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कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता

kaviyon ki urmila vishayak udasinata

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    नोट

    'श्रीयुत भुजंगभूषण भट्टाचार्य' छद्म नाम से जुलाई, 1908 में प्रकाशित। 'रसज्ञ-रंजन' में संकलित।

    कवि स्वभाव से ही उच्छृंखल होते हैं। वे जिस तरफ़ झुक गए, झुक गए। जी में आया तो राई का पर्वत कर दिया; जी में आया तो हिमालय की तरफ़ भी आँख उठाकर देखा। यह उच्छृंखलता या उदासीनता सर्व साधारण कवियों में तो देखी ही जाती है, आदि कवि तक इससे नहीं बचे। क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक पक्षी को निषाद द्वारा वध किया गया देख जिस कवि शिरोमणि का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, और जिसके मुख से 'मानवाद' इत्यादि सरस्वती सहसा निकल पड़ी, वही पर दुःखकातर मुनि, रामायण-निर्माण करते समय, एक नव-परिणीता दुःखिनी वधू को बिल्कुल ही भूल गया। विपत्ति विधुरा होने पर उसके साथ अल्पादल्पतरा संवेदना तक उसने प्रकट की—उसकी ख़बर तक ली।

    वाल्मीकि रामायण का पाठ किंवा पारायण करने वालों को उर्मिला के दर्शन सबसे पहले जनकपुर में सीता, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ होते हैं। सीता की बात तो जाने ही दीजिए, उनके जीविताधार रामचंद्र के चरित्र-चित्रण ही के लिए रामायण की रचना हुई है। मांडवी और श्रुतिकीर्ति के विषय में कोई विशेषता नहीं क्योंकि आग से भी अधिक संताप पैदा करने वाला पति वियोग उनको हुआ ही नहीं। रही बाल-वियोगिनी देवी उर्मिला, तो उसका चरित्र सर्वथा गेय और आलेख्य होने पर भी, कवि ने उसके साथ अन्याय किया। मुने! इस देवी की इतनी उपेक्षा क्यों? इस सर्वसुख वंचिता के विषय में इतना पक्षपात कार्पण्य क्यों? क्या इसलिए कि इसका नाम इतना श्रुतिसुखद इतना मंजुल, इतना मधुर है और तापसजनों का शरीर सदैव शीताताप सहने के कारण कठोर और कर्कश होता है—पर नहीं, आपका काव्य पढ़ने से यही जान पड़ता है कि आप कठोरता-प्रेमी नहीं। भवतु नाम। हम इस उपेक्षा का एक मात्र कारण भगवती उर्मिला का भाग्यदोष ही समझते हैं। हा हतविधिलसते! परमकारुणिकेन मुनिना वाल्मीकिनापि विस्मृतासि।

    हाय वाल्मीकि! जनकपुर में तुम उर्मिला को सिर्फ़ एक बार, वैवाहिक वधु-वेश में दिखाकर चुप हो बैठे। अयोध्या आने पर ससुराल में इसकी सुधि यदि आपको आई थी तो सही पर, क्या लक्ष्मण के वन-प्रयाण-समय में भी उसके दुःखाश्रमोचन करना आपको उचित जँचा? रामचंद्र के राज्याभिषेक की जब तैयारियाँ हो रही थीं, राजांतःपुर ही क्यों सारा नगर नंदन-वन बन रहा था; उस समय नवला उर्मिला कितनी ख़ुशी मना रही थी, सो क्या आपने नहीं देखा? अपने पति के परमाराध्य राम को राज्य-सिंहासन पर आसीन देख उर्मिला को कितना आनंद होता; इसका अनुमान क्या आपने नहीं किया? हाय! वही उर्मिला एक घंटे बाद, राम-जानकी के साथ निज पति को 14 वर्ष के लिए वन जाते हुए देख, छिन्नमूल शाखा की तरह राज-सदन की एक एकांत कोठरी में भूमि पर लोटती हुई क्या आपके नयनगोचर नहीं हुई? फिर भी उसके किए आपको 'वचने दरिद्रता'! उर्मिला वैदेही की छोटी बहिन थी। सो बहिन का वियोग सहना पड़ा और प्राणाधार पति का भी वियोग सहना पड़ा! पर इतनी घोर दुःखिनी होने पर भी आपने दया दिखाई। चलते समय लक्ष्मण को उसे एक बार आँखभर देख भी लेने दिया! जिस दिन राम और लक्ष्मण, सीतादेवी के साथ, चलने लगे—जिस दिन उन्होंने अपने पुर-त्याग से अयोध्या नगरी को अंधकार में नगरवासियों को दुःखोदधि में और पिता को मृत्यु-मुख में निपतित किया, उस दिन भी आपको उर्मिला याद आई। उसकी क्या दशा थी, वह कहाँ पड़ी थी; सो कुछ भी आपने सोचा; इतनी उपेक्षा!

