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महामना के साथ एक दिन

mahamana ke saath ek din

रामनरेश त्रिपाठी

रामनरेश त्रिपाठी

महामना के साथ एक दिन

रामनरेश त्रिपाठी

और अधिकरामनरेश त्रिपाठी

    आज भाद्रपद की पूर्णिमा है। शरद ऋतु का प्रारंभ है। आकाश बिल्कुल स्वच्छ है। शाम के सात बजे है। चंद्रदेव अपनी मनोहर किरणों से सृष्टि पर मादकता की वर्षा कर रहे हैं। तृण से लेकर ताड़ तक सभी श्रेणी के वृक्ष, पौधे, गुल्म, लताएँ और फूल मानो सुधा पीकर तृप्त और निस्तब्ध हो गए है। चारों ओर शांति है।

    चंद्रदेव इसी रूप में प्रतिमास पृथ्वी-निवासियों के सामने आते है और यह विहँसता हुआ मुँह हमेशा दिखला जाते हैं। करोड़ों वर्ष हो गए, उन्होने कभी अपना मुँह हमारी ओर से मोड़ा नही। उन्हें हम लाखों पीढ़ियों से देखते आते हैं, पर आज तक उनकी मिठास में कभी बासीपन नहीं आया। हमारे पूर्वजों को वे जितने प्यारे लगते थे, हमको भी उतने ही लगते है। कैसा शाश्वत सौंदर्य उनको मिला है।

    पूर्णिमा की मनोहर रात्रि में विश्वविद्यालय का सौंदर्य कैसा निखर उठता है, क्या कभी किसी ने देखा है? देश-विदेश के दूर-दूर के यात्री लोग पूर्णिमा की रात्रि में ताजमहल की शोभा देखने जाते है, पर विश्वविद्यालय का दिव्य रूप देखने की कल्पना किसी को क्यो सूझी?

    यदि कोई ऐसा ऊँचा स्थान बनाया जाए जहाँ से संपूर्ण विद्यालय देखा जा सके, तो पूर्णिमा की स्वच्छ रात्रि में उस पर खड़े होकर देखने से यह अद्भुत चमत्कार दिखाई पड़े बिना न रहेगा कि देखते-देखते विश्वविद्यालय सिमिटते-सिमिटते एक वृद्ध हिंदू तपस्वी की मूर्ति में परिवर्तित हो जाएगा और अंत में वह मूर्ति ही आँखों के सामने रह जाएगी।

    आज महाराज चंद्रिका-सिक्त रजनी में भ्रमण करने निकले। घूमते-घूमते उस सड़क पर से निकले जिसकी दाहिनी ओर राजपूताना होस्टल का शुभ्र प्रासाद पड़ता था। उस समय की शोभा अवर्णनीय थी। ऐसा जान पड़ता था कि दूर से अलकापुरी दिखाई पड़ती है।

    चलती हुई मोटर पर से ऐसा मालूम पड़ता था कि छोटे-बड़े वृक्षों की आड़ में वह भूल-भुलैया-सा खेल रहा था। 

    महाराज कहने लगे चाँदनी रात में विश्वविद्यालय बड़ा सुंदर लगता है।

    महाराज को विश्वविद्यालय की प्रशंसा सुनने को मिलनी चाहिए। इससे बढ़कर सुख शायद संसार में उनके लिए दूसरा नहीं है।

    हम दोनों अपने-अपने पात्रों में उस समय के दृश्य की मुख-सुधा चुपचाप भरते हुए बंगले को लौटे।

    रात फिर वही रेडियो और समाचार-पत्र और अंत में भारतवर्ष और हिंदू जाति के भविष्य के लिए छटपटाना।

    वर्तमान युग में हिंदू जाति के लिए ऐसी चिंता शायद ही किसी भारतवासी में होगी। मैंने महाराज के जीवन के बहुत अंक अब तक देख, सुन और पढ़ लिए हैं। महाराज अपने ध्यान में निमग्न थे और मैं बहुत देर तक बैठे-बैठे यह सोचता रहा कि महाराज हिंदू जाति की संपूर्णता की रक्षा के लिए कहाँ तक आगे बढ़े हैं।

