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'बिहारी सतसई' के पहले दोहे की टीका

bihari satasi ke pahle dohe ki tika

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

'बिहारी सतसई' के पहले दोहे की टीका

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    रोचक तथ्य

    माधुरी' संपादक को पत्र-रूप में लिखित जनवरी, 1923 की 'माधुरी' में प्रकाशित। असंकलित।

    उस दिन कानपुर के एक छापेख़ाने में बिहारी की सतसई का एक नया संस्करण देखने को दिला। यह संस्करण हिंदी साहित्य में प्रावीण्य या प्राप्त करने के इच्छुक छात्रों के उपकार के लिए सटीक प्रकाशित हुआ है। इसमें पहले दोहे के अर्थ की असुंदरता देखकर दुःख हुआ था? क्योंकि टीकाकार के किए हुए उस अर्थ से उनकी रसिकता नहीं सूचित होती थी। आज 'माधुरी' की पाँचवीं संख्या में उसी दोहे का रसिकता-दर्शक अर्थ पढ़कर चित्त प्रसन्न हो गया, और वह पहले का विषाद जाता रहा। यह अर्थ बाबू जगन्नाथदास ने उक्त संख्या में प्रकाशित अपने एक छोटे-से लेख द्वारा प्रकट किया है। बिहारी का पहला दोहा यह है—

    मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ,

    जावन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होइ।

    इसकी जो टीका बाबू साहब ने की है, उससे व्यक्त होता है कि आप यथेष्ट सरस-हृदय और काव्य-मर्मज्ञ हैं। अतएव बिहारी की कविता का मर्म समझाने के पूर्ण अधिकारी हैं।

    कवि जब किसी वस्तु का वर्णन करता है, तब वह उस वर्णन में प्रायः एक ही भाव या अर्थ की प्रधानता रखता है। हाँ, यदि सहज ही में, या कुछ थोड़े ही से फेर-फार अथवा परिवर्तित शब्द-विन्यास द्वारा, वह कोई और भी अर्थ निकलने की संभावना देखता है, और उस दूसरे अर्थ से कविता में कोई विशेष चमत्कार भी आता जान पड़ता है, तो वह तदनुकूल फेर-फार करके उस चमत्कार के उत्पादक शब्द रख देता है। इससे उसकी कविता में विशेषता जाती है। जान-बूझकर, प्रयत्नपूर्वक, दो-दो, तीन-तीन अथवा ततोऽधिक अर्थ देने वाली कविता लिखकर महाकवि भी यशस्वी नहीं हो सकते। संस्कृत में ऐसे अनेक काव्य हैं, जिनके कितने ही स्थल ही नहीं, सर्ग-के-सर्ग दो-दो अर्थ देने वाले है। कुछ काव्य तो साद्यंत द्वयर्थक है। पर उनकी गिनती अच्छी कविता में नहीं। शब्द-समुदाय कोई ऐसी रसायन नहीं, जिससे एक ही साथ बहुत-से सुंदर अर्थ निकाले जा सकें। तथापि एक विलक्षणता कभी-कभी देखने में आती है। कुछ लोग अपनी भी बुद्धि की प्रेरणा से किसी-किसी कविता के ऐसे भी अनेक अर्थ कर डालते हैं, जिनका आभास कवि को कविता रचना के समय, हुआ होगा। अभी कुछ ही समय हुआ, कन्नोज के एक रामायणी पंडित ने तुलसीदास कृत रामायण की एक छोटी-सी चौपाई के सैकड़ों अर्थ करके उनका प्रकाशन भी कर डाला है। परंतु, इस प्रकार का अर्थाडंबर विद्वत्ता या तीक्ष्ण बुद्धि का द्योतक चाहे भले ही हो, सहृदयता का बोधक सदा नहीं हो सकता। सहृदयता-सूचक टीका करने या अर्थ निकालने की भी सीमा होती है। यह व्यापार निःसीम नहीं कि मनमाने अर्थ निकालते चले जाओ।

