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कामायनी (वासना सर्ग)

kamayani (wasana sarg)

जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद

कामायनी (वासना सर्ग)

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    चल पड़े कब से हृदय दो पथिक से अश्रांत;

    यहाँ मिलने के लिए, जो भटकते थे भ्रांत।

    एक गृह-पति, दूसरा था अतिथि विगत विकार;

    प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार।

    एक जीवन सिंधु था, तो वह लहर लघु लोल;

    एक नवल प्रभात, तो वह स्वर्ण किरण अमोल।

    एक था आकाश वर्षा का सजल उद्दाम;

    दूसरा रंजित किरण से श्री-कलित घनश्याम।

    नदी तट के क्षितिज में नव जलद, सायंकाल;

    खेलता दो बिजलियों से मधुरिमा का जाल।

    लड़ रहे अविरत युगल थे चेतना के पाश;

    एक सकता था कोई दूसरे को फाँस!

    था समर्पण में ग्रहण का एक सुनिहित भाव;

    थी प्रगति, पर अड़ा रहता था सतत अटकाव।

    चल रहा था विजन-पथ पर मधुर जीवन-खेल;

    दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल।

    नित्य परिचित हा रहे तब भी रहा कुछ शेष;

    गूढ़ अंतर का छिपा रहता रहस्य विशेष।

    दूर जैसे सघन वन-पथ अंत का आलोक;

    सतत होता जा रहा हो, नयन की गति रोक।

    गिर रहा निस्तेज गोलक जलधि में असहाय;

    घन-पटल में डूबता था किरण का समुदाय।

    कर्म का अवसाद दिन से कर रहा छल छंद;

    मधुकरी का सुरस संचय हो चला अब बंद।

    उठ रही थी कालिमा धूसर क्षितिज से दीन;

    भेंटता अंतिम अरुण आलोक वैभव हीन।

    यह दरिद्र मिलन रहा रच एक करुणा लोक;

    शोक भर निर्जन निलय से बिछुड़ते थे कोक।

    मनु अब तक मनन करते थे लगाए ध्यान;

    काम में संदेश से ही भर रहे थे कान।

    इधर गृह में जुटे थे उपकरण अधिकार;

    शस्य पशु या धान्य का होने लगा संचार।

    नई इच्छा खींच लाती, अतिथि का संकेत—

    चल रहा था सरल शासन युक्त सुरुचि समेत।

    देखते थे अग्नि-शाला से कुतूहल युक्त;

    मनु चमत्कृत निज नियति का खेल बंधन-मुक्त।

    एक माया! रहा था पशु अतिथि के साथ;

    हो रहा था मोह करुणा से सजीव सनाथ!

    चपल कोमल कर रहा फिर सतत पशु के अंग;

    स्नेह से करता चमर उद्ग्रीव हो वह संग।

    कभी पुलकित रोम राजी से शरीर उछाल;

    भाँवरों से निज बनाता अतिथि सन्निधि जाल।

    कभी निज भोले नयन से अतिथि बदन निहार;

    सकल संचित स्नेह देता दृष्टि-पथ से ढार।

    और वह पुचकारने का स्नेह शवलित चाव;

    मंजु ममता से मिला बन हृदय का सद्भाव।

    देखते ही देखते दोनों पहुँच कर पास;

    लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास।

    वह विराग-विभूति ईर्षा-पवन से हो व्यस्त;

    बिखरती थी; और खुलते ज्वलन कण जो अस्त।

    किंतु यह क्या! एक तीखी घूँट, हिचकी आह!

    कौन देता है हृदय में वेदनामय डाह?

    आह यह पशु और इतना सरल सुंदर स्नेह!

    पल रहे मेरे दिए जो अन्न से इस गेह।

    मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते सभी निज भाग;

    और देते फेंक मेरा प्राप्य तुच्छ विराग!

    अरी नीच कृतघ्नते! पिच्छल शिला संलग्न;

    मलिन काई-सी करेगी हृदय कितने भग्न?

    हृदय का राजस्व अपहृत, कर अधम अपराध;

    दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध।

    विश्व में जो सरल सुंदर हो विभूति महान;

    सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान।

    यहीं तो, मैं ज्वलित वाडव-वह्नि नित्य अशांत।

    सिंधु लहरों सा करें शीतल मुझे सब शांत।

    गया फिर पास क्रीड़ाशील अतिथि उदार;

    चपल शैशव-सा मनोहर भूल का ले भार।

    कहा क्यों तुम अभी बैठे ही रहे धर ध्यान;

    देखती हैं आँख कुछ, सुनते रहे कुछ कान—

    मन कहीं, यह क्या हुआ है? आज कैसा रंग?