    हिंदू जाति में अछूतों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार शताब्दियों से चला आ रहा था यद्यपि वह घृणा-सूचक नहीं था जैसा उसे इधर कुछ वर्षों से अछूतों का पक्ष लेकर भाषण करने वाले नेताओं ने बना दिया है। अछूत में बहुत से संत हुए है और अब भी है, जिनका आदर सच्चे साधुओं के समान ही हिंदू लोग करते रहे हैं और अब करते हैं।

    गाँव में चमार हलवाहे खुल्लम-खुल्ला कुओं में पानी भरने है और कोई रोक-टोक नहीं करता। ठेले-मेले में वे सब के साथ घूमते-फिरते रहते है और मंदिरों में उत्सवों के अवसर पर साथ ही दर्शन भी करते है। पर उनके बर्तनों को कुएँ में नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि वे अशुद्ध होते है। स्वच्छता की दृष्टि से यह आवश्यक भी है। देश काल, के प्रभाव से कुछ विषयों में अछूतों के साथ हिंदुओं की सहानुभूति नष्ट हो चली थी। उसी का परिणाम अछूत-आंदोलन है।

    हिंदू जाति की संपूर्णता की रक्षा का सब से पहला प्रयत्न स्वामी रामानंद ने किया। उनके बाद गोस्वामी जी ने अपना व्यापक प्रयोग किया। उनके बाद स्वामी दयानंद आते हैं। स्वामी जी ने भी अछूतों के लिए मार्ग चौड़ा करने का उद्योग किया और आर्य समाज के अंतर्गत काम करनेवाली संस्थाओं और शुद्धि-सभाओं ने उस मार्ग पर चलकर अछुतों को न्याय दिलाया भी। स्वामी जी के बाद महात्मा गाँधी ने अछूतों का प्रश्न हाथ में लिया और देश भर भ्रमण करके उन्होने उसे अत्यावश्यक प्रश्न बना दिया।

    समय और समाज की गति में पूर्ण परिचित मालवीय जी ने इस प्रश्न को अपने ही दृष्टिकोण से हल किया। उन्होंने हिंदू समाज में परंपरागत सनातन धर्म के अंदर ही शनेः-शनेः बढ़े हुए इस सामाजिक रोग का इलाज निकाला और वैसा ही व्यापक उसका प्रभाव भी हुआ।

    उसके अनुसार सन् 1927 मे महाशिव रात्रि के दिन काशी दशाश्वमेध घाट पर उन्होने चारों वर्णों को ओम् नमः शिवाय, ओम् नमो नारायण, ओम् रामाय नमः, ओम नमो भगवते वासुदेवाय आदि मंत्र की शिक्षा दी। ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक को उन्होंने मंत्र-शिक्षा दी थी।

    इस मंत्र-दीक्षा का यह सब से बड़ा परिणाम निकला कि हरिजन समझने लगे कि हम भी विशाल हिंदू जाति के अंग है और सारा हिंदू समाज हमारे साथ है।

    महाराज ने अछूतों को यह दोहा बनाकर दिया—

    दूध पियो, कसरत करो, नित्य जपो हरिनाम। 
    हिम्मत से कारज करो, पूरेगे सत्र काम॥

    अछूनोद्धार आंदोलन में महाराज को जो सफलता मिली और उससे जो हर्ष उन्हें हुआ उसका उद्‌गार उन्ही के शब्दों में सुनिए—

    'कूप खुले, मंदिर खुले, खुले स्कूल चहुँ ओर। 
    सभी सड़क जमघट खुले, नाचत है मन मोर॥

    नाचत है मन मोर मे महाराज का जीवन साफल्य स्वय नृत्य कर रहा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 104)
    • रचनाकार : रामनरेश त्रिपाठी

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