    प्रसन्नता की बात है कि बाबू जगन्नाथदास ने बिहारी के पहले दोहे के जो तीन अर्थ किए हैं, वे मनमाने अथवा ज़बरदस्ती निकाले गए नहीं। उनमें से दो तो बहुत ही सुसंगत और सहृदयता-द्योतक है।

    कवि का प्रधान अर्थ तो यहीं जान पड़ता है कि जिन राधा के तन की परवाहों, आभा या झलक-मात्र पड़ने या दिखाई देने से श्याम की दुति हरी-भरी अर्थात् लहलही हो जाती है, वही मेरी भव बाधा का हरण करें। पर बिहारी की शब्द-स्थापना से जो दूसरा अर्थ व्यंजित होता है, उससे इस दोहे में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। वह दूसरा अर्थ—यदि वह भी दूसरा अर्थ कहा जा सके, तो—है, श्याम (काले) का हरित (हरा) हो जाना। यदि कोई रसायन या कोई अन्य वस्तु, मिलकर नहीं, केवल अपनी छाया डालकर, काले को हरा कर दे, तो निःसंदेह ऐसी घटना आश्चर्यजनक अवश्य मानी जाएगी। राधा के तन की छाया ऐसी ही रसायन है। अतएव बिहारी के 'श्याम' और 'हरित' शब्दों ने दोहे में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर दिया, और यह दोहा उस कविता के अंतर्गत हो गया, जिसे साहित्य-शास्त्रज्ञ 'पदोपजीवी' कहते हैं। क्योंकि वे ही दो शब्द या पद इस कविता के जीव या जीवनी-शक्ति-संपन्न बीज हैं। अब इस दोहे के पदोपजीवी मात्र होने, और उक्त दोनों शब्दों से काले को हरा देने का अर्थ निकलने से ही पूरे दोहे को दो अर्थों का दाता मानना या मानना कविता के मर्मज्ञों-आचार्यों ही का काम है, हम-जैसों का नहीं। परंतु इसमें संदेह नहीं कि टीकाकार महाशय ने बिहारी के आशय को समझाया बड़ी योग्यता से है। सच तो यह है कि कवि के हृदय का भाव प्राकृत कवि या सच्चे सहृदय ही जान सकते हैं।

    बिहारी के पहले दोहे के टीकाकार महाशय ने उससे एक और भी—अर्थात् तीसरा—अर्थ निकाला है। उनका कथन है कि साई का अर्थ ध्यान भी है, और हरित का अर्थ हृत भी। फिर आपने भव बाधा का अर्थ सांसारिक चिंता, दुःख, दारिद्र्य आदि भी करके उनका रंग काला माना है। आपकी कल्पना यह है कि बिहारी ने राधा से अपनी भव बाधा दूर करने की प्रार्थना यह जानकर की है कि उनमें उसे दूर करने का सामर्थ्य है। जो जिस काम का सामर्थ्य रखता है, उसी से उसे कर देने की प्रार्थना की जाती है, सो ठीक ही है। कृष्ण के प्रयास वर्ण को राधा हरित वृति (इतवृति) कर देती हैं। इससे उनका सामर्थ्य प्रकट ही है। अतएव बिहारी के दुःख-दारिद्र्य आदि का कालापन अर्थात् कालुष्य भी वे दूर कर सकती हैं।

    आपकी यह कल्पना भी बड़ी मनोहर है। इससे भी आपकी काव्य-मर्मज्ञता टपकती है। विचार करने की बात सिर्फ़ इतनी ही है कि किसी कवि ने झाईं का ध्यान के अर्थ में, भव-बाधा (जन्म-मरण की बाधा) का दुःख-दारिद्र्य के अर्थ में, और हरित का हृत के अर्थ में कभी व्यवहार भी किया है या नहीं? और किसी कोषकार ने इन शब्दों के ये अर्थ भी किए हैं या नहीं? यदि किए हों, तो आपका यह अर्थ भी निःसंदेह समीचीन है, चाहे बिहारी को इसका ज्ञान हुआ हो, चाहे हुआ हो। आपकी यह सम्मति कि हृत का ही अपभ्रंश हरित है, भाषा-शास्त्र-वेत्ताओं के विचार करने की बात है। बिगड़ते-बिगड़ते या विकसित होते-होते किस तरह हृत (हरण किया गया या ले जाया गया) का अपभ्रंश हिंदी शब्द हरित हो गया, यस वे ही बता सकते हैं। हरित-शब्द संस्कृत भाषा का है, और हर के सिवा और भी कई अर्थों में आता है। पर, हृत के अर्थ में भी हरित आता है, यह हमारे देखने में नहीं आया।

