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इकाई- VI हिंदी उपन्यास

ikaee- VI hindi upanyaas

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इकाई- VI हिंदी उपन्यास

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    पंडित गौरीदत्त :  देवरानी जेठानी की कहानी

    पंडित गौरीदत्त

    पंडित गौरीदत्त का जन्म पंजाब प्रदेश के लुधियाना नगर में सन् 1836 ईस्वी में हुआ था।

    रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज से बीजगणित, रेखागणित, सर्वेइंग, ड्राइंग और शिल्प आदि की शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत आपने फ़ारसी और अँग्रेज़ी का भी विधिवत् ज्ञान अर्जित किया।

    गौरीदत्त ने ‘नागरी-सौ अक्षर’ 'अक्षर दीपिका’, ‘नागरी की गुप्त वार्ता’, ‘लिपि बोधिनी’, ‘देवनागरी के भजन’ और ‘गौरी नागरी कोष’, 'नागरी और उर्दू का स्वांग', ‘देवनागरी गजट’ तथा ‘नागरी पत्रिका’ नामक पत्र का संपादन तथा प्रकाशन भी किया था।

    ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना (16 जुलाई सन् 1893) से पूर्व ही सन् 1892 में देवनागरी प्रचारक’ नामक पत्र का संपादक एवं प्रकाशन करके हिंदी-प्रचार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

    देवरानी जेठानी की कहानी :

    इस उपन्यास का प्रकाशन 1870 ई. में मेरठ के एक लीथो प्रेस ‘छापाख़ान-ए-जियाई’ में प्रकाशित हुआ।

    डॉ. गोपाल राय व डॉ. पुष्‍पपाल सिंह आदि ने पं गौरीदत्‍त रचित ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिंदी का पहला उपन्‍यास होने का गौरव प्रदान किया है।

    हिंदी उपन्‍यास कोश (1870–1980) के कोशकारों संतोष गोयल, उषा कस्‍तूरिया और उमेश माथुर ने भी ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिंदी का पहला उपन्‍यास मानते हुए अपने कोश की शुरुआत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ के प्रकाशन वर्ष सन् 1870 ई से ही की है।

    गोपाल राय ने ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’ में लिखा है कि—देवरानी जेठानी की कहानी की रचना उपन्यास के रूप में नहीं, बल्कि बालिकाओं के लिए उपयोगी पाठ्य पुस्तक के रूप में हुई थी। उनके अनुसार इस उपन्यास का मक़सद स्त्री-शिक्षा का विकास और आदर्श स्त्री चरित्र को प्रस्तुत करना था। इसी परंपरा में वामा शिक्षक (1872) और भाग्यवती (1877) पुस्तकें भी लिखीं गई थीं। ‘स्त्री-उद्वार भारतीय नवजागरण का प्रमुख मुद्दा था जिसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन कथा पुस्तकों में हुई।’

    देवरानी जेठानी की कहानी के पात्र—

    सर्वसुख- सर्व सुख उपन्यास का नायक है, जो मेरठ का रहने वाला अग्रवाल बनिया है, जिसकी मंडी में आढ़त की दुकान है।

    पार्वती- सर्वसुख की बड़ी बेटी जो कि दिल्ली में विवाहित हैं।

    सुखदेई- यह सर्वसुख की छोटी बेटी है।

    दौलतराम- दौलतराम सर्वसुख का बड़ा बेटा है।

    छोटेलाल- छोटेलाल सर्वसुख का छोटा बेटा है।

    ज्ञानो- बड़ी बहू अर्थात जेठानी, जो दौलतराम की पत्नी है। यह लालची स्वभाव की है, जिसके कारण अपने पति दौलतराम और सास को छोटी बहू के ख़िलाफ़ भड़काकर घर का बँटवारा करवा देती है। छोटी बहू अर्थात देवरानी—जो छोटेलाल की पत्नी है। यह ज्ञानो अर्थात अपनी जेठानी की तरह लालची नहीं है।

    कन्हैया- दौलतराम का पुत्र

    नन्हे- छोटेलाल का बड़ा बेटा

    मोहन- छोटेलाल का छोटा बेटा

    शिवदयाल- सुखदेई का बेटा

    वंशीधर कबाड़ी- इनके यहाँ सुखदेई का विवाह हुआ है।

    ज्ञानचंद- सुखदेई का भानजा

    डूंगर- ज्ञानो का पिता, जो एक ग़रीब बनिया है।

    तहसीलदार- आनंदी का पिता

    राम प्रसाद- आनंदी का बड़ा भाई

    गंगाराम- आनंदी का छोटा भाई

    भगवानदेई- आनंदी की छोटी बहन

    दिल्ला पांडेय- पुरोहित

    मिसरानी- दिल्ला पांडेय की पत्नी

    मुंशी टिकट नारायण- शहरी अमीर

    हर सहाय काबली- शहरी अमीर

    अन्य पात्र- लालदीन दयाल, किरपी(बाल विधवा), झल्ला मल्ल, लाला बुलाकीदास (मदरसे में नौकर)

    भूमिका :

    स्त्रियों को पढ़ने-पढ़ाने के लिए जितनी पुस्‍तकें लिखी गई हैं सब अपने-अपने ढंग और रीति से अच्‍छी हैं, परंतु मैंने इस कहानी को नए रंग-ढंग से लिखा है। मुझको निश्‍चय है कि दोनों, स्‍त्री-पुरुष इसको पढ़कर अति प्रसन्‍न होंगे और बहुत लाभ उठाएँगे।

    जब मुझको यह निश्‍चय हुआ कि स्‍त्री, स्त्रियों की बोली, और पुरुष, पुरुषों की बोली पसंद करते हैं जो कोई स्‍त्री पुरुषों की बोली, वा पुरुष स्त्रियों की बोली बोलता है उसको नाम धरते हैं। इस कारण मैंने पुस्‍तक में स्त्रियों ही की बोल-चाल और वही शब्‍द जहॉं जैसा आशय है, लिखे हैं और यह वह बोली है जो इस ज़िले के बनियों के कुटुंब में स्‍त्री-पुरुष वा लड़के-बाले बोलते-चालते हैं। संस्‍कृत के बहुत शब्‍द और पुस्‍तकों जैसे इसलिए नहीं लिखे कि न कोई चित से पढ़ता है, और न सुनता है।

    इस पुस्‍तक में यह भी दर्शा दिया है कि इस देश के बनिये जन्‍म-मरण विवाहादि में क्‍या-क्‍या करते हैं, पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रियों में क्‍या-क्‍या अंतर है, बालकों का पालन और पोषण किस प्रकार होता है, और किस प्रकार होना चाहिए, स्त्रियों का समय किस-किस काम में व्‍यतीत होता है, और क्‍यों कर होना उचित है। बेपढ़ी स्‍त्री जब एक काम को करती है, उसमें क्‍या-क्‍या हानि होती है। पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है उससे क्‍या-क्‍या लाभ होता है। स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गईं मैंने खोज कर सब लिख दी हैं और इस पुस्‍तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजकल बनियों के घरों में हो रहा है। बाल बराबर भी अंतर नहीं है।

    प्रकट हो कि यह रोचक और मनोहर कहानी श्रीयुत एम.केमसन साहिब, डैरेक्‍टर ऑफ़ पब्लिक इंसट्रक्‍शन बहादुर को ऐसी पसंद आई, मन को भायी और चित्‍त को लुभायी कि शुद्ध करके इसके छपने की आज्ञा दी और दो सौ पुस्‍तक मोल लीं और श्रीमन्‍महाराजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ़्टिनेंट गवर्नर बहादुर के यहॉं से चिट्ठी नंबर 2672 लिखी हुई 24 जून सन् 1870 के अनुसार, इस पुस्‍तक के कर्त्‍ता पंडित गौरीदत्‍त को 100 रुपए इनाम मिले।

    दया उनकी मुझ पर अधिक वित्‍त से

    जो मेरी कहानी पढ़ें चित्‍त से।

    रही भूल मुझसे जो इसमें कहीं,

    बना अपनी पुस्‍तक में लेबें वहीं।

    दया से, कृपा से, क्षमा रीति से,

    छिपावें बुरों को भले, प्रीति से॥

    —प. गौरीदत्‍त शर्मा

    उपन्यास के अंत में स्वार्थ की स्थिति को दर्शाया गया है, जहाँ संपत्ति का बँटवारा होता है।

     

    लाला श्रीनिवास दास : परीक्षा गुरु

    लाला श्रीनिवास दास

    श्रीनिवास दास, जन्म सन् 1850 ई० और मृत्यु 1887 ई०।

    हिंदी गद्य के आरंभिक निर्माता-लेखकों में लाला श्रीनिवास दास का प्रमुख स्थान है। ये भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकालीन थे।

    अपने अत्यल्प जीवन में इन्होंने कुल पाँच रचनाएँ लिखी—चार नाटक और एक उपन्यास।

    इनका पहला नाटक 'प्रहलाद चरित्र' 11 दृश्यों का बड़ा सा नाटक है। दूसरा नाटक 'तप्ता संवरण' 'हरिश्चन्द्र मैगज़ीन' के 1874 ई० के अंकों में प्रकाशित हुआ।

    तीसरा नाटक 'रणधीर और प्रेममोहिनी' है, जो 1878 ई० में लिखा गया और उसी वर्ष सदादर्श सम्मिलित कवि वचनसुधा के पाठकों को बिना मूल्य वितरित किया गया।

    चौथा नाटक 'संयोगिता स्वयंवर', 'पृथ्वीराज रासो की कथा पर आधारित एक ऐतिहासक रोमानी कृति है, जो 1875 ई० में प्रकाशित हुआ।

    रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि चारों लेखकों में (हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी) प्रतिभाशालियों का मनमौजीपन था पर लाला श्रीनिवास दास व्यवहार में दक्ष और संसार का ऊँचा-नीचा समझने वाले पुरुष थे, अतः उनकी भाषा संयत और साफ़ सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी।

    श्रीनिवास दास साहित्य का सोद्देश्य होना मुख्य गुण मानते थे।

    उनकी भाषा और शैली पर अँग्रेज़ी, उर्दू तथा फ़ारसी का पर्याप्त प्रभाव है।

    परीक्षा गुरु :

    25 नवंबर 1882 ई० में लाला श्रीनिवास दास का उपन्यास 'परीक्षागुरु' प्रकाशित हुआ।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे हिंदी का पहला उपन्यास माना है। यद्यपि श्रीनिवास दास ने अपनी इस कृति को उपन्यास नहीं कहा, तथापि इसका ढाँचा उपन्यास का ही है। लाला श्रीनिवासदास ने 'परीक्षा गुरु' की भूमिका में लिखा है, इसके लेखन में महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ बग़ैरह फ़ारसी, स्पेकटेटर, लार्ड बेकन, गोल्ड स्मिथ, विलियम कूपर आदि के पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदि के वर्तमान रिसालों से बड़ी सहायता मिली है।”

    'परीक्षा गुरु' की भूमिका में लेखक ने अपनी इस रचना को ‘नई चाल’ की पुस्तक घोषित किया है। इसमें सिलसिलेवार कहानी कहने की क़िस्सागोई वाली पद्धति को नहीं अपनाया गया।

    लेखक ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकर करते हुए प्रस्तावना में लिखा है, इसमें नाटकीय वर्णन कौशल का अनुसरण करके 'सिलसिलेवार' कथा-कथन की भारतीय परिपाटी का परित्याग किया गया है।

    इस उपन्यास के पात्र न तो राजा-महाराजा है, न ग़रीब किसान हैं। अधिकांश पात्र दिल्ली शहर के मध्यवर्ग के परिवारों से संबंधित हैं। ब्रजकिशोर आदर्श पात्र है, जिसे लेखक ने वकील के रूप में वर्णित किया है। इस युग में राष्ट्रीय आंदोलन तथा सामाजिक आंदोलन का सूत्रधार यह मध्यवर्गीय शिक्षित वकील समुदाय माना जाता था जिसका ब्रजकिशोर प्रतिनिधित्व करता है।

    लेखक ने मध्यवर्ग की आर्थिक दुर्दशा का कारण प्रदर्शनप्रियता को माना है।

     

    प्रेमचंद : गोदान 

    1936 ई. में लिखा गया प्रेमचंद का अंतिम पूर्ण उपन्यास होने के साथ-साथ हिंदी का महानतम उपन्यास माना जाता है।

    इसमें प्रेमचंद ने तत्कालीन भारतीय समाज की लगभग हर समस्या को एक साथ उठाया है।

    'गोदान' में प्रेमचंद ने होरी धनिया के जीवन के माध्यम से उत्तर भारत के 'शांति-प्रेमी किसान' की कष्टप्रद ज़िंदगी का चित्रण किया है। इस क्रम में उन्होंने संपूर्ण गाँव-जीवन के आपसी संबंधों का ताना-बाना प्रस्तुत किया है, परंतु 'गोदान' सिर्फ़ ग्राम—कथा नहीं है। गाँव की कथा के साथ-साथ इसमें शहरी जीवन की कथा भी चलती रहती है जिसमें ज़मींदार राय साहब अमरपाल सिंह, मिर्ज़ा ख़ुर्सद मिस मालती, मि. खन्ना, ओंकारनाथ, मि. मेहता आदि अनेक शहरी पात्र भी आते हैं। ये दोनों कथाएँ 'गोदान' में अलग-अलग होते हुए भी साथ-साथ चलती हैं।

    आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी ने 'गोदान' की तुलना एक ऐसे मकान से की है जिसके दो अलग-अलग खंडों में दो परिवारों के रूप में गाँव तथा शहर रहते हों और जो कभी-कभी एक-दूसरे से मिल लेते हों।

    अवध प्रांत में पाँच मिल के फासले पर दो गाँव हैं—सेमरी और बेलारी। होरी बेलारी में रहता है और राय साहब अमर पाल सिंह सेमरी में रहते हैं। खन्ना, मालती और डॉ. मेहता लखनऊ में रहते हैं।

    मुख्य पात्र :

