पंडित जवाहरलाल नेहरू
panDit javaharlal nehru
पंडित जी को दूर से तो मैं वैसे कई वर्षों से देखता आ रहा था, पर पहले-पहल मेरी भेंट उनसे 1924 मे हुई। गाँधीजी अपने अपेडिक्स के ऑपरेशन के बाद जेल से छूट कर आए थे और स्वास्थ्य लाभ के लिए जुहू ठहरे हुए थे। एक रोज़ में गाँधी जी से मिलने जुहू गया तो बातों ही बातों में उन्होने मुझसे पूछा, क्या जवाहरलाल को जानते हो? दूर से ही देखा है, कभी मिला नहीं हूँ। मैंने कहा। तो मिल लो और मैत्री करने का प्रयत्न करो। मैं गाँधी जी के पास से उठकर पंडित जी के पास गया। वह बरामदे के एक कोने में बैठे थे। वह दृश्य मुझे स्पष्ट याद है। उनके चेहरे पर ताज़गी थी, सौंदर्य था और जवानी थी। मुझे ऐसा भी स्मरण है कि उनके हाथ में गीता की पुस्तक थी, जिसका वह अध्ययन कर रहे थे। उस समय जो पहली छाप मुझपर पड़ी, उससे मुझे लगा कि मैं उनके हृदय में कदाचित् ही प्रवेश कर सकूँ। मेरी वह प्रथम धारणा आज भी मुझे सही ही लगती है।
मैं स्वनामधन्य पंडित मोतीलाल जो के पास काफ़ी उठा-बैठा हूँ। लाला लाजपतराय और पडित मालवीय जी की भी मैंने सेवा की। बापू के चरणों में 32 वर्ष तक रहा। पर पंडित जवाहरलाल जी इन सब से मुझे निराले दिखे है। मालवीय जी एक निर्मल जल के सरोवर जैसे लगते थे, जिसमें प्रवेश करने में मुझे कभी झिझक नहीं होती थी। बापू ऐसे लगते थे जैसे गंगा की पवित्र धारा इसमें स्नान करने से सुख और शांति मिलती थी पर विजय पाने में अब तक निष्फल रहा है। जो कुछ हुआ है वह इतना ही कि मनुष्य प्रकृति से सहयोग करके उसका उपयोग करता रहा है। यह नास्तिकता नहीं, परले सिरे की आस्तिकता है।
साधन और साध्य में सामंजस्य को गाँधी जी ने अपने प्रवचनों में काफ़ी महत्त्व दिया है। अच्छे ध्येय के लिए भी बुरे साधनों का उपयोग त्याज्य है, इस पर गाँधी जी ने जितना भार दिया है, उतना हमारे प्राचीन लोगों ने शायद ही दिया हो।
राजनीतिक दाँव-पेंच हर युग में चलते रहे और हमारे पूर्वज भी उन दाँव-पेंचों से वंचित न थे। देव-दानवों के संघर्ष में देवों की गिरती आई तो वामन ने बलि को धोखा दिया। इसके पहले भी विष्णु ने मोहिनी बनकर दैत्यों से अमृत चुराया। राम ने छिपकर बालि को मारा। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। भारत की भविष्य की परराष्ट्रनीति इन दाँव-पंचों का तिरस्कार करेगी, ऐसा मानने की भी कोई गुंजाइश नहीं। पर गाँधी जी इस पंतरेवाजी से परे थे और उस नीति का जवाहरलालजी पर भी प्रभाव पड़ा है, ऐसा उनके अनेक उद्गारों से पता चलता है। गाँधी जी का यह सुवर्ण नियम स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कभी कसौटी पर नहीं चढ़ा। जवाहर लाल जी यदि इसको व्यावहारिक रूप में सफल कर दिखाएँगे तो अवश्य ही हमारी एक अद्भुत विजय होगी।
जवाहरलाल जी एक महान् व्यक्ति हैं। उनमें महत्ता क्या है, इसका विश्लेषण कष्टसाध्य है। सोना या हीरा केवल अपने बुनियादी तत्त्वों के कारण ही क़ीमती नहीं होता। कहते है कि जो तत्त्व हीरे में है वह कोयले में भी है। पर कोयला कोयला ही है और हीरा हीरा ही। पंडित जी में अभय है, न्यायबुद्धि है, कुशाग्रता है। पर उन्हे किस चीज़ ने बड़ा बनाया, यह बताना असंभव है। बात यह है कि वह बड़े है और इस देश को उनकी सेवा की अत्यंत आवश्यकता है।
- पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 65)
- रचनाकार : पंडित जवाहरलाल नेहरू
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