    लक्ष्मण ने अकृत्रिम भ्रातृस्नेह के कारण बड़े भाई का साथ दिया। उन्होंने राज-पाट छोड़कर अपना शरीर रामचंद्र को अर्पण किया। यह बहुत बड़ी बात की। पर उर्मिला ने इससे भी बढ़कर आत्मोत्सर्ग किया। उसने अपनी आत्मा की अपेक्षा भी अधिक प्यारा अपना पति राम-जानकी को दे डाला और यह आत्मसुखोत्कर्षं उसने तब किया जब उसे ब्याह कर आए हुए कुछ ही समय हुआ था। उसने अपने सांसारिक सुख के सबसे अच्छे अंश से हाथ धो डाला जो सुख विवाहोत्तर उसे मिलता उसको बराबरी 14 वर्ष पति वियोग के बाद का सुख कभी नहीं कर सकता। नवोढ़त्व को प्राप्त होते ही जिस उर्मिला ने, रामचंद्र और जानकी के लिए अपने सुख-सर्वस्व पर पानी डाल दिया उसी के लिए, अंतर्दर्शी आदि कवि के शब्द भंडार में दरिद्रता!

    पति-प्रेम और पति-पूजा की शिक्षा सीतादेवी को जहाँ मिली थी वहीं उर्मिला को भी मिली थी। सीतादेवी की सम्मति—

    जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते।

    पिय बिनु तियहिं तरनि ते ताते॥

    उर्मिला की क्या यह भावना थी? ज़रूर थी। दोनों एक ही घर की थीं। उर्मिला भी पतिपरायण धर्म को अच्छी तरह जानती थी। पर, उसने लक्ष्मण के साथ वनगमन की हठ जान-बूझकर नहीं की। यदि वह भी साथ जाने को तैयार होती, तो लक्ष्मण को अपने अग्रज राम के साथ उसे ले जाने में संकोच होता, और उर्मिला के कारण लक्ष्मण अपने उस आराध्य-युग्म की सेवा भी अच्छी तरह कर सकते। यही सोचकर उर्मिला ने सीता का अनुकरण नहीं किया। यह बात उसके चरित्र की बहुत बड़ी महत्ता की बोधक है। वाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-मर्मज्ञ को आंतरिक वेदना होगी?

    तुलसीदास जी ने उर्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। 'नानापुराणनिगमागम सम्मत' लेकर जब रामचरितमानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही वचनों को आधार मानने की वैसी ज़रूरत थी। आपने भी चलते वक़्त लक्ष्मण को उर्मिला से मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, झट कह दिया—

    गये लषण जहँ जानकिनाथा।

    आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक 'लषण' पर इतनी सख़्ती क्यों? अपने कमंडलु के करुणावारि का एक भी बूँद आपने उर्मिला के लिए रखा। सारा का सारा कमंडलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में उर्मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह से कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के वनवास और अपने पति के वियोग के संबंध में क्या-क्या भावनाएँ उसके कोमल हृदय में उत्पन्न हुई थीं। उर्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचाकर उसे एकदम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।

    हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम लक्ष्मण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी उर्मिला याद गई है। चित्र फलक पर उर्मिला को देखकर सीता ने लक्ष्मण से पूछा—'इयमप्यपराका' अर्थात् लक्ष्मण यह कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से ख़ाली नहीं। इसमें सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गए। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे—उर्मिला को सीता देवी पूछ रही हैं। उन्होंने सीता के प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही उर्मिला के चित्र पर हाथ रख दिया। उनके हाथ से वह ढक गया। कैले खेद की बात है कि उर्मिला का उज्ज्वल चरित्र-चित्र कवियों के द्वारा भी आज तक इसी तरह ढकता आया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 82)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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