    • होरी- केंद्रीय पात्र, ग़रीब किसान

    • धनिया- होरी की पत्नी एवं जुझारु पात्र

    • गोबर- होरी का पुत्र

    • सोना और रूपा- होरी की पुत्रियाँ

    • पंडित दातादीन- महाजन

    • पंडित मातादीन- दातादीन का पुत्र

    • दुलारी सहुआइन, पटेश्वरीलाल, झिंगुरी सिंह

    • झुनिया, सिलिया, भोला, नोहरी, हीरा, पुनिया, सोभा

    • रायसाहब और उनकी बेटी मीनाक्षी

    • डॉ. मेहता- दर्शनशास्त्र के विद्वान और प्रोफ़ेसर

    • मिस मालती- आधुनिक स्त्री, डॉक्टर

    • सरोज- मालती की बहन

    • मिस्टर खन्ना- मिल मालिक और बैंकर

    • गोविंदी- खन्ना की पत्नी व आदर्श भारतीय स्त्री

    • संपादक ओंकारनाथ, मिस्टर तंखा और मिर्ज़ा ख़ुर्सद।

    डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, गोदान के किसी एक पात्र को प्रेमचंद का प्रतिनिधि पात्र नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर मेहता से होरी को जोड़ा जा सके तो जो व्यक्ति बनेगा वह बहुत कुछ प्रेमचंद से मिलता-जुलता होगा। मेहता में यदि उन्होंने अपने बिचार डाले हैं तो होरी में बराबर परिश्रम करते रहने की दृढ़ इच्छा शक्ति।

    डॉ. नगेंद्र के अनुसार, प्रेमचंद के साहित्य पर सर्वत्र शिव का शासन है, सत्य और सुंदर शिव के अनुचर होकर आते हैं। उनकी कला स्वीकृत रूप में जीवन के लिए थी और जीवन का अर्थ उनके लिए वर्तमान सामाजिक जीवन ही था।

    डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, चरित्र चित्रण में प्रेमचंद पात्र की वैयक्तिक विशेषताओं में पैठते हुए भी परिस्थितियों के अनुसार उसका उत्थान-पतन दिखाते चलते हैं। सारा व्यापार अत्यंत स्वाभाविक और मानव सुलभ हो उठता है और पाठक पर सत्यता की छाप डालता है।

     

    हजारी प्रसाद द्विवेदी : बाणभट्ट की आत्मकथा

    हजारी प्रसाद द्विवेदी

    मूल नाम : बैजनाथ द्विवेदी

    जन्म : 19 अगस्त 1907, दुबे का छपरा (गाँव), बलिया (उत्तर प्रदेश)

    उपन्यास : बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख।

    'बाणभट्ट की आत्मकथा' सन् 1946 में प्रकाशित हुई।

    कथा-सूत्र :

    इसमें मध्यकालीन इतिहास के एक छोटे-से कालखंड को आधार बनाया गया है। सातवीं शताब्दी का इतिहास और समाज इस उपन्यास में जीवंत हो उठा है। उपन्यास के केंद्र में है बाणभट्ट का जीवन, जो राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक देवपुत्र तुवरमिलिंद की कन्या भट्टिनी की मुक्ति का महत् उद्देश्य लेकर आगे बढ़ता है। वह एक ओर भट्टिनी की मुक्ति की संभावना को सुनिश्चित करता है तो दूसरी ओर अपनी विद्वत्ता से राजसभा में सभासद का पद भी प्राप्त करता है। भट्टिनी की मुक्ति के प्रयास में संलग्न करने वाली निपुणिका को उसका सभासद बनना स्वीकार्य नहीं है क्योंकि उसे इस बात का डर है कि राजसभा का अंग बन जाने के बाद बाणभट्ट भट्टिनी की मुक्ति के महान् उद्देश्य से भटक जाएगा याकि जनता की आशा आकांक्षाओं को पुरजोर ढंग से अभिव्यक्त करने वाला बाणभट्ट राजसत्ता के चक्कर में चाटुकारिता के चंगुल में फँस जाएगा। लेकिन बाणभट्ट अपने उद्देश्य और कर्तव्य के प्रति जागरूक है। इसलिए वह अंत तक स्त्री-मुक्ति के अभियान के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई पड़ता है। किंतु इसके साथ ही एक बात उभरकर सामने आती है और वह है राजसत्ता से बौद्धिक वर्ग की जुड़ने की लालसा।

    हालाँकि इस उपन्यास में एक कवि के रूप में बाण को सत्ता सुख के पीछे भागते हुए नहीं दिखाया गया है फिर भी राजसभा में उसको सभासद चुन लिए जाने के बाद बौद्धिक वर्ग का चरित्र अपने-आप उजागर हो जाता है। यहाँ वह आज के मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखते हुए भी ख़ुद को क्रांतिकारी और जनवादी सिद्ध करता है। इसलिए बाण को जीवित व्यक्ति पर काव्य न लिखने की चेतावनी अकारण नहीं है। प्रकारांतर से यह चेतावनी दरबारी संस्कृति से विरत रहकर अपने रचनात्मक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण लगती है। लेकिन बाणभट्ट सभासद पद स्वीकार करके आज के बुद्धिजीवी समुदाय की चारित्रिक विशेषता को उजागर कर देता है और यहीं पर यह उपन्यास समकालीनता से जुड़ जाता है।

    स्त्री-मुक्ति चेतना, राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आंदोलन साम्प्रदायिक चेतना, राजनीतिक अस्थिरता, जाति-पात एवं ऊँच-नीच के भेद पर आधारित सामाजिक वैषम्य जैसे अनेक मु‌द्दे इस उपन्यास को समकालीन यथार्थ से जोड़ते हैं। समता की भावना और मनुष्य को सर्वोपरि सिद्ध करने की दृढ़ आकांक्षा इस उपन्यास की मूल अवधारणा है। जो इस अवधारणा को व्यापक राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में रूपायित करती है।

    संपूर्ण उपन्यास बीस उच्छवासों में बाँटा हुआ है।

    बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में बाणभट्ट कालीन सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्तिथि के ऐतिसाहिक तत्वों पर प्रकाश डाला गया है।

    प्रमुख पात्र :

    मूल कथा बाणभट्ट, मट्टिनी और निपुणिका के संबंधों के माध्यम से बुनी गई है,लेकिन यह इन तीनों प्रमुख पात्रों के आपसी संबंधों की ही कहानी नहीं है, बल्कि तीनों के जीवन-संघर्ष और एक सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के संघर्ष की भी कहानी है।

    बाणभट्ट 

    बाणभट्ट एक ऐतिहासिक पात्र है लेकिन उसका चित्रण ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनों के संयोग से किया गया है। द्विवेदीजी ने कहा है कि उन्होंने बाणभट्ट और राजा हर्ष की रचनाओं को उपजीव्य बनाया है।

    निपुणिका

    भले ही यह उपन्यास एक पुरुष पात्र का आख्यान है, फिर भी इसमें स्त्रियों की समस्याओं को केंद्रीयता प्रदान की गई है। स्त्री पात्रों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिए बिना यह संभव नहीं था। निपुणिका ही वह चरित्र है, जो सभी कथा-सूत्रों को स्त्री-समस्याओं और स्त्री-मुक्ति के मिशन के रूप में संघठित करती है। यह निपुणिका ही है, जो बाणभट्ट की स्त्री-संवेदना को एक मिशन के रूप में दिशा देती है।

    भट्टिनी या राजकुमारी चंद्रदधिचि यह पात्र देवपुत्र तुवरमिलिंद की पुत्री के रूप में वर्णित चित्रित है, जिसका अपहरण स्थाणीश्वर के छोटे राजकुल ने किया है। भट्टिनी को असंख्य घर्षिता, अपहृता, अपमानिता भारतीय स्त्रियों के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में चित्रित किया गया है। भट्टिनी छोटे राजकुल में बन्दिनी है। उसके पिता तुवरमिलिंद भट्टिनी की खोज का सब प्रयास कर चुके हैं और असफल हैं। पुत्री के शोक में वह किंकर्तव्य विमूढ़ हैं। बाण और निउनिया एक उत्सव के समय छोटे राजकुल के अंत:पुर की सारी सुरक्षा-व्यवस्था को चकमा देकर उसका उद्धार करते हैं। भट्टिनी को चोरी-छिपे राजकुल से निकालकर उसके पिता से मिलाने के क्रम में ही उपन्यास समाप्त होता है। भट्टिनी की मुक्ति और उसे उसके पिता से मिलाने का उद्देश्य बहुत-से राजनीतिक और सामाजिक अर्थों से गर्भित है।

    महामाया

    एक अन्य प्रमुख और प्रभावशाली स्त्री-पात्र हैं। भट्टिनी की तरह वे भी अपनी इच्छा के विरुद्ध मौखरियों के राजकुल में बंदिनी थीं। लेकिन यह बंधन तोड़कर वे क्रांतिकारी जनवादी भूमिका में सामने आती हैं। बच्चन सिंह ने ठीक ही लिखा है, अवरोध से बाहर आकर उन्होंने राजतंत्र में जबदे हुए जन-जीवन को झकझोर दिया। (शांतिनिकेतन से शिवालिक, पृ.225)

     

    फणीश्वर नाथ 'रेणु' : मैला आँचल

    फणीश्वर नाथ 'रेणु'

    जन्म : 4 मार्च, सन् 1921, औराही हिंगना (जिला पूर्णिया अब अररिया) बिहार में                                                                                                                        मृत्यु : 11 अप्रैल, 1977 को पटना में।  

    प्रमुख रचनाएँ : मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, जुलूस, कितने चौराहे (उपन्यास); ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि को महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप (कहानी-संग्रह); ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्श्रुत पूर्व (संस्मरण); नेपाली क्रांति कथा (रिपोर्ताज); तथा रेणु रचनावली (पाँच खंडों में समग्र)। 

    मैला आँचल :

    मैला आँचल का प्रारंभ होता है 1946 में बिहार के पूर्णिया ज़िला के मेरीगंज गाँव में मलेटरी आने की अफ़वाह के साथ। वास्तव में उपन्यास का आरंभ अत्यंत नाटकीय ढंग से होता है इस ख़बर के बिजली की तरह फैलने की सूचना के साथ कि मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ़्तार कर लिया है।

    'मैला आंचल' के पहले संस्करण की भूमिका में ख़ुद रेणु ने उसे 'आँचलिक उपन्यास' कहा था जिसका कथा केंद्र है पूर्णिया। जिसके एक छोटे हिस्से या सीमित अँचल को पिछड़े गाँव का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथाक्षेत्र बनाया गया है। रेणु के शब्द हैं—इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है गुलाल भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है कुरूपता भी—मैं किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया। यही है यह ख़ास जीवन-संदर्भ-जो रेणु का औपन्यासिक यथार्थ भी है और वह दृष्टि बिंदु भी जिससे यथार्थ को देखा जा रहा है। जहाँ बाह्य नैतिकता की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं वहीं आंतरिक नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। इस द्वंद्व के कारण ही 'मैला आँचल' आंचलिक उपन्यास भी है और आधुनिक उपन्यास भी। परस्पर विरोधी मान्यताओं के टकराव के बावजूद गहरी जीवनासक्ति 'मैला आँचल' का बीजभाव है। संघर्ष के मूल उद्वेग के साथ ही एक ट्रैजिक लय उपन्यास के कथाप्रवाह में आद्यंत मौजूद है। पर वह नकारात्मक नहीं है। जीवनासक्ति के मूलभाव से ही संबंध है।

    कथा-सूत्र :

    1946 में उपन्यास के घटनाक्रम को आरंभ करते समय रेणु 1942 के जन-आंदोलन के प्रभाव व पृष्ठभूमि को भी साथ ही चित्रित कर देते हैं। गाँव की सामान्य रूपरेखा, उसका इतिहास और विकास तो वे आगे चलकर बताते हैं, लेकिन गाँव की सामाजिक पृष्ठभूमि, उसका जातिगत विभाजन, उसका मानसिक पिछड़ापन वे पहले अध्याय में ही प्रस्तुत कर देते हैं।

    उपन्यास की कथा मेरीगंज गाँव में मलेरिया सेंटर खुलने की प्रक्रिया से आरंभ होती है। डॉ. प्रशांत कुमार के मलेरिया सेंटर का इंचार्ज बनकर आने से कथा को गति मिलती है। डॉक्टर प्रशांत कुमार गाँव को चिकित्सा सुविधा भी प्रदान करते हैं और गाँव के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से भी गहरे रूप में जुड़ते हैं। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी कमली के रोग का उपचार करते दोनों प्रेम बंधन में बँधते हैं। उधर गाँव में राजनीतिक गतिविधियाँ भी गति पकड़ती हैं। बालदेव कांग्रेस कार्यकर्ता व स्वतंत्रता सेनानी हैं, लेकिन गाँव में वह कोई सक्रिय राजनीतिक गतिविधि नहीं करता, जबकि कालीचरण आदि सोशलिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता बनकर गाँव में क्रांति का प्रचार करते हैं। साथ में ज़मींदारों का शोषण भी करते हैं तो गाँव के सभी समुदायो का वर्ग चरित्र खुलकर सामने आ जाता है। कालीचरण जैसे सोशलिस्ट भी तब ज़मींदारों के पक्ष में जाते हैं। डॉक्टर प्रशांत कुमार को संथालों से सहानुभूति है, तभी वह 1947 के बाद के आज़ाद भारत में कम्युनिस्ट होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं। प्रशांत के कारावास के दौरान कमली उसके बच्चे की बिन ब्याही माँ बनती है और प्रशांत जेल से रिहा होने पर उसे अपनाता है। प्रशांत कमली प्रेमकथा उपन्यास में एक स्तर पर चलती है तो दूसरे पर कई अन्य कथाएँ भी सामानांतर ही उपन्यास में चलती रहती हैं। गाँव का मठ अपने आप में कई कथाएँ समेटे हैं और इन कथाओं को मुख्य कथा के साथ बालदेव का मठ में लछमी के साथ रहना जोड़ता है। बाद में बालदेव व लछमी डेरा छोड़ भी देते हैं। प्रेम प्रसंगों में कालीचरण मंगला, महंत रामदास-रामपियारी व अन्य कई प्रसंग भी कथा में गुंथे चलते हैं। लेकिन क्योंकि उपन्यासकार का मुख्य लक्ष्य पूरे अँचल के जनजीवन को उसकी पूरी विविधता व सजीवता में चित्रित करता है, इसलिए उसने गाँव के जीवन के प्रायः सभी पक्षों को किसी न किसी प्रसंग द्वारा अपनी कथा में बुना है, चाहे वह होली का त्यौहार हो या कोई अन्य पर्व। उपन्यास में 1946-48 के मध्य की स्थिति को देश के संक्रमणकालीन दौर के रूप में चित्रित किया गया है, इसलिए इस संक्रमणकाल में कांग्रेस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि की गतिविधियाँ औपन्यासिक सरंचना में ढलकर चित्रित की गई हैं।