    टीकाकार ने यह क्लिष्ट कल्पना की है, वह तो इस कल्पना के बिना ही इस दोहे से निकलता है; और, उसे ध्यान में रखकर ही बिहारी ने इसकी रचना की होगी। संभव नहीं कि बिहारी जैसे कवि के ध्यान में यह ध्वन्यात्मक अर्थ आया हो। साहित्य-शास्त्र में एक अलंकार का नाम है परिकर जहाँ साभिप्राय विशेषण रखकर अपने मन का छिपा हुआ भाव व्यक्त किया जाता है, वहीं यह अलंकार माना जाता है। जैसे एक भक्त अपने आराध्य देव शंकर के विषय में, किसी को लक्ष्य करके कहता है—

    सुधांशुकलित्तोत्तंसस्तापं हरतु वः शिवः।

    इस श्लोकार्द्ध में शिवजी से यह प्रार्थना की गई है कि वे किसी का संताप-हरण करें। अब यदि किसी को यह शंका हो कि वे संताप-हरण कैसे करेंगे? उसके हरण करने की शक्ति, सामग्री या सामर्थ्य भी वे रखते हैं? इस शंका का समाधान यह है कि उनके मस्तक में सुधांशु (चंद्रमा) जो विद्यमान है। ऐसी शंका का उत्थान करने के लिए तो यहाँ जगह ही नहीं। क्योंकि शिवजी के लिए 'सुधांशुकलित्तोत्तंस' विशेषण देकर यह बात पहले ही से ध्वनित कर दी गई है कि ताप हरने की शक्ति वे ज़रूर रखते है।

    बिहारी के दोहे में इस प्रकार का कोई साभिप्राय विशेषण तो नहीं, जिससे राधा में भव बाधा दूर करने की शक्ति द्योतित होती हो; पर दोहे का संपूर्ण उत्तरार्द्ध ही इस बात का साक्ष्य ध्वनित कर रहा है कि उनमें ऐसी शक्ति है, और इस शक्ति को जानकर ही बिहारी ने उनसे वैसी प्रार्थना की है।

    अच्छा, तो बिहारी की प्रार्थना मानकर यदि असामर्थ्य के कारण दूर कर सकें तो क्या हो? क्योंकि दोहे में उनके सामर्थ्य का सूचक कोई शब्द या विशेषण प्रत्यक्ष तो है ही नहीं। सही, पर क्या और कुछ भी सामग्री उसमें इस विषय की नहीं? हैं, ज़रूर है। जिन राधा की परछाहीं मात्र पड़ने से कृष्ण का मन हरा-भरा हो जाता है, वे उन पर कितने अनुरक्त होंगे, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है। अपनी इतनी प्रेमपात्र प्रिया के कहने से ऐसा कौन-सा काम है, जिसे करने के लिए कृष्ण तैयार हो जाएँगे? अब यदि राधा ज़रा-सा इशारा भर कर दें कि बिहारी की भाव-बाधा दूर कर दो, तब मैं तुमसे बोलूँगी, तो कृष्ण की कृपा से बिहारी ही की नहीं, उनके आगे-पीछे की सात पीढ़ियों तक की भव-बाधा दूर हो सकती है। श्याम की दुति को अपनी परछाहीं मात्र से हरित (हरी-भरी) कर देने की शक्ति राधा में बताकर कवि ने उन्हें कृष्ण की प्रियतमा सिद्ध किया है; और, इस तरह उन्होंने राधा को अपनी भव बाधा दूर करने की शक्ति रखने वाली बताया है। क्योंकि कौन ऐसा प्रेमी होगा, जो अपनी प्रिया को प्रसन्न रखने के लिए उसकी सिफ़ारिश से उसके दास-दासियों को पारितोषिक दे, या उनके दुःख-कष्ट दूर कर दे? कृष्ण तो अपनी एक रानी के लिए पारिजात-पुष्प तक, बात-की-बात में ले आए थे। सो, जो काम टीकाकार जी अपने तीसरे अर्थ की कल्पना से निकालना चाहते हैं, वह तो यों भी, बिना उस कल्पना के ही, निकल सकता है। इसमें सहृदय ही प्रमाण हैं।