    नत हुआ फण दृप्त ईर्षा का, विलीन उमंग।

    और सहलाने लगा कर-कमल कोमल कांत,

    देख कर वह रूप सुषमा मनु हुए कुछ शांत।

    कहा अतिथि! कहाँ रहे तुम किधर थे अज्ञात;

    और यह सहचर तुम्हारा कर रहा ज्यों बात—

    किसी सुलभ भविष्य की; क्यों आज अधिक अधीर।

    मिल रहा तुमसे चिरंतन स्नेह सा गंभीर?

    कौन हो तुम खींचते यों मुझे अपनी ओर;

    और ललचाते स्वयं हटते उधर की ओर?

    ज्योत्स्ना निर्झर! ठहरती ही नहीं यह आँख;

    तुम्हें कुछ पहचानने की खो गई-सी साख।

    कौन करुण रहस्य है तुममें छिपा छविमान;

    लता वीरुध दिया करते जिसे छाया दान।

    पशु कि हो पाषाण सब में नृत्य का नव छंद;

    एक आलिंगन बुलाता सभी को सानंद।

    राशि-राशि बिखर पड़ा है शांत संचित प्यार;

    रख रहा है उसे ढोकर दीन विश्व उधार।

    देखता हूँ चकित जैसे ललित लतिका-लास;

    अरुण घन की सजल छाया में दिनांत-निवास—

    और उसमें हो चला जैसे सहज सविलास;

    मदिर माधव यामिनी का धीर पद विन्यास।

    आह यह जो रहा सूना पड़ा कौन दीन;

    ध्वस्त मंदिर का, बसाता जिसे कोई भी न—

    उसी में विश्राम माया का अचल आवास;

    अरे यह सुख नींद कैसी, हो रहा हिम हास!

    वासना की मधुर छाया! स्वास्थ्य बल विश्राम!

    हृदय की सौंदर्य प्रतिमा! कौन तुम छवि-धाम!

    कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज;

    कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर खोज!

    कुंद मंदिर सी हँसी ज्यों खुली सुषमा बाँट;

    क्यों वैसे ही खुला यह हृदय रुद्ध कपाट?

    कहा हँस कर अतिथि हूँ मैं, और परिचय व्यर्थ;

    तुम कभी उद्विग्न इतने थे इसके अर्थ!

    चलो, देखो वह चला आता बुलाने आज—

    सरल हँसमुख विधु जलद लघु खंड वाहन साज!

    कालिमा घुलने लगी घुलने लगा आलोक,

    इसी निभृत अनंत में बसने लगा अब लोक;

    इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुसक्यान,

    देख कर सब भूल जाएँ दु:ख के अनुमान।

    देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम चुंबन व्यस्त;

    लोटना अंतिम किरण का और होना अस्त।

    चलो तो इस कौमुदी में देख आवें आज;

    प्रकृति का यह स्वप्न शासन, साधना का राज।

    सृष्टि हँसने लगी आँखों में खिला अनुराग;

    राग रंजित चंद्रिका थी, उड़ा सुमन पराग।

    और हँसता था अतिथि मनु का पकड़ कर हाथ;

    चले दोनों, स्वप्न-पथ में स्नेह संवल साथ।

    देवदारु निकुंज गह्वर सब सुधा में स्नात;

    सब मनाते एक उत्सव जागरण की रात।

    रही थी मदिर भीनी माधवी की गंध;

    पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु अंध।

    शिथिल अलसाई पड़ी छाया निशा की कांत;

    सो रही थी शिशिर कण की सेज पर विश्रांत।

    उसी झुरमुट में हृदय की भावना थी भ्रांत;

    जहाँ छाया सृजन करती थी कुतूहल कांत।

    कहा मनु ने तुम्हें देखा अतिथि! कितनी बार;

    किंतु इतने तो थे तुम दबे छवि के भार!