    प्रमुख पात्र :

    उपन्यास में एक भी पात्र ऐसा नहीं है जिसे उपन्यास का केंद्रीय पात्र माना जा सके, और उपन्यास के नायक का दर्जा दिया जा सके। उपन्यास के डॉ. प्रशान्त, बालदेव, कालीचरण, लक्ष्मी, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद जैसे कुछ पात्रों को महत्त्वपूर्ण पात्रों में गिना जा सकता है, डॉ. प्रशांत अज्ञातकुलशील है। पटना कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री प्राप्त करते हैं और विदेश में नौकरी के अवसर ठुकराकर किसी गाँव में रहकर मलेरिया और कालाजार पर शोध करना चाहते हैं। इसलिए वे मेरीगंज पहुँचते हैं। वहाँ पहुँचकर वे शोध करने के साथ-साथ उस गाँव के लोगों से घुल-मिल जाते हैं। वे मेरीगंज और उसके आस-पास के गाँव में हैज़ा फैलने पर दिन-रात एक करके रोगियों की बिना फ़ीस लिए सेवा करते रहते हैं। धीरे-धीरे डॉ. प्रशांत को गाँव वालों की इस दुर्दशा का कारण समझ में आ जाता है। वे कहते हैं—रिसर्च पूरा हो गया है। उन्होंने रोग की जड़ पकड़ ली है...ग़रीबी और जहालत...इस रोग के दो कीटाणु हैं। 

    बालदेव 

    देश की आज़ादी के लिए उन्होंने कई बार जेल की हवा खाई है। वे गाँधी जी के अहिंसा, अनशन, सहिष्णुता और आत्मनियंत्रण के रास्ते पर चलते हैं और हिंसा के घोर विरोधी हैं। वे गाँव के अस्पताल निर्माण के समय बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। लेकिन इन सब के बाद उसके उसके चरित्र में कुछ मानवीय कमज़ोरियाँ भी हैं।

    कालीचरण

    मेरीगंज की पिछड़ी जातियों के सम्मान को जगाने का प्रयत्न करता है और उसी के प्रयत्नों के फलस्वरूप तंत्रिमा टोली की पंचायत निर्णय लेती है कि कोई औरत अब बाबू टोला के किसी आँगन में काम करने नहीं जाएगी। अन्याय का पुरजोर ढंग से विरोध करता है। पढ़ा-लिखा न होने पर भी वे अंधविश्वासी नहीं हैं।

    तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद

    मैला आँचल के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। तहसीलदार ने अपनी तिकड़म, चालाकी और बेईमानी से मेरीगंज की एक हज़ार बीघे ज़मीन पर अकेले क़ब्ज़ा जमा रखा है। उनके दादा छल-कपट से परबंगा स्टेट में मिल गए, उनके पिता ने भी जीवन भर छल-प्रपंच का सहारा लिया और अब विश्वनाथ प्रसाद भी अपने बाप दादाओं के नक़्शे क़दम पर हैं।

    लक्ष्मी

    इस संसार में उनका कोई भी नहीं है। उनके पिता की मृत्यु भी हो चुकी है। महंत सेवादास ने उन्हें अपनी बेटी की तरह पालने का वचन दिया था, लेकिन उसी सेवादास ने उसे अपनी कामवासना का शिकार बनाया।

    कमली

    तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी है। जो इस अंधविश्वास का शिकार हो जाती है कि लड़की अपशकुनी है, इसके पैर अच्छे नहीं हैं, यह मनहूस है। जहाँ भी इसका विवाह तय होता है, वहाँ कोई न कोई अनिष्ट हो जाता है। कमली इन सारी बातों से दुखी है, और अंत में वह डॉ. प्रशांत से मिलकर अपनी परेशानी भूलने लगती है और उससे प्रेम करने लगती है। विवाहपूर्व गर्भवती हो जाने के बाद भी वह डॉ. प्रशांत के प्रति अपने विश्वास को बनाए रखती हैं।

    बावनदास

    ज़िला कांग्रेस कमेटी की तरफ़ से कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए मेरीगंज आते हैं। यहाँ आकर उन्हें पता चलता है कि कांग्रेस अपने मूल्यों और आदों से भटक गई है।

    रामखेलावन यादव

    मेरीगंज के यादव टोली के मुखिया, जो इस गाँव के समृद्ध किसानों, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद, रामकिरपाल सिंह और शिवशंकर सिंह की पंक्ति में गिने जाते हैं।

     

    यशपाल : झूठा सच

    यशपाल

    जन्म : 3 दिसंबर 1903, फ़िरोज़पुर छावनी (पंजाब)

    उपन्यास : दिव्या, देशद्रोही, झूठा सच, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, क्यों फँसें (इसका पहला खंड सन् 1958 और दूसरा सन् 1960) में प्रकाशित हुआ।

    'झूठा सच' के समर्पण में यशपाल ने दो पक्षों को ही आमने-सामने रखकर उपन्यास के नामकरण की ओर संकेत करते हैं। एक ओर जनसमुदाय है जो सदा झूठ से ठगा गया है और दूसरी ओर झूठ का व्यवसाय करने वाले नेता है, जिनके द्वारा झूठ से छली जाकर भी जनता सच के प्रति अपनी निष्ठा और उसकी ओर बढ़ने का साहस नहीं छोड़ती।

    'झूठा सच' के प्रथम भाग 'वतन और देश' का आधार 1943 से लेकर 1947 तक के राजनीतिक धरातल पर सामाजिक घटनाएँ हैं। मुख्य कथा-प्रसंग 1947 का ही है। यह वह समय था जब देश दो भागों में बाँटा गया था।

    सीमावर्ती प्रदेशों में भी साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे। परिणामस्वरुप वहाँ के सर्वसाधारण का जीवन विषाक्त, त्रस्त और अस्त-व्यस्त हो गया था। काल की दृष्टि से ऐसे उपन्यास की कथावस्तु के लिए इससे अधिक प्रभावपूर्ण और करुण-समय शायद ही और कोई हो सकता। 'झूठा सच' में देश विभाजन की वीभत्स और करुण घटनाओं का सजीव चित्रण हुआ है।

    यह उपन्यास दो भागों 'वतन और देश' तथा 'देश का भविष्य' में पूर्ण हुआ है।

    प्रथम भाग 'वतन और देश' 1958 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा भाग 'देश का भविष्य' जनवरी 1960 में प्रकाशित हुआ।

    'झूठा सच' राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक तीनों ही दृष्टियों से विशेष महत्व रखता है। पूर्वार्द्ध 'वतन और देश' का आधार सन् 1947 की क्रांति है जिसके परिणामस्वरुप लाखों हिंदुओं तथा मुसलमानों को दुःख सहना पड़ा और वे घर बेघर हो गए। द्वितीय भाग 'देश का भविष्य' देश के विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान से आए हिंदुओं की दशा, उनका रहन-सहन, संपूर्ण देश का निर्माण और उन्नति, जनता की आशाओं तथा विचारों की आधारशिला पर निर्मित स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचायक है।

    प्रमुख पात्र :

    जयदेव पुरी

    जयदेव पुरी मास्टर रामलुभाया का पुत्र था। एक निर्धन अध्यापक का पुत्र होने के कारण वह भी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाला युवक था। सन् 1941 में वह एम.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था। युद्ध विरोधी आंदोलन में भाग लेने के कारण वह जेल भेज दिया गया था। उसका हृदय युद्धकाल में अपने परिवार की आर्थिक दशा से विदीर्ण था परंतु वह देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान से मुँह न मोड़ सका। जेल जाते समय जयदेव पुरी को विश्वास था कि वह शीघ्र ही स्वतंत्र देश में जेल से स्वतंत्र होगा। उस समय देश के दुःखों के साथ उसके अपने दुःख भी दूर हो जाएँगे।

    मुलतान जेल में रहकर पुरी ने अपना समय पढ़ने लिखने में व्यतीत किया। जेल जाने से पूर्व वह प्रथम श्रेणी में एम.ए. कर किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर होने की कामना किए बैठा था। साहित्य के क्षेत्र में भी वह प्रसिद्ध होने का इच्छुक था। विद्यार्थी काल में ही उसकी कुछ रचनाएँ, विशेष रूप से कहानियों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। जेल में पुरी अपना समय व्यर्थ की बातों में नष्ट न कर अध्ययन करता रहता। उसने अपनी 13 कहानियों का एक संग्रह भी तैयार कर लिया था। 1945 में वह जेल से छूटा। वह अँग्रेज़ों की विजय के उपलक्ष्य में जेल से छूटा था। देश को स्वतंत्रता नहीं मिली किंतु जेल से मुक्ति पाकर जयदेव को संतोष और उत्साह का ही अनुभव हुआ।

    जेल से छूटने पर उसने अपने घर की दयनीय दशा देखी। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न थी। महँगाई और कंट्रोल ने अलग दुःखी कर रखा था। चीनी ख़रीदने दो घंटे में खड़ा होना उसे बुरा लगा। वह देश की स्वतंत्रता के लिए जूझने वाला युवक आज सेर भर चीनी के लिए भीड़ के धक्कम धक्कों में कैसे खड़ा रह सकता था?

    जयदेव ने बचपन से निर्धनता देखी थी। जेल से लौटकर दारिद्रय का वह भयंकर रूप उसे असह्य लगा। उसने आगे पढ़ने का विचार त्याग दिया। राजनीतिक अपराध में जेल जाने से उसे सरकारी नौकरी मिलना भी संभव न था। वह अपने पाँव पर खड़े होने की चिंता करने लगा।

    जयदेव पुरी बुद्धि और प्रतिभा पाकर भी कद में कुछ छोटा था। कहानीकार के अतिरिक्त पुरी एक अच्छा अनुवादक भी था।

    पुरी ने अपनी रूचि तथा आर्थिक स्थिति ठीक करने के कारण 'पैरोकार' में उप-संपादक का कार्यभार संभाल लिया था।

    डॉ. प्राणनाथ

    डॉ. प्राणनाथ को मास्टर रामलुभाया ने बचपन में आठ वर्षों तक पढ़ाया था। बाद में डॉ प्राणनाथ आक्सफ़ोर्ड से राष्ट्रीय अर्थशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि लेकर 1919 में लौटा था। ब्रिटिश इकानामिस्ट में उसके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। बड़े-बड़े ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों ने उसे 'जीनियस' कहकर उसकी सूझ की प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों 'टोरी' और 'डंकिन' आदि से तुलना की थी। पंजाब यूनिवर्सिटी ने उसे यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर नियुक्त कर लिया था। डॉ. प्राण जयदेव से केवल छः सात वर्ष ही बड़ा था परंतु जयदेव एम.ए. की तैयारी के लिए उसके लेक्चर सुनने जाता था। युद्ध काल में पंजाब के गवर्नर ने प्रोफ़ेसर प्राण को आर्थिक विषयों के लिए सरकारी परामर्शदाता नियुक्त कर दिया था।

    सोमराज

    लाला सुखलाल साहनी का पुत्र सोमराज बिगड़े हुए, आवारा ढंग के अमीर घरानों के लड़कों का प्रतिनिधित्व करता है। बी.ए. में बार-बार फेल होने के बाद फिर वह परीक्षा में नक़ल करता हुआ पकड़ा गया। उसकी एक पत्नी मर चुकी थी। उसके दूसरे विवाह के लिए उसकी माँ जयरानी ने प्रयत्न किया और तारा से उसकी सगाई हो गई।

    पंडित गिरधारीलाल

    कनक के पिता पंडित गिरधारीलाल अनुभवी, चतुर, तीक्ष्ण बुद्धि तथा व्यावहारिक, प्रेस के मालिक, अच्छी आर्थिक स्थिति के व्यक्ति है।

    पंडित गिरधारीलाल लड़कियों की स्वतंत्रता के समर्थक हैं। यही कारण है कि गिरधारीलाल जी लड़कियाँ, कांता, कनक और कंचन बचपन से मुक्त वातावरण में पली थी। उन्हें लड़कों के सामने सिमिट, सकुचाकर चुप हो जाने का अभ्यास न था। पंडित गिरधारीलाल जयदेव पुरी का आदर करते हैं। उसकी लिखी कहानियों तथा लेखों की सराहना करते हैं।

    महेन्द्र नैयर

    नैयर कनक का बहनोई है। वह सफल वकील है। नैयर तीव्र बुद्धि, स्पष्टवक्ता, गहरी दृष्टि का व्यक्ति है। नैयर को अपनी साली कनक के प्रति विशेष ममता है। कांता से विवाह हो जाने पर नैयर कनक और कंचन के लिए भाई, जीजा और मित्र सभी कुछ बन गया था।

    तारा

    तारा मास्टर रामलुभाया की पुत्री और जयदेव पुरी की बहन है। उसके रूप-रंग के विषय में शीलो की माँ (तारा की ताई) का कथन दृष्टव्य है—सच मानो लड़की के नैन-नक़्श हज़ारों में एक हैं, हाथ लगे से मैली होती है। आँखें मानो आम की फाँके हैं...बिल्कुल छमक सी, दसवीं में पढ़ रही है। पढ़ाई में सदा अव्वल आती है। मेरी देवरानी तो, बेचारी...।