    टीकाकार जी की सम्मति है कि सतसई के पहले दोहे का पाठ बिहारी यदि 'मेरी भव-बाधा हरौ' रखकर 'मेरी भौ बाधा हरौ' रखते तो अच्छा होता; क्योंकि पहले पाठ के आरंभ में त-गण आता है, जो मंगलाचरण में मना है। इसमें संदेह नहीं कि बिहारी के ज़माने में और उस तरह की भाषा लिखने वालों में अब भी—भौ, द्वौ, ह्वै, आदि लिखने की रोक-टोक थी। इस संबंध में एक प्रकार की अराजकता-सी थी; जैसा जिसके जी में आता था, लिखता था। तथापि बिहारी ने 'भव-बाधा' को 'भौ बाधा' लिखकर अपनी रसिकता ही का परिचय दिया है। 'भव-बाधा' में जो सौष्ठव है, वह सर्वथा सहृदय-संवेद्य है; पक्ष-समर्थन की ज़रूरत नहीं।

    रही त-गण प्रयोग की बात, सो महाकवियों तक ने पिंगलाचार्य के इस नियम का बहुधा उल्लंघन किया है। आचार्य की आज्ञा है कि त-गण, ज-गण, र-गण और स-गण अनिष्टदाता हैं। परंतु कालिदास ने कुमारसंभव के आरंभ में त-गण ही का प्रयोग किया है। यथा—

    अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा +++

    बिल्हण ने अपने महाकाव्य के आदिम श्लोक का पहला गण ज-गण ही नहीं रखा, उसका आरंभ भ-कार-जैसे दुष्ट वर्ण से भी किया है। यथा—

    भुजप्रभादण्ड इवोर्ध्वगामी

    काश्मीर के पंडित महाकवि जगद्धर-भट्ट ने तो और भी ग़ज़ब ढाया है। उन्होंने तो अपने काव्य के आरंभ में ज्वालावाही र-गण का प्रयोग किया है। यथा—

    ह्लादवद्भिरमलैरनर्गलैः +++

    परंतु कुछ आधुनिक छंदःशास्त्री, तथा उनके पूर्ववर्ती छंदो विद्या के और भी कुछ वेत्ता, इस विषय में एक तर्क उपस्थित करते हैं। वे कहते हैं कि बुरे गणों का विचार गणात्मक वृत्तों में नहीं किया जाता; किया जाता है केवल मात्रात्मक वृत्तों या छंदों में। और, दोहा मात्रा-छंद है। इस विचार से बिहारी के दोहे में त-गण आना चाहिए था। परंतु उनकी यह बात समझ में नहीं आती। जिन वृत्तों के आधार गण है, उनमें तो उनके इष्टानिष्टफल का विचार हो। हो किनमें, जिनको गणों का कुछ भी आधार नहीं; आधार है केवल मात्राओं का दुग्धाहारी तो दूध के गुण-दोषों का! विचार करे; करे वह, जो मट्ठा पीकर रहता हो! अपने इस तर्क की पुष्टि में वे क्या प्रमाण रखते हैं, सो तो हमारे सुनने में नहीं आए। पिछले छंद;शास्त्रियों ने तो और भी कई अपवाद ढूँढ़ निकाले हैं—उदाहरणार्थ, देवतावाचक शब्दों में गणागण का विचार होना चाहिए। जिस काव्य में ईश्वर या दिव्य-गुण-विशिष्ट नायक का वर्णन हो, उसमें भी गण-विचार होना चाहिए। होना चाहिए केवल मनुष्य-वर्णन-विषयक काव्य में।