    पूर्व जन्म कहूँ कि था स्पृहणीय मधुर अतीत;

    गूँजते जब मदिर घन में वासना के गीत।

    भूल कर जिस दृश्य को मैं बना आज अचेत;

    वही कुछ सव्रीड़, सस्मित कर रहा संकेत।

    मैं तुम्हारा हो रहा हूँ यही सुदृढ़ विचार;

    चेतना का परिधि बनता घूम चक्राकार।

    मधु बरसती विधु किरन हैं काँपती सुकुमार;

    पवन में है पुलक मंथर, चल रहा मधु-भार।

    तुम समीप, अधीर इतने आज क्यों हैं प्राण?

    छक रहा है किस सुरभि से तृप्त होकर घ्राण?

    आज क्यों संदेह होता रुठने का व्यर्थ;

    क्यों मनाना चाहता-सा बन रहा अमर्थ!

    धमनियों में वेदना-सा रक्त का संचार;

    हृदय में है काँपती धड़कन, लिए लघु भार!

    चेतना रंगीन ज्वाला परिधि में सानंद,

    मानती-सी दिव्य सुख कुछ गा रही है छंद!

    अग्नि कीट समान जलती है भरी उत्साह,

    और जीवित है, छाले हैं उसमें दाह!

    कौन हो तुम विश्व माया कुहक सी साकार,

    प्राण सत्ता के मनोहर भेद-सी सुकुमार!

    हृदय जिसकी कांत छाया में लिए निश्वास,

    थके पथिक समान करता व्यजन ग्लानि विनाश!

    श्याम नभ में मधु किरन-सा फिर वही मृदु हास,

    सिंधु की हिलकोर दक्षिण का समीर विलास!

    कुंज में गुंजरित कोई मुकुल-सा अव्यक्त,

    लगा कहने अतिथि, मनु थे सुन रहे अनुरक्त—

    यह अतृप्ति अधीर मन की क्षोभयुत उन्माद,

    सखे! तुमुल तरंग-सा उच्छ्वासमय संवाद।

    मत कहो पूछो कुछ, देखो कैसी मौन,

    विमल राका मूर्ति बन कर स्तब्ध बैठा कौन!

    विभव मतवाली प्रकृति का आवरण वह नील,

    शिथिल है, जिस पर बिखरता प्रचुर मंगल खील;

    राशि-राशि नखत कुसुम की अर्चना अश्रांत,

    बिखरती है, ताम रस सुंदर चरण के प्रांत।

    मनु निरखने लगे ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,

    वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप;

    बरसता था मदिर कण-सा स्वच्छ सतत अनंत,

    मिलन का संगीत होने लगा था श्रीमंत।

    छूटतीं चिनगारियाँ उत्तेजना उद्भ्रांत,

    धधकती ज्वाला मधुर, था वक्ष विकल अशांत।

    वात चक्र समान कुछ था बाँधता आवेश,

    धैर्य का कुछ भी मनु के हृदय में था लेश।

    कर पकड़ उन्मत्त से हो लगे कहने, आज,

    देखता हूँ दूसरा कुछ मधुरिमामय साज!

    वही छवि! हाँ वही जैसे! किंतु क्या यह भूल?

    रही विस्मृति सिंधु में स्मृति नाव विकल अकूल!

    जन्म-संगिनि एक थी जो काम बाला, नाम—

    मधुर श्रद्धा था, हमारे प्राण को विश्राम—

    सतत मिलता था उसी से, अरे जिसको फूल,

    दिया करते अर्घ में मकरंद, सुषमा मूल।

    प्रलय में भी बच रहे हम फिर मिलन का मोद,

    रहा मिलने को बचा सूने जगत की गोद!

    ज्योत्सना-सी निकल आई! पार कर नीहार,

    प्रणय विधु है खड़ा नभ में लिए तारक-हार।

    कुटिल कुंतल से बनाती काल माया जाल,

    नीलिमा से नयन की रचती तमिस्रा माल।

    नींद-सी दुर्भेद्य तम की, फेंकती यह दृष्टि,

    स्वप्न-सी है बिखर जाती हँसी की चल सृष्टि।

    हुई केंद्रीभूत-सी है साधना की स्फूर्ति,

    दृढ़ सकल सुकुमारता में रम्य नारी मूर्ति।

    दिवाकर दिन या परिश्रम का विकल विश्रांत,

    मैं पुरुष शिशु-सा भटकता आज तक था भ्रांत।

    चंद्र की विश्राम राका बालिका सी कांत,

    विजयिनी-सी दीखती तुम माधुरी-सी शांत।

    पददलित-सी थकी व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत,

    शस्य श्यामल भूमि में होती समाप्त अशांत।

    आह! वैसा ही हृदय का बन रहा परिणाम,

    पा रहा हूँ आज देकर तुम्हीं से निज काम।

    आज ले लो चेतना का यह समर्पण दान।

    विश्व रानी! सुंदर नारी! जगत की मान!