    कनक

    कनक 'नया हिंदी पब्लिकेशन के मालिक पंडित गिरधारीलाल की मँझली लड़की थी। कनक ने सन् 1942 के आंदोलन में भी भाग लिया था। वह लाहौर के उस फैशनेबिल नगर में भी खादी की साड़ी पहनती थी। कनक की ओर पुरी का आकर्षण उसके सौम्य रूप और सरल व्यवहार के कारण ही बढ़ा। उर्मिला के व्यवहार से पुरी के मन में लड़कियों के प्रति जो विरक्ति उत्पन्न हुई थी उसे कनक की प्रतिभा और संयमित व्यवहार ने पुरी के मन से ऐसे दूर कर दिया जैसे मई-जून के झुलसे मैदान की विरूपता को सावन-भादों की वर्षा दूर कर देती है। यह नहीं था कि उससे पूर्व पुरी किसी लड़की के रूप लावण्य के प्रति आकर्षित हुआ ही नहीं था परंतु कनक के समीप्य से वे ओछी स्मृतियों ऐसे घुल गई, जैसे सूर्योदय हो जाने पर उषा का धुँधलका लोप हा जाता है।

    उर्मिला

    उर्मिला लाला वाधवामल नारंग की पुत्री थी। वह मैट्रिक की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होकर स्कूल छोड़ बैठी थी। बिना पढ़ी लड़की के विवाह में कठिनाई होने से वे उसकी पढ़ाई के विषय में चिंतित थे। नख-शिख के अनुपातों से उसे रूपवती नहीं कहा जा सकता था। चेहरा गोल, गर्दन कुछ छोटी, नाक भी बखान के योग्य नहीं परंतु उजला, सुनहरा, गोरा रंग, उड़े उड़े से कोमल नूरे सुनहरे केश और बड़ी-बड़ी कौड़ियों जैसी आँखों से आँखें मिल जाने पर दृष्टि सहसा न हट पाती। उसके आकर्षण के मोह में रूप की परख की चेतना नहीं रह पाती थी। तिस पर उसका बढ़-चढ़कर कर बोलना।

     

    अमृतलाल नागर : मानस का हंस

    अमृतलाल नागर 

    जन्म : 17 अगस्त 1916, गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश

    उपन्यास : महाकाल (1947) (1970 से 'भूख' शीर्षक प्रकाशित), बूँद और समुद्र (1956), शतरंज के मोहरे (1959), सुहाग के नुपूर (1960), अमृत और विष (1966), सात घूँघट वाला मुखड़ा (1968), एकदा नैमिषारण्ये (1972), मानस का हंस (1973), नाच्यौ बहुत गोपाल (1978), खंजन नयन (1981), बिखरे तिनके (1982),अग्निगर्भा (1983), करवट (1985), पीढ़ियाँ (1990)।

    कथा-सूत्र :

    कवि तुलसीदास की जीवनी को उपन्यास के रूप में ढालने का कार्य उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने किया है। सन् 1972 में मानस चतुश्शती के दिन यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था। अभागे मान कर त्यागे गए बालक रामबोला से महाकवि तुलसीदास तक की संघर्ष, अपमान, उपेक्षा, दृढ़ निश्चय, प्रतिभा, जिजीविषा और अपने आराध्य राम में अटूट आस्था से भरी इस कथा में मनुष्य के उत्कर्ष-अपकर्ष, सत्य-असत्य, रूढ़ प्रगतिशील सभी रूपों को देखा जा सकता है।

    अमृतलाल नागर ने इस उपन्यास में महाकवि, महात्मा तुलसीदास के भीतर एक सहज, साधारण मनुष्य को स्थापित कर दिया है। एक ऐसा व्यक्ति जो सामान्य मनुष्य की तरह जाति-धर्म-वर्ग के बंधनों का तिरस्कार कर एक युवती से टूटकर प्यार करता है। जो आश्रम में आने वाली स्त्रियों के आकर्षण को अनुभव करता है। एक सामान्य मनुष्य की तरह गृहस्थ होने पर पत्नी और बच्चे के साथ अपने भविष्य को सुरक्षित करने का प्रबंध करता है। जो अपमान, उपेक्षा और विरोध के विष का आचमन कर भक्ति, श्रद्धा, मनुष्यता में अटूट विश्वास के अमृत को साहित्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का काम करता है। इस उपन्यास में अमृतलाल नागर इतिहास, कल्पना, जनश्रुतियों के साथ-साथ तुलसीदास के साहित्य को कथा का आधार बनाते हैं।

    उपन्यास के पात्र :

    उपन्यास के प्रमुख चरित्रों में तुलसीदास, रत्नावली, मोहिनी और बेनीमाधव हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण पात्रों में पार्वती अम्माँ, रामू, मेघा भगत आते हैं।

    तुलसीदास

    गोस्वामी तुलसीदास एक ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व हैं और 'मानस का हंस' उपन्यास के केंद्रीय पात्र हैं। उपन्यास की संपूर्ण कथा उनके आस-पास घूमती है। तुलसी के चरित्र की रचना में अमृतलाल नागर ने उनके साहित्य, जनश्रुतियों और इतिहास को आधार बनाया है। उपन्यास के आमुख में उन्होंने लिखा है—उपन्यास को लिखने से पहले मैंने 'कवितावली' और 'विनयपत्रिका' को ख़ासतौर पर पढ़ा। 'विनयपत्रिका' में तुलसी के अंतःसंघर्ष के ऐसे अनमोल क्षण संजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढाँचा खड़ा करना मुझे श्रेयस्कर लगा।

    'रामचरितमानस' की पृष्ठभूमि में मानसकार की मनोछवि निहारने में भी मुझे 'पत्रिका' से ही सहायता मिली। 'कवितावली' और 'हनुमानबाहुक' में ख़ासतौर से और 'दोहावली' तथा 'गीतावली' में कहीं-कहीं तुलसी की जीवन-झाँकी मिलती है। मैंने गोसाईं जी से सम्बंधित अगणित किंवदंतियों में केवल उन्हीं को अपने उपन्यास में स्वीकारा है जो कि इस मानसिक ढाँचे पर चढ़ सकती थीं।

    रत्नावली

    'मानस का हंस' महाकवि तुलसीदास का जीवनपरक आख्यान है। रत्नावली, तुलसीदास की पत्नी हैं। तुलसीदास के जीवन में रत्नावली का प्रवेश मानसिक, आर्थिक, भावात्मक, बौद्धिक और सामाजिक स्थिरता लेकर आता है।

    मोहिनी

    'मानस का हंस' के स्त्री पात्रों में मुख्य पात्र मोहिनी का है। नगर के कोतवाल की रक्षिता, और ईश्वर भजन गायन में पारंगत मोहिनी युवा तुलसीदास के जीवन में यौवन, प्रेम और अनुराग का दीपक है। उपन्यास में युवा तुलसी के जीवन में मोहिनी की उपस्थिति महाकवि तुलसी को सहज रूप में प्रस्तुत करती है। तुलसीदास का मोहिनी के प्रति आकर्षण तुलसीदास के चरित्र को सहज मानव रूप में प्रस्तुत करने में सहायक है।

    बेनीमाधव दास

    'मानस का हंस' में बेनीमाधव दास इतिहास और कल्पना से सृजित पात्र हैं। महाकवि तुलसीदास की जीवनी के लेखक बेनीमाधव दास का अधिक परिचय इतिहास में नहीं मिलता परंतु उपन्यास में निरंतर बेनीमाधव दास की उपस्थिति बनी रहती है। बेनीमाधव अपने गुरु तुलसीदास के पदचिह्नों पर चलना चाहते हैं। राम की भक्ति में पूर्ण लीन रहना चाहते हैं, परंतु राम की भक्ति और जीवन के सांसारिक सुख की लालसा बेनीमाधव दास को एक द्वंद्वग्रस्त पात्र बना देती है।

    पार्वती अम्माँ

    पार्वती अम्माँ इस उपन्यास के प्रारंभ में आने वाली महत्त्वपूर्ण स्त्री चरित्र हैं। उपन्यास के प्रमुख चरित्र तुलसीदास को रचने और गढ़ने का दायित्व निभाने वाली पार्वती अम्माँ निश्चय ही एक विशिष्ट पात्र हैं। उपन्यास में पूर्वदीप्ति पद्धति के माध्यम से तुलसीदास, पार्वती अम्माँ का स्मरण करते हैं।

    रामू

    रामू तुलसीदास का शिष्य और भक्त है। वह बाल्यकाल में तुलसीदास के सान्निध्य में आ गया था। उसके व्यक्तित्व में अनेक गुण समाहित हैं। एक ओर वह निस्वार्थ सेवा करने वाला शिष्य भी है तो दूसरी ओर कर्त्तव्यनिष्ठा में उसका साहस अद्वितीय है।

    मेघा भगत

    'मानस का हंस' उपन्यास में राम के एक भावुक भक्त के रूप में मेघा भगत की उपस्थिति दर्ज होती है। अपनी संक्षिप्त भूमिका के बावजूद अपनी भावप्रवणता से मेघा भगत भक्ति का एक अलग सोपान रचते हैं।

     

    भीष्म साहनी : तमस

    भीष्म साहनी

    जन्म : 8 अगस्त 1915, रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में)

    उपन्यास : झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर।

    तमस 1973 ई. में प्रकाशित। सन् 1975 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

    1947 ई. में भारत विभाजन के समय पर आधारित कथानक।

    भारत विभाजन के समय सांप्रदायिक दंगों का विश्वसनीय चित्रण।

    उपन्यास में तात्कालीन भारतीय समाज के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक परिवेश का यथार्थ चित्रण।

    विश्वसनीय और जीवंत वातावरण की निर्मिति।

    कथा-सूत्र :

    'तमस' केवल पाँच दिन की कहानी है। इसका कथा क्षेत्र पंजाब है। कथा का प्रारंभ एक बंद कोठरी में नत्थू द्वारा सुअर मारने की घटना से होता है। नत्थू दो घंटों से उसे मारने की कोशिश करता है। पर सुअर मारना इतना आसान काम नही था। छुरे की नोक चर्बी की तहों को काटकर लौट आती थी, अंतडियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी। लेकिन सुअर को मारना ज़रूरी था। क्योंकि अँग्रेज़ अफ़सर के इशारे पर मुराद अली ने नत्थू को पाँच रुपए देकर सुअर मारने को कहा था। और उसे बताया था कि, डॉक्टरी काम के लिए एक मरा हुआ सुअर चाहिए। लेकिन सुअर को मारकर एक मस्जिद के सामने फेंक दिया जाता है। इसी घटना से सांप्रदायिकता और दंगों का जो भयानक रूप उपन्यास में चित्रित किया है।

    दूसरे दिन सुबह कांग्रेस कमेटी के कार्यकर्ता प्रभात फेरी के लिए इकट्ठा हुए। उनके द्वारा प्रभात फेरी का आयोजन प्रति दिन किया जाता था। आज उन्होंने यह निश्चय किया था कि मुहल्ले की सफ़ाई आवश्यक है जिसके लिए नालियाँ साफ़ करने का निर्णय लिया था। इस कमेटी के सदस्य हैं बख्शी, मेहता, रामदास, कश्मीरीलाल, शंकर, जनरेल आदि। जनरेल पक्का कांग्रेसी है। वह झंडा उठाकर अग्रस्थान प्राप्त कर भाषण देता है। और वे नालियाँ साफ़ करने चले जाते हैं। जब वे मुस्लमान मुहल्ले में आ जाते है, तब वहाँ उनकी प्रशंसा भी की जाती है। लेकिन देखते-देखते वातावरण एकदम बदल जाता है। इधर-उधर से उड़ते हुए पत्थर आकर उनके पास गिरने लगते हैं। मस्जिद की सीढ़ी पर सुअर फेंक दिया था। जिसके परिणामस्वरुप मुसलमानों द्वारा गाय को काटकर उसके अंग धर्मशाला के बाहर फेंक दिए गए। लोगों ने उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की; अब ख़ून की नदियाँ बह जाएगी। शहर पर चीले उड़ेगी आसार बहुत बुरे है।

    सभी ने शांति की कामना की। बुज़ुर्ग लोगों ने सलाह दी अँग्रेज़ अफ़सर के पास जाकर इन दंगों को रोकने की आवश्यकता है। तभी हिंदू और मुस्लिम नेता रिचर्ड की कोठी पर पहुँचते हैं। और शांति स्थापना की माँग करते हैं। लेकिन रिचर्ड इस बात का इंकार करता है। और उन्हें आपस में समझौता कर गांधी तथा नेहरू के पास जाने की सलाह देता है।

    सभी प्रयत्नों के बावजूद जिस बात का डर था वही हुआ। सांप्रदायिकता के नाम पर लोग एक दूसरे का गला घोटने पर तुले हुए थे। मुसलमान अपनी मस्जिद में शस्त्र एकट्ठा करने लगे, तो हिंदू-सिक्ख अपने-अपने गुरुद्वारे में। युवकों को दिक्षा देने का काम प्रारंभ हुआ।

    प्रमुख पात्र :

    'तमस' उपन्यास में पात्रों का बाहुल्य है। अँग्रेज़ी शासन और हिंदू-मुसलमान धार्मिक भावना से निर्माण हुए सांप्रदायिक दंगों के अनुरूप पात्र योजना की गई है।

    रिचर्ड, नत्थू, जनरेलसिंह, बख्शीजी, देवदत्त, रणवीर, शाहनवाज, हरनामसिंह, राजो, मुराद अली जैसे पात्र प्रमुख हैं।

