाथ बेच दिए गए। लंदन से सुपरिचित भारतीय पाठकों को जिन नाटय-गृहों का पता होगा, उनमें मैं आर्टस् थियेटर और मर्करी का उल्लेख करूँगा। इन तथा अन्य छोटे नाट्य-गृहों के अभिनेता-अभिनेत्रियों में अंग्रेज़ी अभिनय के इतिहास के कुछ अत्यंत महान कलाकार हुए हैं। आर्टस् थियेटर में, जहाँ मेरा अनुमान है कि दो सौ से भी कम दर्शकों के लिए स्थान है, मैंने सर जान गिलगुड को हैमलेट की भूमिका में देखा है। इंग्लैंड को इस बीच प्रसिद्ध बनाने वाले बहुत से महान आधुनिक पद्य-नाटक—जैसे कि रोनाल्ड डकन और क्रिस्टोफर फ्राई के—सर्वप्रथम इन्हीं छोटे नाट्य-गृहों में प्रस्तुत किए गए थे, जहाँ दो सौ से भी कम व्यक्तियों के बैठने का स्थान है।
इस प्रकार छोटे व्यापारिक, किंतु व्यावसायिक नाट्य-गृह तथा हज़ारों की संख्या वाले पूर्णतः अव्यावसायिक नाट्य-गृह, श्रेष्ठ नाट्य के संरक्षक, अग्रदूत एवं नवोन्मेषक की एक नई भूमिका में सन्मुख आए हैं। और कम से कम कुछ देशों में; जैसे कि इंग्लैंड और जर्मनी में, पेशेवर और गैर-पेशेवर नाट्य के बीच कल्पनातीत महयोग विद्यमान है। पश्चिम के देशों में नौसिखुओं को न केवल इसकी अपार सुविधा है कि वे सप्ताह की किसी भी रात्रि में उच्च श्रेणी का नाट्य देखें, बल्कि यह भी कि पेशेवर नाट्य द्वारा उन्हें सहायता, परामर्श तथा अच्छा काम करने की प्रेरणा आदि निरंतर सुलभ रहते हैं।
आज के भारतीय नाट्य में इसी बात की सबसे बड़ी कमी है। उच्च श्रेणी के नाट्य द्वारा मार्ग-प्रदर्शन और उदाहरण नहीं मिल पाते क्योंकि ऐसे नाट्य का अस्तित्व नहीं के बराबर है। श्री पृथ्वीराज कपूर, श्री शंभू मिश्रा, श्री अलकाज़ी और नाट्य-जगत के कुछ महाराष्ट्रीय तथा दक्षिण- भारतीय नेतागण अपने उदाहरणों तथा परामर्शों द्वारा नौसिखुओं की सहायता मुश्किल से ही कर पाते हैं, क्योंकि स्वयं उनके ही मार्ग में बड़ी भारी कठिनाइयाँ हैं। श्री शंभू मिश्रा ने मुझे बताया कि उनकी बंगाली नाट्य-संस्था (बहुरूपी) को 'व्यावसायिक' कहना बिल्कुल ग़लत है क्योंकि, वस्तुत, किसी को भी पारिश्रमिक नहीं मिलता। संस्कृत के महान केंद्र, आंध्र में, नाट्य द्वारा काफ़ी पैसा मिल जाता है, लेकिन संभवतः भारत में वही एकमात्र स्थान है, जहाँ अभिनेता और व्यवस्थापक लोग, भद्रजनोचित आय कर पाते हों। श्री पृथ्वीराज कपूर, अपनी फ़िल्मों से कमाते हैं और इस प्रकार मिली हुई आय को उन नाट्य-प्रदर्शनों में लगा देते हैं, जिनमें कि उन्हें तनिक भी आर्थिक लाभ नहीं होता।
मुझे विश्वास है कि श्री अलकाज़ी सही दिशा में कार्य कर रहे हैं। उनका उद्देश्य यह है कि नौसिखुओं को, व्यावसायिक स्तर पर, अधिक अच्छा बनने और अभिनय, शब्दावली, दिग्दर्शन, सज्जा आदि समस्त नाट्य-कलाओं को सीखने के लिए प्रशिक्षित करें। बंबई के अपने विद्यालय में उन्होंने जो मानदंड स्थिर किए हैं, वे उच्च एवं परिश्रम-साध्य है। वे चाहते हैं कि अव्यावसायिक (नौसिखुए) व्यावसायिकों जैसे ही कुशल हो जाएँ, और उनका यह उद्देश्य बहुत कुछ सफल भी हुआ है।
ऐसे ही प्रयत्नों द्वारा यह संभव हो सकेगा कि वर्तमान अव्यावसायिक नाट्य ऐसे अभिनेताओं और निर्देशकों को तैयार कर दे जोकि अपना संपूर्ण समय इस कार्य के लिए दे सकें। भारत के कुछ भागों में ऐसा हो भी गया है—उदाहरण के लिए गुजरात और उड़ीसा में—कि अर्ध-व्यावसायिक कंपनियाँ हैं और उनके कुछ अभिनेताओं को मासिक वेतन मिलता है, तथा अन्य नाट्य-प्रेमी कलाकार अपना अतिरिक्त समय देते हैं। काम बहुत धीरे-धीरे प्रारंभ हुआ है, पर इसीसे, वह सर्वांगीण आधुनिक भारतीय नाट्य विकसित होगा, जिसमें उत्साही नौसिखुए नाट्य-प्रेमी जन अभिनय को एक गौरवपूर्ण व्यवसाय के रूप में ग्रहण करेंगे।
इस प्रकार के विकास के लिए, इस संबंध में पश्चिम के अनुभव क्या थे, यह याद रखना अच्छा रहेगा। वह संक्षेप में, यह है कि व्यावसायिक नाट्य एक आवश्यकता है, परंतु ऐसी आशा नहीं की जा सकती कि वह रंगमंच के लिए सबकुछ कर देगा। 'कला-नाट्य' तथा अव्यावसायिक नाट्य के लिए भी बहुत कुछ करने का क्षेत्र है।
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