    धूम लतिका सी गगन तरु पर चढ़ती दीन,

    दबी शिशिर निशीत में ज्यों ओस भार नवीन!

    झुक चली सव्रीड़ वह सुकुमारता के भार,

    लद गई पाकर पुरुष का नर्ममय उपचार!

    और वह नारीत्व का जो मूल मधु अनुभाव,

    आज जैसे हँस हरा भीतर बढ़ाता चाव।

    मधुर व्रीड़ा मिश्र चिंता साथ ले उल्लास,

    हृदय का आनंद कूजन लगा करने रास।

    गिर रहीं पलकें, झुकी थी नासिका की नोक,

    भ्रू-लता थी कान तक चढ़ती रही बेरोक!

    स्पर्श करने लगी लज्जा ललित कर्ण कपोल,

    खिला पुलक कदंब-सा था भरा गदगद बोल!

    किंतु बोली क्या समर्पण आज का हे देव!

    बनेगा चिर-बंध नारी हृदय हेतु सदैव।

    आह मैं दुर्बल, कहो क्या ले सकूँगी दान!

    वह, जैसे उपभोग करने में विकल हों प्रान?

    कवि का रहा है कि जिस प्रकार दो विपरित दिशाओं से चलने वाले दो पथिक निरंतर चलते हुए अचानक एक दूसरे को मिल जाएँ उसी प्रकार हिमालय के उस प्रदेश से श्रद्धा और मनु की भेंट हुई तथा ऐसा जान पड़ता है कि मानो इसी स्थान पर परस्पर मिलने के लिए दोनों अब तक भटक रहे थे। कवि का कहना है कि इन दोनों अब तक भटक रहे थे। कवि का कहना है कि दोनों पथिकों—मनु और श्रद्धा—में से एक तो गृहपति था अर्थात गृह का स्वामी था और दूसरा निस्वार्थ भावनाओं से युक्त अतिथि। इस प्रकार यहाँ मनु को गृहपति कहा गया है और श्रद्धा को अतिथि। कवि कह रहा है कि दोनों अर्थात मनु और श्रद्धा में से एक यदि प्रश्न था तो दूसरा उसका उचित उत्तर। इसका अभिप्राय यह है कि श्रद्धा, मनु के अभावों की पूर्ति करने वाली थी और वह उनके हृदय की शून्यता दूर कर उससे मधुरता का संचार करती थी।

    कवि का कहना है कि यदि मनु जीवन के अथाह समुद्र थे तो श्रद्धा उस समुद्र थे तो श्रद्धा उस समुद्र में हलचल उत्पन्न करने वाली एक छोटी सी चंचल लहर थी अर्थात वह उन्ही का अंश थी और यदि मनु नवीन प्रभात के समान थे तो श्रद्धा एक अमूल्य स्वर्गीय किरण के समान थी। इस प्रकार श्रद्धा और मनु का पारस्परिक संबंध व्याप्य-व्यापक अंश-अशी भाव द्वारा व्यक्त कर, कवि ने यही कहना चाहा है कि मनु और श्रद्धा एक दूसरे से संबंधित हैं तथा वे किसी भी प्रकार पृथक्-पृथक् नहीं माने जा सकते हैं।

    कवि कह रहा है कि जिस प्रकार संध्या के समय नदी किनारे एक नवीन बादल, बिजली की दो रेखाओं से खेलता हुआ अत्यधिक सुंदर जान पड़ता है और वे दोनों रेखाएँ परस्पर उलझती हुई भी पृथक्-पृथक् रह जाती है उसी प्रकार मनु और श्रद्धा के हृदय भी लगातार एक दूसरे को आकृप्ट करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन अभी तक दोनों मे से एक भी दूसरे को पूर्ण रूप से मोहित करने में समर्थ हुआ था। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि मनु और श्रद्धा दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रेम था परंतु दोनों यही चाहते थे कि पहले दूसरा प्रेम प्रकट करे अंत दोनों ही प्रेमनिवेदन करने में झिझक रहे थे।