    रिचर्ड

    इन सांप्रदायिक दंगों का प्रमुख कारण है अंग्रेज़ नीति। वहाँ का डिप्टी कमिश्नर रिचर्ड भी इसका एक प्रमुख अंग है। वह अँग्रेज़ अधिकारियों का प्रतिनिधित्व करता है। उसके पास सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि है। वह भारतीय लोगों की अबोधता से पूरी तरह परिचित है। समाज में धर्म को कितना महत्व यह लोग देते हैं वह उसे मालूम है। यह अपनी योजना से हिंदू मुस्लिमों में फूट डालने में कामयाब होता है।

    नत्थू

    'तमस' उपन्यास का दूसरा पात्र है नत्थू जो इस सांप्रदायिक दंगे का उसके अन्जाने में अस्त्र बनाया गया है। अँग्रेज़ों का पिट्ठू मुरादअली नत्थू को झूठ ही कहता है कि हमारे सलत्तोरी साहब को मरा हुआ सुअर चाहिए डॉक्टरी इलाज के लिए। लेकिन असल में वह सुअर मस्जिद के सामने फेंक दिया जाता है। जो सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए कारण बनता है। लेकिन इस कार्य में नत्थू पूरी तरह निर्दोष है। उसे क्या मालूम कि सुअर किस काम के लिए चाहिए? अपने इस कार्य की परिणति देख वह दुविधाग्रस्त बनता है। उसका अंर्तद्वंद्व उपन्यासकार ने प्रभावी रूप में दिखाया है जो मार्मिक है। सुअर मार देने का अपराध बोध उसके मन को मथता रहता है। आशंका और निराशा से भरा उसका मन भयानक भयग्रस्त बनता है। वह स्वयं को इस दंगे का मूल समझ बैठता है। लेकिन उसकी पत्नी उसे समझा देती है।

    जरनैलसिंह

    'तमस' उपन्यास में जरनैल का चरित्र भी महत्वपूर्ण बना है। जरनैल काँग्रेस का सक्रिय नेता है। वह आदर्श गुणों से युक्त है। वह स्पष्टवक्ता है। उसकी उम्र पचास साल के आस-पास है। उसका न कोई घर था, न बीबी बच्चे थे। हमेशा फटे-पुराने कपड़े पहनता था। पैरों में फटी स्लीपर। जूतों के उपर छः इंच पर ख़ाकी पलतून और ऊपर ख़ाकी कोट, सिर पर गांधी टोपी पहनता था। शरीर सूखा हुआ था। आवाज़ उसकी खोखली फुसफुसाती और बारीक थी। घनी भौहों के बीच छोटी-छोटी आँखे थी। बग़ल में हमेशा छोटा बेंत दबाए यह घुमता रहता था।

    लेखक ने जरनैल का वर्णनात्मक प्रत्यक्ष पद्धति से बड़ा प्रभावी चित्रण किया है। एक देशभक्त, सीधे, सरल स्वभाव वाले व्यक्ति की विडंबना का सजीव चित्रण किया है। जरनैल की उम्र पचास के उपर रही होगी पर बरसों की जेल के बाद उसके शरीर में कुछ रह नही गया था।

    बख्शी जी

    बख्शी जी जाति से मुसलमान है। लेकिन उनके मन में कांग्रेस के प्रति निष्ठा है। वह बुज़ुर्ग, तजुर्बदार, शांत, गंभीर स्वभाव वाले व्यक्ति है। गांधीजी की अहिंसा वृत्ति से प्रभावित है। जातीय भेदभाव मिटाने के लिए वे विशेष कार्य करते है। वे ज़िला काँग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी है। उनकी देह तो शिथिल है, लेकिन मन उत्साही है। प्रभात फेरी, तामीरी कार्य करने लिए सब से आगे आते थे। झाड़ू हाथ में लेकर आँगन बुहारते है, नालियाँ साफ़ करते है।

    देवदत्त

    देवदत्त साम्यवाद को स्वीकारने वाला साहसी युवक है। वह माँ-बाप का लाडला बेटा है। माँ चाहती है कि इस दंगों, फिसादों में वह घर पर ही बैठे, कहीं बाहर नहीं चला जाया। लेकिन वह मानता नहीं है, उसके पिता की प्रतिक्रिया है कि सभी गालियाँ देते है, न काम, न घाम। दो-दो पैसे के पौडियों, मज़दूरों, कुलियों को इकट्ठा करता फिरता है, उन्हें लेक्चर झाड़ता फिरता है, हरामी, मुँह पर दाढ़ी नहीं उतरी, लीडर बन गया है, सुअर का बच्चा...। शहर में जो तनाव है उसे शांत करने की कोशिश वह करता है।

    रणवीर

    रणवीर हिंदू युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाला पात्र है। उम्र उसकी छोटी है। आँखों में कुतूहल और सरल विश्वास है। वह उत्साही दृढ़ संकल्पी है। अपने बचपन में उसने अनेक शूर वीरों की कहानियाँ सुनी थी। रणवीर के वर्णन में उसकी प्रभावी, वीरत्व भरी आकांक्षा का प्रभावी चित्रण किया है। रणवीर शत्रू पर हल्ला किस तरह किया जाता है यह जानता है। उसके मास्टर ने उसे सभी जानकारी दी है।

    शाहनवाज

    शाहनवाज मुसलमान है। अमीर ख़ानदान का है और अमीर लोगों से ही उसकी दोस्ती है, चाहे वह हिंदू क्यों न हो। उसके मन में ग़रीबों के प्रति किसी भी प्रकार की दया माया नहीं है। इस नफ़रत की आग में झुलसते हुए श्रीमंत हिंदू को बचाने की कोशिश तो वह करता है, लेकिन उस हिंदू नौकर के साथ बुरा व्यवहार करता है। लेखक इस पात्र के माध्यम से समाज में अनेक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का चित्रण करना चाहता है। ऐसे लोगों का राजनीति एवं धार्मिक बातों से कोई लेन देन नहीं होता लेकिन अमीर ग़रीब से होता है।

    राजो

    'तमस' उपन्यास में स्त्री पात्र के रूप में 'राजो का जो चरित्रांकन हुआ है वह मानवीय गुणों का परिचय देता है। राजो के माध्यम से लेखक ने स्पष्ट किया है कि मानवता पूरी तरह मरती नहीं है किसी न किसी आदमी के दिल में उसकी छूट-पूट किरन दिखाई देती है। वह मुसलमान है लेकिन उसका मन धर्मनिरपेक्ष है। वह सिख दांपत्य को शरण देती है, उनकी रक्षा करती है, उनके माँगल्य की कामना करती है। राजो का चरित्र आदर्शगुणों से युक्त है।

    मुरादअली

    'तमस' उपन्यास में भीष्मजी ने मुरादअली का चरित्रांकन 'देशद्रोही' व्यक्ति के रूप में किया है। मुराद अली अँग्रेज़ सरकार का चमचा है। 'देशद्रोही' व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करनेवाला वह एक पात्र है। वह अँग्रेज़ साहब के कहने पर सांप्रदायिक दंगा कराने में सहायक है।

     

    श्रीलाल शुक्ल : राग दरबारी

    'राग दरबारी' का प्रकाशन 1968 ई. में हुआ।

    राग दरबारी आज़ादी के बाद से धीरे-धीरे देश के जीवन से उत्पन्न होने वाली नैतिक गिरावट, स्वार्थपरता, संकीर्ण गुटबंदी, छीना-झपटी, बढ़ती हुई गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार और इन सबसे उत्पन्न व्यापक असुरक्षा की भावना की एक बिंदु पर बड़ी तीखी तस्वीर है।

    1970 ई. में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। कहने को तो इस उपन्यास की कथावस्तु शिवपाल गंज तक ही सीमित है, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु देशव्यापी है। उपन्यास के केंद्रीय चरित्र वैद्यजी हैं। वे बद्री पहलवान और रुप्पन के पिता और रंगनाथ के मामा हैं। पेशे से वैद्य होने के साथ ही वे छंगामल इंटर कॉलेज में मैनेजर, कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डायरेक्टर और अपने दरबारी सनीचर की आड़ में ग्रामसभा के प्रधान भी है। इस प्रकार वे उस राजनीतिक संस्कृति के साक्षात प्रतीक हैं, जो प्रजातंत्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल-फूल रही है। वस्तुतः इस उपन्यास में प्रतीकात्मक-रूप में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में व्याप्त अराजकता, भाई-भतीजावाद, अवसरवादिता, लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, चुनावी छद्म, प्रशासनिक एवं न्यायिक विद्रूप को अत्यंत कौशल के साथ उजागर किया गया है।

    कथा-सूत्र :

    इस उपन्यास का शीर्षक लेखक ने राग दरबारी रखा है। 'राग दरबारी' संगीत का एक राग और धुन है, जो मध्यकालीन सामंतों के दरबार में उन्हें रिझाने के लिए गाया जाता था। लेखक ने राग दरबारी के माध्यम इस संदेश को संप्रेषित करना चाहा है कि सत्ता के साथ जुड़े रहने के लिए एक ख़ास क़िस्म के लोचदार व्यक्तित्व की ज़रूरत होती है, जो अवसर के अनुकूल नया तेवर अपनाता है। उपन्यास के आरंभ में ही व्यवस्था के उस चरित्र को लेखक एक ट्रक के बिंब के माध्यम से रेखांकित करता है। उपन्यास का आरंभिक वाक्य है वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यक़ीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है।

    थाने का ज़िक्र करते हुए उपन्यासकार लिखता है आराम कुर्सी ही नहीं सभी कुछ मध्यकालीन था। तख़्त, उसके ऊपर पड़ा हुआ दरी का चीथड़ा, क़लमदान, सूखी हुई स्याही की दवातें, मुड़े हुए कोने वाले मटमैले रजिस्टर सभी कुछ शताब्दी पुराने दिख रहे थे। उपन्यास के तीसरे भाग में छंगामल विद्यालय इंटर कॉलेज का ज़िक्र आता है जो भ्रष्ट राजनीति और सत्ता के व्याभिचार की रंगभूमि है। शिक्षा की शोचनीय हालत के लिए लेखक, शिक्षक और प्रिंसिपल दोनों को संयुक्त रूप से दोषी मानता है। उद्देश्यहीन शिक्षा, व्यक्तित्व के विकास की अपेक्षा व्यक्तित्व के लिए घातक होती है उसका उदाहरण छंगामल विद्यालय के शिक्षक और छात्र हैं। इस विद्यालय की बागडोर जिन मठाधीश के हाथ में है, वे तथाकथित रूप से सेवक हैं। अँग्रेज़ों के जमाने में अँग्रेज़ों के लिए, देशी हुकूमत के दिनों में देसी हाकिमों को लिए श्रद्धा दिखाते हैं।

    विद्यालय के प्रिंसिपल इन सत्ताधारियों के चाटुकार है। वे वैद्यजी के साथ बैठकर भाँग पीते हैं और स्कूल की राजनीति पर चर्चा करते हैं। वे अवसर को देखकर फ़ायदा उठाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसी क्रम में लंगड़ का अवांतर प्रसंग आता है। वह हमारी न्याय व्यवस्था पर ही नहीं अपनी ज़िद्दी मानसिकता पर भी व्यंग्य करता प्रतीत होता है।

    ग्रामीण और शहरी रिक्शावाला के प्रसंग के बहाने लेखक ने आधुनिकता के विषय में प्रचलित भ्रम को समझाने का प्रयत्न किया है। वास्तव में हमारे समाज में शहरी आधुनिक समझे जाते हैं जबकि यह यथार्थ नहीं है। उपन्यासकार ने शहरी और ग्रामीण मानसिकता को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा है। इसलिए गाँव के प्रति भी उसमें उस प्रकार की मोह या आकर्षण नहीं है। निर्मम होकर लेखक ने ग्रामीण जीवन के विविध पहलुओं को उजागर किया है।

    दुरबीन सिंह के प्रसंग के माध्यम से लेखक ने गाँव समाज के नैतिक पतन का संकेत दिया है। ग्रामीण लोगों में अपराधी को उदात्त हीरो की तरह स्वीकार करने की मानसिकता है। यह हमारे समाज की पतित मनोवृत्ति को सूचित करता है। पढ़े-लिखे लोगों में प्रचलित औपनिवेशिक मानसिकता की भी लेखक आलोचना करता है।

    इस संदर्भ में शिवपालगंज में रंगनाथ का टूरिस्टों के समान आगमन होता है। कॉलेज में मैनेजर के चुनाव के प्रसंग के बहाने लेखक लोकतंत्र की वास्तविकता को पाठक के सामने रखता है।

    कॉलेज की सालाना बैठक में मैनेजर और प्रिंसिपल के चुनाव की योजना वैद्यजी ने बनाई। गयादीन की चुनाव के विषय में धारणा है कि चुनाव से कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होता, केवल सत्ता का हस्तांतरण होता है। लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी विसंगति है। लेकिन कॉलेज के इस चुनाव में सत्ता हस्तांतरण का भी प्रश्न नहीं उठा। बाहुबल से वैद्यजी ने प्रतिरोधी आवाज़ को चुप कर दिया। छोटे पहलवान बलराम सिंह और बद्री पहलवान ने ऐसा इंतज़ाम किया कि चुनाव किसी संघर्ष के बिना संपन्न हो गया।

    जोगनाथ गयादीन के घर चोरी के ज़ुर्म में गिरफ़्तार होता है। परंतु उसके ख़िलाफ़ पुलिस के पास एक भी सबूत नहीं हैं। लेकिन फिर भी नया दरोगा उसे ग़ैर ज़मानती के तहत छोड़ने से इंकार करता है। इस प्रकार वह वैद्यजी की बातों की प्रकारांतर से अवहेलना भी करता है। उस दरोगा का शिवपालगंज थाने से स्थानांतरण हो जाता है। यह वैद्यजी के सत्ता की ताक़त है, जो बिना कुछ बोले अपने अपमान का प्रतिशोध ही नहीं लेते हैं अपितु अपना वर्चस्व भी स्थापित करते हैं।

    शिवपालगंज के ग्राम प्रधान के चुनाव की तैयारी हो रही है। जनता हर उम्मीदवार को वोट देने का आश्वासन देती है। वास्तव में उसमें इतनी ताक़त ही नहीं है कि प्रत्याशियों के मुँह पर वोट नहीं देने की बात कह सके।