    छंद:शास्त्र के आदि आचार्य है पिंगल। उन्होंने अपने सूत्र-ग्रंथ में, शुभाशुभ गणों के विषय में, केवल 5 सूत्र दिए हैं। उनके ग्रंथ के दूसरे अध्याय का दसवाँ सूत्र है—

    म-य-म-न प्रयोगात्कीर्तिः

    अर्थात् इन चारों गणों के प्रयोग से कीर्ति की प्राप्ति होती है। इसी के आगे का सूत्र है—

    अनिष्टं शेषे

    अर्थात् अवशिष्ट र-स-त-ज गणों के प्रयोग से अनिष्ट होता है। इसके आगे के तीनों सूत्रों में गणों के मित्रामित्र और योगायोग-जात फलों आदि का निर्देश है। बस, और कुछ नहीं। यह उन्होंने नहीं लिखा कि किस प्रकार छंदों में और कहाँ-कहाँ, अथवा किस प्रणाली के काव्यों में, इन भले-बुरे गणों का विचार होना चाहिए। उनके ये सभी सूत्र परिभाषा प्रकरण के हैं, अतएव लौकिक, वैदिक, गण और मात्रा-विषयक सभी छंदों के संबंध में चरितार्थ हो सकते हैं। ये पीछे के नियमोपनियम और अपवाद और लोगों के निर्देश किए हुए जान पड़ते हैं, पिंगलाचार्य के नहीं। 'कुछ कही कबीरदास, बहुत बढ़ाई भगतन' वाली देहाती मसल चरितार्थ होती मालूम होती है।

    इस दशा में बड़े-बड़े कवियों को काव्यारंभ में भी त्याज्य माने गए गणों का प्रयोग करते देखकर यदि बिहारी ने भी उनका अनुकरण किया, तो वह विशेष उपालंभ के भाजन नहीं। क्योंकि लोग बहुधा शास्त्र की अपेक्षा रूढ़ि को ही अधिक बलवती समझते हैं। वे कहते हैं—

    महाजनो तेन गतः पन्थाः।

    जिन काव्यों के आरंभ में अशुभ गणों का प्रयोग हुआ है, उनके कवियों को उससे क्या-क्या हानियाँ उठानी पड़ीं, अथवा क्या-क्या कष्ट भोगने पड़े, इस विषय की सामग्री यदि कोई एकत्र करे, तो वह बड़ी मनोरंजक और महत्त्व की हो। र-गण का प्रयोग करने वाले जगद्धर ने हज़ारों श्लोक लिखकर अपना ग्रंथ पूरा कर दिया। वह बीच मैं नहीं मर गए। भ-पूर्वक जगण लिखकर 18 सर्गों का महाकाव्य बिल्हण ने बना डाला, किसी विघ्न-बाधा के कारण वह अपूर्ण नहीं रह गया। उन्होंने काव्यांत में अपना जो विस्तृत चरित लिखा है, उसमें उन्होंने तो रुग्ण होने ही का कहीं उल्लेख किया, और किसी आपत्ति से ग्रस्त होने ही का। परंतु, यदि कवियों को रोग, कष्ट, आपत्ति, विघ्न, मृत्यु आदि का सामना करना भी पड़े, तो क्या वह बुरे गणों के प्रयोग का फल समझा जाना चाहिए? क्या इतर जन इन अनिष्टों की पहुँच के बाहर होते हैं?

    दौलतपुर रायबरेली, 1 दिसंबर, 1922

    —महावीरप्रसाद द्विवेदी

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 253)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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