    शिवपालगंज में चुनाव जीतने की तीन तरकीबें हैं—एक रामनगर वाली, दूसरी नेवादावाली और तीसरी महिपालपुर वाली। रामनगर वाली तरकीब में ग्राम प्रधान पुलिस की सहायता से सत्ता हथियाता है। नेवादावाले तरीक़ों में धर्म को आधार बनाया जाता है। महिपालपुर वाली तरकीब में चुनाव अधिकारी के सहयोग से चुनाव जीता जाता है। सनीचर किसी भी तरीक़े से चुनाव जीत जाता है। वह अब वैद्यजी की सत्ता को और अधिक मज़बूत बनाता है। वह स्कूल की राजनीति में भी हस्तक्षेप करता है। स्कूल की भयानक गुटबाजी अब व्यक्तिगत लाँछना पर उतर चुकी थी। खन्ना मास्टर पर चरित्रहीनता के आरोप लगाए गए थे। डिप्टी डायरेक्टर एजुकेशन का दौरा होने वाला था। लेकिन वह अंत तक नहीं आता है। अंत में वैद्यजी को ही निर्णय लेना पड़ता है। उनके निर्णय के अनुसार खन्ना मास्टर को स्कूल छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। खन्ना मास्टर के पद के लिए रंगनाथ का नाम प्रिंसिपल प्रस्तावित करता है। इस प्रसंग में लोकतंत्र, शिक्षा, समाज, सत्ता, गाँव की भ्रष्ट होती मानसिकता को लेखक ने बख़ूबी उकेरने का प्रयत्न किया है।

    बेला, रुप्पन और बद्री पहलवान के प्रसंग के द्वारा वर्चस्ववादी मानसिकता की व्यापकता को उठाया गया है। गाँव समाज में गयादीन जैसे धनवान किंतु निर्बल आदमी का इज़्ज़त बचाना मुश्किल हो गया है। शिवपालगंज में राजनीति केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थी अपितु व्यक्तिगत और निजी जीवन में भी उसका दुरुपयोग होने लगा। उपन्यास के अंत में वैद्यजी की गुप्त कामना प्रकट होती है। वे स्वयं राजनीति से संन्यास लेकर बद्री पहलवान को सहकारी संघ के पद पर तथा रुप्पन बाबू को कॉलेज के मैनेजिंग का भार देना चाहते थे। अब वे इन दोनों अभिलाषाओं का भार बद्री पहलवान को ही सौंपने के लिए कृत संकल्प हैं। इस प्रकार से उपन्यास में पीढ़ी परिवर्तन होता है।

    प्रमुख चरित्र :

    उपन्यास में आए सभी पात्रों की अपनी-अपनी अलग कहानी है। रुप्पन, बद्री पहलवान, छोटे पहलवान, गयादीन, रामाधीन भीखम खेड़वी, जोगनाथ, सनीचर, लंगड़ आदि सभी पात्र अपनी-अपनी कहानी लिए हुए हैं। इनमें वैद्यजी और छोटे पहलवान अपने पूरे ख़ानदान की कथा के साथ उपस्थित हैं। प्रिंसिपल और खन्ना मास्टर की अलग ही कहानी है। सब मिलाकर 'राग दरबारी' एक बृहद चरित्रोपाख्यान के रूप में हमारे सामने आता है।

    वैद्य जी

    मुखौटों के बीच असलियत की पहचान को असंभव बनाने वाले वैद्य जी मात्र एक व्यक्ति नहीं, संस्था हैं। वे गाँव के कुलपूज्य ब्राह्मण हैं, जान-माने वैद्य हैं, छंगामल इंटर कॉलेज के मैनेजर हैं, कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं और अब गाँव-पंचायत को हथियाने के लिए लपक रहे हैं। खान-पान में विशुद्ध शाकाहारी और पोशाक में खद्दर की धोती, कुर्ता, सदरी, टोपी, चादर में वे भव्य मूर्ति के रूप में दिखाई देते हैं।

    वैद्यजी अँग्रेज़ी हुकूमत के समय अँग्रेज़ों के विश्वास पात्र बनकर जापान से लड़ने के लिए सेना में भारतीयों की भर्ती कराते थे। हुकूमत का कृपा-पात्र बनकर जज की अदालत में 'जूरी' और 'असेसर' बनकर, दीवानी मुक़दमों में जायदाद के सिपुर्ददार का काम करते थे। गाँव के ज़मींदारों में लंबरदार का दर्जा उन्हें मिला हुआ था। स्वातंत्र्योत्तर भारत में वे देशी शासकों के फ़रमाँ-बरदार सेवक बनकर रातोंरात अपने राजनीतिक गुट में सैकड़ों सदस्य बनाने लगे। इस प्रकार वे वर्तमान शासन-सत्ता के अनिवार्य स्तंभ बन गए थे।

    रंगनाथ

    'राग दरबारी' में रंगनाथ को भारतीय बुद्धिजीवियों के रुग्ण प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास का आरंभ और अंत भी रंगनाथ के शिवपाल गंज में प्रवेश और पलायन से होता है। इसलिए वह शिवपाल गंज की समस्त गतिविधियों का द्रष्टा भी है। वह वैद्यजी का भाँजा है, इसलिए सर्वत्र उसकी पूछ और सम्मान है।

    रुप्पन

    अठारह वर्षीय रुप्पन छंगामल इंटर कालेज की दसवीं का छात्र नेता और कॉलेज के मैनेजर वैद्यजी का पुत्र है। केवल पढ़ाई लिखाई को छोड़कर शेष सभी क्षेत्रों कालेज, थाना को़ऑपरेटिव से लेकर गाँव के 'गॅजहों' तक में उसका बोल-बाला है। उद्दंडता और अनुशासनहीनता के रोग से ग्रस्त इसे विद्रोही युवापीढ़ी का प्रतिनिधि बनाकर उपन्यासकार ने प्रस्तुत किया है।

    बद्री पहलवान और छोटे पहलवान

    'राग दरबारी' के बद्री पहलवान वैद्य जी के बेटे हैं और छोटे पहलवान के गुरु हैं। उनके अखाड़े से निकले शिष्यों का एक बड़ा जाल आस-पास के गाँवों में फैला हुआ है। चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि के मामलों में फँसे अपने गुंडा-बदमाश शिष्यों के बचाव और जमानत के लिए उन्हें काफ़ी श्रम करना पड़ता है। दुनिया में कल्ले के ज़ोर (बाहुबल) को ही वे सबसे बड़ी ताक़त मानते हैं।

    छोटे पहलवान बद्री के 'पालक-बालक' है। किंतु इसके साथ ही वे एक ख़ानदानी आदमी (हरामी) है। उन्हीं की ज़ुबानी उपन्यास में उनके ख़ानदान का ठोस इतिहास प्रस्तुत हुआ है।

    रामाधीन भीखमखेड़वी

    रामाधीन शिवपालगंज से लगे एक गाँव भीखमखेड़ा के रहने वाले थे। यह गाँव अब कुछ झोपड़ों, माल विभाग के काग़ज़ात और रामाधीन की पुरानी शायरी में ही सुरक्षित था। बचपन में काम-धाम की तलाश में वे कलकत्ता पहुँच गए थे। वहाँ एक व्यापारी के यहाँ पत्र वाहक का कार्य करते हुए बाद में उसके साथ मिलकर कारोबार शुरू कर दिया। अंत में उस कारोबार के मालिक बन बैठे। कारोबार अफ़ीम का था। कच्ची अफ़ीम कलकत्ते के व्यापारियों के पास पहुँचाने की आढ़त उनके पास थी। पैसा अच्छा था। लेकिन ग़ैर-कानूनी काम होने से वे पकड़े गए और दो साल की सज़ा हो गई। सज़ा के बाद वह काम चला पाना संभव न देख वे पुनः भीखमखेड़ा वापस आ गए। अपने बचे-खुचे पैसे से एक घर बनवाया और थोड़ी ज़मीन लेकर खेती करने लगे। तभी ग्रामीण क्षेत्रों में नई पंचायतें बनीं। अपने चचरे भाई को प्रधान बनवाकर गाँव पंचायत की ज़मीन के पट्टे का शुल्क स्वयं लेने लगे।

    धीरे-धीरे वैद्यजी की फितरत और आधुनिक सभ्यता के असर से वे भी गुटबंदी के शिकार हुए। ग्राम पंचायत की आड़ में कोऑपरेटिव यूनियन की ओर उनका थोड़ा झुकाव तो था ही, खन्ना-मालवीय जैसे मास्टरों के दुख-दर्द से प्रेरित होकर छंगामल इंटर कॉलेज की प्रबंध समिति में भी उन्होंने प्रवेश पा लिया था। कुछ हो-न-हो कोऑपरेटिव इंस्पेक्टर और डिप्टी डाइरेक्टर एजूकेशन के माध्यम से वे वैद्यजी की निद्रा में किंचित खलल डालने में भी सफल हो गए थे।

    सनीचर

    'राग दरबारी' उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पात्र सनीचर है, जिसका मुख्य काम वैद्यजी की बैठक में सुबह-शाम भंग घोटना था।

    लंगड़

    लंगड़ 'राग दरबारी' का एकमात्र ऐसा पात्र है, जिसे रचनाकार के साथ ही समूचे पाठक समुदाय की पूरी सहानुभूति प्राप्त हुई है।

    लंगड़ को दीवानी मुक़दमे के सिलसिले में एक पुराने मुक़दमे की नक़ल लेनी थी। इसके लिए नक़लनबीस ने पाँच रुपए माँगे तो लंगड़ ने कहा कि रेट दो रुपए है। इस पर दोनों में हुज्जत हो गई। नक़ल नबीस ने प्रतिज्ञा कर लिया कि बिना रिश्वत के वह नक़ल कायदे से देगा और लंगड़ ने भी कंठी छूकर प्रतिज्ञा की कि वह भी कायदे से ही नक़ल लेगा।

    प्रिंसिपल साहब और खन्ना मास्टर

    प्रिंसिपल साहब और खन्ना मास्टर स्वातंत्र्योत्तर शिक्षा व्यवस्था के यथार्थ को पूरी तरह उद्घाटित करते हैं। लेकिन शिक्षा व्यवस्था का पूरा वृत्त कॉलेज मैनेजर वैद्यजी को मिलाकर ही पूरा होता है। प्रिंसिपल साहब वैद्यजी की बैठक में नित्य उपस्थित होकर माँग मानते हैं, उनकी चापलूसी करते हैं और खन्ना तथा उसके गुट के मास्टरों की शिकायत करते हैं। उनकी सबसे बड़ी योग्यता कॉलेज में गुटबंदी, मारपीट, गाली-गलौज, गुंडई, नोटिस  बरख्वास्तगी, आतंक, नंगई आदि की समुचित व्यवस्था है। खन्ना मास्टर आम अध्यापक समुदाय के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें प्रिंसिपल की ज़्यादतियाँ स्वीकार नहीं हैं। अपने सक्रिय विरोध के कारण विद्यार्थियों की ओर भी वे समुचित ध्यान नहीं दे पाते। वे किसी तरह वैद्यजी के पुत्र छात्र नेता रुप्पन और रंगनाथ की सहानुभूति जुटा लेते हैं। इसी के सहारे प्रिंसिपल और उनके गुट के विरुद्ध मोर्चाबंदी करते हैं।

     

    कृष्णा सोबती : ज़िंदगीनामा

    'ज़िंदगीनामा' उपन्यास दसवें व अंतिम सिख गुरु, गुरु गोविंद सिंह के सुप्रसिद्ध फ़ारसी कथन 'चू कार अज हमां हीलते दरगुज़श्त। हलालस्त बुर्दन ब-शमशीर दस्त' (जब दूसरे सब रास्ते कारगर न हो सकें तो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ तलवार उठा लेना जायज़ है) को समर्पित है।

    उपन्यास का अंत भी उपन्यास के प्रमुख चरित्र शाह जी द्वारा इन्हीं पंक्तियों के उद्धरण से होता है।

    कृष्णा सोबती ने 'ज़िंदगीनामा' की संकल्पना पंजाब के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के रूप में की है। लेखिका ने इतिहास की व्याख्या दस्तावेज़ों के रूप में न करके, जन-सामान्य की सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा की है।

    उपन्यास के आरंभिक अट्ठाइस पृष्ठ कथा से अलग पंजाब का अत्यंत उदात्त और काव्यात्मक रेखाचित्र प्रस्तुत करते हैं।

    उपन्यास में लेखिका के जन्मस्थान अविभाजित पंजाब के अब पाकिस्तान में रह गए ज़िला गुजरात की कथा बयान की गई है। उपन्यास में कथा तो कम है, दृश्यों का एक सतत् क्रम है। लेखिका ने डेरा जट्टा गाँव की यादों को एक संश्लिष्ट दृश्य में बाँधकर प्रस्तुत किया है।

    उपन्यास का आरंभ शरद् पूर्णिमा की रात के ख़ूबसूरत चित्रण से होता है। उसके बाद तो पंजाबी गाँवों में बसे तीनों समुदायों हिंदू, मुसलमान व सिखों की घी-खिचड़ी ज़िंदगी के अनेक चित्र सांस्कृतिक बिंबों द्वारा प्रस्तुत हुए हैं, जिनमें 'त्रिंजन' भी है, लोहड़ी भी, प्रेम कथाएँ भी, ईद और दशहरा भी और पंजाबी का विशेष त्यौहार 'बैसाखी' भी।

    शाह जी के परिवार को कथा के केंद्र में रखकर लेखिका ने अनेकानेक अन्य कहानियाँ भी उपन्यास के कलेवर में सँजो दी है।

    उपन्यास के अंत तक देश के स्वतंत्रता संग्राम की गूँज भी सुनाई देने लगती है। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह, क्रांतिकारी कवि लालचंद 'फलक' और गदर (1914) के चर्चे उपन्यास के अंत तक शुरू हो जाते हैं। 'ज़िंदगीनामा' उपन्यास में वर्णित जीवन का कालखंड 1910 से 1915 के बीच का जान पड़ता है।

    'ज़िंदगीनामा' उपन्यास एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक औपन्यासिक रचना है। इसमें व्यक्ति-कथा कम, संस्कृति-कथा अधिक चित्रित हुई है।

    विशेष कालखंड, चरित्र या परिवेश निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से संकेतित हुए हैं :-

    (i) अविभाजित पंजाब की साँझी जनसंस्कृति का आख्यान ज़िंदगीनामा' उपन्यास के पहले भाग 'ज़िंदा रुख' शीर्षक और लेखिका द्वारा अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में प्रस्तुत 'ज़िंदा रुख' के प्रतीक से यह स्पष्ट है कि 'ज़िंदा रुख' पंजाब की साँझी जन संस्कृति का प्रतीक है।

    (ii) गाँव डेरा जट्टां का आख्यान (ज़िंदगीनामा)

    (iii) स्वतंत्रता संग्राम व देशप्रेम का आख्यान

    (iv) पंजाबी चरित्रों के दुस्साहसिक कारनामों का आख्यान

    (v) शाहों की ज़िंदगी का आख्यान

    'ज़िंदगीनामा' उपरोक्त में से किसी एक का या फिर इन सभी का आख्यान कहा जा सकता है।

    ज़िंदगीनामा : कथाशिल्प

    (i) कथा को विवरण-क्रम के रूप में नहीं, दृश्यावली के क्रम में प्रस्तुत करना।

    (ii) उपन्यास में कथा-वर्णन के लिए चौपाल-चर्चा या मजलिस को प्रमुख कथा-युक्ति के रूप में प्रयुक्त करना।

    (iii) लोकशैली में इतिहास-विवरण अर्थात् मजलिस या चौपाल चर्चा में विभिन्न ऐतिहासिक फ़रमानों को लोक वार्तालाप शैली में विवरण देने की विधि प्रयुक्त करना।

    (iv) उपन्यास में लोकसंस्कृति के विशेष रंग को उघाड़ने के लिए लोकभाषा अर्थात् पंजाबी भाषा का शिल्प के स्तर पर अत्यधिक प्रयोग।

    (v) कथा-विवरण या परिवेश चित्रण में चित्रात्मक शैली का प्रयोग।

    ज़िंदगीनामा मुख्य चरित्र :

    डेरा जट्टां गाँव रूपी ज़िंदगीनामा का केंद्रीय चरित्र विभाजनपूर्व साँझी पंजाबी संस्कृति का प्रतीक चरित्र है।

    उपन्यास की केंद्रीय कथा शाह परिवार के चरित्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है।

    शाह जी

    शाह जी घर के सबसे बड़े और परिपक्व व्यक्ति हैं। वे ही घर के मुखिया भी हैं। अभी संयुक्त परिवार की परंपरा का ही घर में पालन हो रहा है।

    शाह जी के पुरखे सौ रुपया लेकर बाहर से इस गाँव में आए थे व्यापार करने। व्यापार के साथ सूदखोरी करते हुए वे अब तक सैकड़ों बीघा ज़मीन के भी मालिक बन चुके हैं।

    शाह जी व्यवहार में बहुत कुशल व दुनियादार हैं। वे सबके दुःख-सुख में शामिल होते हैं। धार्मिक क्रिया-कलापों में हिस्सा लेते रहते हैं। गाँव की चौपाल भी उनके यहाँ ही जुटती है। एक तरह से गाँव की सर्वाधिक प्रभावशाली हस्ती वही हैं।

    शाहनी

    शाहनी में भारतीय स्त्री के पांरपरिक गुण भरपूर मात्रा में उपस्थित हैं। वह आदर्श पत्नी, आदर्श माँ, आदर्श स्त्री के सभी गुणों से युक्त चरित्र है।

    उसमें बुद्धिमत्ता भी है व भावानात्मकता भी, मोह-ममता भी है व करुणा भी। क्षुद्रता उसके चरित्र में कहीं भी नज़र नहीं आती, शाह जी की वह दूसरी पत्नी है।

    छोटे शाह: काशी शाह

    छोटे शाह काशी शाह, बड़े शाह जी के छोटे भाई तथा व्यापार में उनके सहयोगी हैं। व्यापार का हिसाब-किताब रखने, शहर में मुक़दमों आदि का ध्यान रखने में छोटे शाह की ज़्यादा भूमिका है। छोटे शाह विवाहित हैं और दो पुत्रों के पिता भी बन चुके हैं। पिछले कुछ अर्से से उनका ध्यान अध्यात्म की ओर अधिक हो गया है तथा वे सांसारिक सुखों की ओर से भी विमुख हो गए हैं।

    छोटी शाहनी : बिंद्रादयी

    बिंद्रादयी छोटे शाह काशीशाह की पत्नी व दो बेटों की माँ है। वह अभी युवा है व यौवन का भोग करना चाहती है, किंतु उसका पति काशीशाह शारीरिक सुखों व दुनियावी सुखों से विमुख हो चुका है।

    चाची मेहरी

    चाची मेहरी यानि लड़िक्को उपन्यास की दिलचस्प चरित्र है। उसका विवाह बर्जुगवाल के दीदार सिंह से हुआ था। उसका देवर साहिब सिंह, जो उस समय बच्चा ही था, लड़िक्को भाभी से बहुत ज़्यादा हिला-मिला था। दीदार सिंह की अचानक मौत से मेहरी विधवा हुई तो शाह परिवार के गणपत शाह के मन को भा गई और वह उसे अगवा कर ले आया। मामला अदालत तक गया और मेहरी ने अपने तीन साल के बेवा होने और बालिग होने की बात कह कर गणपतशाह को अपना लिया।

     

    मन्नू भंडारी : आपका बंटी

    जन्म : 3 अप्रैल 1931, भानपुरा, मंदसौर (मध्य प्रदेश)

    उपन्यास : एक इंच मुस्कान, आपका बंटी, महाभोज, स्वामी।

    सन् 1971 में प्रकाशित 'आपका बंटी' आधुनिक जीवन के एकाकी परिवारों में तलाकशुदा माता-पिता की अपनी स्थिति, उनके जीवन में टूटती पुरानी स्थिति और नई बनती स्थिति से पैदा होती विसंगतियों का दंश झेलते बच्चे की पीड़ादायक स्थिति का आख्यान है। बंटी के अवचेतन की पर्तों को उघाड़ने के साथ यह उपन्यास उसके माता-पिता के अकेलेपन और पीड़ा से भी साक्षात्कार कराता है।

    आपका बंटी का कथा-सूत्र :

    'आपका बंटी' उपन्यास का केंद्र बंटी उर्फ़ अरूप बत्रा नामक नौ वर्षीय, चौथी कथा में पढ़ने वाला लड़का है। उपन्यास की घटनाओं का केंद्र भी बंटी है और घटनाओं की प्रतिक्रियाओं का भोक्ता भी वही है।

    यह उपन्यास बाल मनोविज्ञान की अनेक परतों को पाठकों के समक्ष खोलता है। बंटी का जीवन उसके हमउम्र अन्य बच्चों की तरह सामान्य नहीं है। वह भले ही एक संपन्न घर का इकलौता लड़का है पर उसके माँ और पिता कुछ वर्षों से अलग रहते हैं। उसके बालमन पर इस दुख की गहरी छायाएँ विद्यमान हैं।

    सात साल के गृहस्थ जीवन में बंटी के पापा अजय और मम्मी शकुन के बीच अपनत्व विकसित न हो सका। जिसका पूरा असर बंटी के जीवन पर दिखाई देता है।

    बंटी की मम्मी शकुन एक पढ़ी-लिखी, संभ्रांत, आत्मनिर्भर महिला हैं जो एक प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रिंसीपल हैं।

    उसके पिता अलग होकर दूसरे शहर कलकत्ता में रहते हैं और वहाँ किसी कंपनी में मैनेजिंग डॉयरेक्टर हैं।

    बंटी, मम्मी के साथ कॉलेज के आवासीय परिसर में रहता है। घर की देखभाल करने वाली फूफी, बंटी के बहुत निकट है। बंटी के अकेले जीवन में उसके मम्मी-पापा के अतिरिक्त स्नेह के भरे-पूरे क्षण फूफी के कारण ही हैं।

    बंटी की दुनिया बहुत छोटी-सी है। इस छोटी-सी दुनिया में अकेलापन, अभाव और माता-पिता के साथ के लिए बंटी तरसता है।

    बंटी के पापा द्वारा भेजे गए वकील चाचा के घर आने से पता चलता है कि बंटी के मम्मी-पापा के रिश्ते का आख़िरी तंतु भी नष्ट होकर तलाक़ की भेंट चढ़ने वाला है। मम्मी-पापा के तलाक के कुछ दिन बाद वह मम्मी के व्यवहार में एक बड़ा परिवर्तन देखता है। वह ख़ुश रहती हैं। बनाव-शृंगार में उनकी दिलचस्पी बढ़ी है। बंटी के बिना बाहर घूमने भी जाने लगी हैं। बंटी अपनी ममी का स्पर्श, बातचीत और समय सबके लिए तरसता है। मम्मी का अधिकांश समय कॉलेज और उसके बाद डॉ. जोशी के साथ गुज़रने लगता है। बंटी को यह नया परिवर्तन बिल्कुल रास नहीं आता। उसे लगता है मम्मी उससे दूर होती जा रही हैं। मम्मी के जीवन पर बंटी का एकाधिकार जैसे समाप्त होने लगता है। असहाय स्थिति में बंटी न सिर्फ़ घर में उत्पात मचाता है बल्कि घर आए डॉ. जोशी का भी अपमान करता है। वह मम्मी से लड़ता है। ग़ुस्से में तोड़-फोड़ करता है।

    कुछ दिन बाद शकुन का विवाह डॉ. जोशी से हो जाता है। फूफी हरिद्वार चली जाती हैं। डॉ. जोशी एक बड़ी कोठी में अपनी लड़की जोत, लड़के अमित और नौकर के साथ रहते हैं। यह उनका भी दूसरा विवाह है। इस नए परिवेश में आने पर बंटी को परायापन महसूस होता है जैसे किसी चीज़ पर उसका कोई अधिकार ही नहीं।

    शकुन का जीवन भी दो हिस्सों में बँट-सा गया है। यहाँ आकर बंटी का ग़ुस्सा उग्र होता चला जाता है। मम्मी और डॉ. जोशी की नज़दीकियाँ उसे बिल्कुल पसंद नहीं आतीं। वह मम्मी से बदला लेने पर उतारू हो जाता है। डॉ. जोशी के लड़के से हाथापाई करता है। शकुन को परेशान करता है। पापा के पास जाने का मन बनाता है तो दो हिस्सों में बँटी विवश शकुन भी इंकार नहीं करती।

    पापा के साथ बंटी कलकत्ता आ जाता है। इस नए जीवन में डॉ. जोशी की जगह मीरा ले लेती है। मीरा यानी बंटी के पापा की दूसरी पत्नी। अमित की जगह उसका नया भाई चीनू ले लेता है। उसे लगता है पापा भी जैसे मम्मी की भूमिका में उतर आए हैं।

    यहाँ मीरा और पापा के बीच बंटी को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। पापा, बंटी के उचित विकास की दृष्टि से हॉस्टल में उसका दाख़िला करवाना चाहते हैं। बंटी यह नहीं चाहता लेकिन अब किसी भी बात का विरोध करना उसने छोड़ दिया है। बंटी के जीवन में अब न क्रोध है, न रुचियाँ, न दोस्त, न मम्मी।

    हालात उसे अंतर्मुखी बनाते जाते हैं। कक्षा में अव्वल आने वाला बंटी पढ़ाई में भी पिछड़ जाता है।

    बंटी में आया यह परिवर्तन एक बच्चे के जीवन की भीषण यातनाओं का ख़ाका खींचता है। उसके हॉस्टल जाने की तैयारी पूरी होती है। पापा उसके विकास का यही रास्ता चुनते हैं।

    मुख्य चरित्र :

    'आपका बंटी' उपन्यास में मुख्य चरित्र बंटी (अरूप बत्रा), शकुन और फूफी हैं। उपन्यास में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण और केंद्रीय है।

    बंटी

    चौथी कक्षा में पढ़ने वाला बंटी अपने परिवार की प्रतिकूल स्थितियों में पलते हुए भी अपनी उम्र के औसत बच्चों से कहीं अधिक संवेदनशील और कुशाग्र है।

    शकुन

    शकुन एक आत्मनिर्भर स्त्री है। वह पढ़ी-लिखी, संभ्रांत महिला है जो लड़कियों के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की प्रधानाचार्या है।

    फूफी

    'आपका बंटी' उपन्यास में फूफी घर की सबसे जीवंत कड़ी के रूप में नज़र आती हैं। ऐसा महसूस होता है कि शकुन के जीवन की उदासी और बंटी के अकेलेपन को अपने व्यवहार से फूफी संतुलित करके एक दिशा देती हैं। घर में चुप्पी, तनाव के वातावरण को छाँटने वाली एकमात्र पात्र फूफी हैं। यों तो फूफी गृहसेविका हैं परंतु वह उम्र में शकुन से बड़ी हैं और वर्षों से घर को अपनी सेवाएँ देने के कारण घर का अभिन्न अंग हो गई हैं।

    आलोचक निर्मला जैन का कहना है—आठवें दशक में मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' का प्रकाशन साहित्य जगत में एक बड़ी घटना थी। इसका कारण यह था कि तलाक़शुदा दम्पति के बच्चों की समस्या को पूरे विस्तार से परखने का यह पहला मौलिक और उल्लेखनीय प्रयास था। उपन्यास का शीर्षक तो इसके कथ्य की ओर संकेत करता ही था, उसका अंत भी जिस बिंदु पर ले जाकर किया गया है, उससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि समाज की यह ऐसी समस्या है जिसका निश्चित हल किसी के पास नहीं है। हो सकता है कि लेखिका का मंतव्य कुछ ऐसा रहा हो।

    आलोचक बच्चन सिंह ने लिखा है—यह शरतचंद्रीय भावुकता पैदा नहीं करता। यह पाठक को संवेदना के स्तर पर क्षुब्ध करता है। मध्यवर्गीय अहंग्रस्त समाज की दुखती रग पर उँगली रख देता है। पश्चिम के समाज में तलाकशुदा पति-पत्नी में अंतद्वंद्व नहीं मिलेगा, किंतु भारतीय समाज में एक परिस्थिति विशेष का तलाक एक बेहद उलझी व्यथापूर्ण कथा के लिए शब्द छोटे पड़ जाते हैं इसलिए लेखिका ने मौन का सहारा लिया है। इस प्रकार की स्थिति में बंटी की नियति यही हो सकती थी, हॉस्टल में निर्वासन।

    उपन्यास के केंद्र में बंटी अवश्य है पर उपन्यासकार ने आरंभ में ही स्पष्ट किया है—मुझे लगा कि बंटी किन्हीं दो—एक घरों में नहीं, आज के अनेक परिवारों में साँस ले रहा है—अलग-अलग संदर्भों में, अलग-अलग स्थितियों में। (जन्मपत्री बंटी की-मन्नू भंडारी का वक्तव्य)

     

    जगदीश चंद्र : धरती धन न अपना

    लेखक जगदीश चंद्र का जन्म पंजाब के होशियारपुर ज़िले में 23 नवंबर 1930 को हुआ।

    10 अप्रैल 1996 को उनका निधन हुआ।

    'धरती धन न अपना' जगदीश चंद्र का लेखन में पहला लेकिन प्रकाशन में दूसरा उपन्यास है। इस उपन्यास का लेखन तो मई 1955 में शुरु कर दिया था, लेकिन आठ अध्याय लिखकर छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने एक और उपन्यास लिखा, जो 'यादों के पहाड़' शीर्षक से 1966 में छपा।

    सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी 'धरती धन न अपना' (1972), 'नरककुंड में बास' (1993) व 'ज़मीन अपनी तो थी'।

    जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी की रचना पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलित जीवन को केंद्र में रखकर की गई है।

    'मुट्ठी भर कांकर' उनका एक अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास है, जिसका दूसरा भाग 'घास गोदाम' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। पंजाब के किसान जीवन पर आधारित उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है—'कभी न छोड़े खेत' जिसका नाट्यरुपांतर व टेली सीरियल रुपांतर भी चर्चित रहा।

    उपन्यासों के अतिरिक्त हिंदी में जगदीश चंद्र का 'पहली रपट' (कहानी संग्रह) व 'नेता का जन्म' (नाटक) भी प्रकाशित हैं। एक रिपोर्ताज 'आप्रेशन ब्लू स्टार' भी हाल में छपा है।

    'धरती धन न अपना' भारतीय जाति व्यवस्था में हाशिए पर ढकेल दिए गए बहिष्कृतों का जीवन व्यतीत करने वाले दलितों की जीवन त्रासदी की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

    मुख्य गाँव से बहिष्कृत बस्ती चमादड़ी में बसने वाली चमार जाति की पीड़ा व उत्पीड़न को जगदीश चंद्र ने यथार्थ की भूमि पर उतारा है। छुआछूत के व्यवहार से उपजा यातना व संताप का मिलाजुला विद्रोही स्वर भी इस उपन्यास में अभिव्यक्त हुआ है।

    'धरती धन न अपना' का कथासूत्र :

    उपन्यास का आरंभ होता है काली के छह साल बाद कानपुर से अपने गाँव घोड़ेवाहा लौटने से।

    गाँव में काली की एक मात्र संबंधी उसकी चाची प्रतापी है। उसके माता-पिता व चाचा का देहांत हो चुका हैं। काली को उसके चाचा-चाची ने ही पाल पोस कर बड़ा किया क्योंकि उसके माँ-बाप उसके शैशव में ही चल बसे थे।

    उसके गाँव लौटने का एकमात्र कारण चाची से उसका मोह ही है। पौ फटने पर काली गाँव के पास पहुँचता है। गाँव में छह सालों में कोई तब्दीली नहीं हुई है। घर पर चाची को जीवित पाकर काली प्रसन्नता से अभिभूत हो उठता है।

    चमारों के मुहल्ले में एक कोठा भी अभी तक पक्का नहीं हुआ है।

    छह साल कानपुर में मज़दूरी कर काली कुछ कमाई कर गाँव लौटा है इससे चमार होने पर भी गाँव में उसके व्यक्तित्व का कुछ प्रभाव पड़ता है और कुछ गाँववासी उसे बाबू कालीदास कहते हैं।

    गाँव में ज़मीनों के मालिक चौधरी हैं, एक दो बनिए दुकानदार है व ज़मीनों पर तथा घरों में काम करने वाले दलित चमार हैं।

    चौधरी लोग बेबात चमारों से गाली-गलौच करते व उन्हें पीटते रहते हैं। मंगू चमार चौधरी हरनाम सिंह का ग़ुलाम बना हुआ है, जबकि उसकी बहन ज्ञानों चौधरियों के अन्याय का विरोध करती है, जो काली को ज्ञानों के प्रति आकर्षित करता है।

    काली अपने कच्चे कोठे को गिरा कर पक्का मकान बनाना चाहता है और इसके लिए वह छज्जू शाह से सलाह लेने जाता है। छज्जू शाह उसे पक्का मकान बनाने के उपाय तो बताता है, लेकिन साथ ही काली को इस तथ्य से भी अवगत करा देता है कि जिन घरों में दलित लोग रह रहे हैं, वह जगह गाँव की साँझी जगह 'शामलात' है और इन घरों पर दलितों का 'मौरूसी' अधिकार ही है अर्थात् जब तक उनके ख़ानदान का कोई व्यक्ति उस घर में रहता है तभी तक वे वहाँ रह सकते हैं।

    काली का अपना घर पक्का करने के बारे में सोचना ही वास्तव में दलितों के शोषण पर टिकी ग्रामीण सामंती व्यवस्था के लिए विध्वंसात्मक कार्रवाई है, ऊपर से काली का चौधरियों के सामने आत्म सम्मान की भावना से पेश आना भी उनके दमनात्मक रवैये को चुनौती है। उसका अपना दलित समाज भी काली का प्रशंसक या समर्थक नहीं है। ज्ञानों या जीतू आदि कुछ गिने चुने प्रबुद्ध दलित युवक-युवतियों को छोड़ चमादड़ी के अधिकांश लोग काली से ईर्ष्या करते हैं। लेकिन धीरे-धीरे गाँव में काली की प्रतिष्ठा बढ़ती है और साथ ही ज्ञानों और काली में प्रेम-संबंध भी विकसित होते हैं।

    काली यद्यपि चमादड़ी में पहला पक्का मकान बनवाकर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाता है, काली की चाची प्रतापी की अचानक बीमारी व झाड़-फूँक के कारण देहांत से कथा में नया मोड़ आता है, काली का मकान पक्का करने का सपना पूरा नहीं हो पाता। न सिर्फ़ मकान बीच में ही छूट जाता है, उसकी कमाई के पैसे व चाची द्वारा बनाए गहने-रुपए भी चाची की मृत्यु के बाद शोक जताने आई कोई पड़ोसिन ले उड़ती है, काली सब कुछ लुटाकर घास खोदने का धंधा करता है फिर लालू पहलवान के यहाँ मज़दूरी करने लगता है।

    गाँव में आई बाढ़ कथा का अगला मोड़ है। प्राकृतिक आपदा का सामना चौधरी और चमार मिलकर करते हैं, लेकिन चौधरियों के खेतों को बचाने के लिए दलित बेगार नहीं करना चाहते। तीन दिन के काम के बाद भी दिहाड़ी न मिलने पर चौधरी-चमार संघर्ष शुरू होता है। चमारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है और वे भी काम से हड़ताल करते हैं।

    पंद्रह दिन तक बच्चों को भूख से बिलबिलाते हुए देखकर चमारों का साहस जवाब दे देता है और वे आख़िरकर चौधरियों की शर्त को मान लेने के लिए विवश हो जाते हैं और दोनों ही पक्ष संघर्ष को व्यर्थ समझ आधे दिन की दिहाड़ी पर समझौता कर लेते हैं।

    'धरती धन न अपना' का अंतिम पक्ष ज्ञानो और काली के प्रेम के त्रासद अंत को मार्मिकता से चित्रित करता है। ज्ञानो गर्भवती हो जाती है। काली के साथ उसकी शादी समाज को स्वीकार नहीं, गाँव उनके प्रेम संबंधों के कारण दोनों का दुश्मन हो जाता है। काली की प्रतिष्ठा ख़त्म हो जाती है। लालू पहलवान उसे नौकरी से निकाल देता है।

    काली पड़ोस के क़स्बे में मज़दूरी करने लगता है व ज्ञानो को लेकर भाग जाना चाहता है। दोनों अपना मिलना-जुलना भी बंद नहीं करते, परिणामतः ज्ञानो को उसकी माँ व भाई ज़हर देकर मार डालते हैं और काली गाँव से भाग जाता है।

    काली के गाँव लौटने से थोड़े सुखद रूप में उपन्यास का आरंभ होता है, जबकि अत्यंत विषम परिस्थितियों में गाँव से जान बचाकर व अपनी प्रेमिका की हत्या का मर्मांतक दुख लेकर गाँव से चले जाने से उपन्यास का अंत होता है।

    चरित्रांकन :

    उपन्यास में चरित्र अनेक हैं लेकिन सर्वप्रथम चरित्र काली और ज्ञानो है। इनमें भी काली उपन्यास के केंद्रीय चरित्र का दर्जा रखता है। शेष अन्य चरित्रों में चाची प्रतापी, जीतू, ताई निहाली, प्रीतो व निक्कू, लच्छो, मंगू, चौधरी कंता व बसंता, चौधरी हरनाम सिंह, लालू पहलवान, हरदेत, छज्जूशाह, डॉ. बिशनदास, पादरी अचिंतराम, पंडित संतराम, महाशय, नंद सिंह, कानरेड टहल सिंह इत्यादि शामिल हैं।

    इनमें से अधिकांश चरित्र वैयक्तिक न होकर समुदाय या वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आए हैं। ज्ञानो व काली भी इस अर्थ में प्रतिनिधि चरित्र हैं, क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत विशिष्ट गुणों के बावजूद प्रतिनिधित्व अपने वर्ग या समुदाय का ही करते हैं।

    काली

    काली माखे का पुत्र है। उसके माँ-बाप उसके शैशव में ही मर चुके हैं। उसे उसके चाचा-चाची पालते हैं, जिनका अपना कोई बच्चा नहीं बचता इसलिए काली उनका पुत्र भी है और उनके ख़ानदान की एकमात्र निशानी भी।

    ज्ञानो

    ज्ञानो 'धरती धन न अपना' का दूसरा प्रमुख चरित्र है। ज्ञानो जस्सो की बेटी व मंगू की बहिन है। ज्ञानो और मंगू अपने घर में दो विपरीत दिशाएँ हैं। मंगू चौधरियों की चापलूसी और ग़ुलामी करता है और ज्ञानो जन्मजात विद्रोहिणी है। वह कोई भी अन्याय सहन नहीं करती। इसी स्वभाव के कारण ज्ञानो काली का मन जीत लेती है। ज्ञानो संवेदनशील और दृढ़ स्वभाव की लड़की है। कई अर्थों में वह काली से भी अधिक दृढ़ चरित्र है।

    अन्य दलित चरित्र

    उपन्यास चूँकि दलित जीवन पर अधिक केंद्रित है, इसलिए उपन्यास में दलित चरित्र अधिक संख्या में है। जिनमें काली की चाची प्रतापी, उसका दोस्त जीतू व उसकी ताई निहालो, पड़ोसी— निक्को-प्रीतो-परिवार, जिसमें लच्छो नाम की युवा व शोषित लड़की शामिल है, चौधरी कंता व चौधरी बसंता, मंगू व नंद सिंह आदि चरित्र उपन्यास में अपनी उपस्थिति किसी न किसी रूप में दर्ज करवाते हैं।

    वर्चस्ववादी सवर्ण चरित्र

    चौधरी हरनाम सिंह, हरदेव, चौधरी मुंशी आदि। लालू पहलवान न्याय प्रिय व्यक्ति हैं, जो अपने मज़दूरों के साथ मानवीय व्यवहार करते हैं और दुख-तकलीफ़ के समय उनके घरों में जाने से भी संकोच नहीं करते।

    घडम्म चौधरी कानून का विशेषज्ञ बन कर गाँव पर अपना आतंक जमाए हुए है और उसी से अपना कमीशन निकालकर काम चलाता है।

    गाँव का बनिया छज्जू शाह है, जो चौधरियों और दलितों दोनों से मधुर संबंध रखता है और दोनों को ही समान रूप से ब्याज आदि के द्वारा लूटता है।

    पं. संतराम, महाशय और पादरी अचिंतराम धार्मिक समुदायों सनातनी, आर्य समाज और ईसाई धर्म के प्रतिनिधि चरित्र हैं।

    डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह कम्युनिस्टों के व्यंग्य चित्र हैं।

    धरती धन न अपना : आंचलिक पहलु

    'धरती धन न अपना' के दोआबा क्षेत्र में होशियारपुर ज़िले का गाँव घोडेवाहा चित्रित हुआ है। दोआबा क्षेत्र में पंजाब के जालंधर, होशियारपुर, कपूरथला व नवांशहर ज़िले आते हैं। इनमें से होशियारपुर ज़िले की हद हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र से लगती है व होशियारपुर क्षेत्र पहाड़ी क्षेत्र की गोद में बसा है।

    'धरती धन न अपना' में लेखक को अँचल विशेष के परिवेश चित्रण में पर्याप्त सफलता मिली है, इसीलिए कई आलोचकों ने 'धरती धन न अपना' की गणना आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में भी की है।

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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