    कवि का कहना है कि यद्यपि वे दोनों अर्थात श्रद्धा और मनु एक दूसरे के प्रति आत्मसमर्पण की अभिलाषा रखते थे और सच तो यह है कि दोनों ने एक दूसरे को अपना हृदय समर्पित कर दिया था परंतु उनके इस पारस्परिक आत्मसमर्पण में एक दूसरे पर अधिकार करने से भावना विद्यमान थी। इसका अभिप्राय यह है कि श्रद्धा और मनु एक दूसरे को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहते थे और अपनी इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए वे दोनों आगे भी बढ़ रहे थे परंतु उन दोनों के मध्य की संकोच भावना उनकी इस अभिलाषा पूर्ति में बाधक भी थी। इस प्रकार उस एकांत वातावरण में उन दोनों के हृदय में प्रेम भावना क्रीड़ा कर रही थी और जब विधाता भी यही चाहता था कि इन दोनों के बीच की संकोच भावना उनकी इस अभिलाषा पूर्ति में बाधक भी थी। इस प्रकार उस एकांत वातावरण में उन दोनों के हृदय में प्रेम की मधुर भावना उनकी इस अभिलाषा पूर्ति में वाधक भी थी। इस प्रकार उस एकांत वातारण में उन दोनों के हृदय में प्रेम की मधुर भावना क्रीड़ा कर रही थी और अब विधाता भी यही चाहता था कि इन दोनों की बीच की संकोच भावना दूर हो तथा दोनों जीवन पथ पर साथ-साथ बढ़े।

    कवि कह रहा है कि यद्यपि मनु और श्रद्धा नित्य-प्रति एक दसरे के अत्यंत निकट आत जा रहे थे और रोज़ ही कोई कोई ऐसी घटना हो जाती जिसमें उन्हें एक दूसरे के आकर्षण का आभास होने लगता परंतु अभी दोनों के मध्य की संकोच भावना दूर हो सकी थी क्योंकि दोनों में कोई भी खुलकर बातें करता था अर्थात दोनों ही अपना-अपना प्रेम-निवेदन करने में संकोच कर रहे थे। इस प्रकार मनु और श्रद्धा के हृदय की प्रेम भावना छिपी ही रह गई और समीपता का अनुभव करते हुए भी हुए भी ये दोनों उसी प्रकार एक दूसरे से दूर थे जिस प्रकार सधन वन में से होकर जाने वाला पथिक मार्ग के अंत में दीख पड़ने वाले प्रकाश सधन वन में से होकर जाने वाला पथिक मार्ग के अंत में दीख पड़ने वाले प्रकाश को समीप ही समझकर उसकी और बटता चला जाता है परंतु वह प्रकाश उससे दूर ही रहता है।

    कवि संध्या का वर्णन करते हुए कह रहा है कि आभाहीन सूर्य अत्यंत असहाय होकर पश्चिम दिशा रूपी सागर में डूब रहा है और आकाश में बिखरे हुए बादलों के समूह में उसकी किरणें विलीन हो रही हैं। वस्तुत यदि संध्या के समय हम सागर तट पर खड़े होकर सूर्यास्त देखें तो हमें यही अनुभव होगा कि सूर्य सागर में डूब रहा है और वह (सूर्य) ज्यों-ज्यों नीचे की ओर झुकता जाता है त्यों-त्यों उसकी किरणें ऊपर की ओर फैलने लगती हैं। इस सूर्यास्त का आधार लेकर कवि यह कल्पना करता है कि जब सेवक काम करते-करते थक जाता है और जानकर भी उसका निष्ठुर स्वामी उससे बरबस काम कराना चाहता है तब वह कोई कोई बहाना उस काम को टाल देता है, वैसे ही सूर्य भी लगातार चलते-चलते थक गया है और अब वह किसी बहाने संध्या के समय आराम करना चाहता है। कवि का कहना है कि संध्या के कारण भ्रमरी ने मधुर मकरद का संचय भी बंद कर दिया है क्योंकि फूलों की पखुड़ियाँ बंद हो चुकी हैं।

    कवि कहता है कि धुँधले क्षितिज से धीरे-धीरे कालिमा चारों और फैल रही थी और डूबते हुए सूर्य का अंतिम प्रकाश उस कालिमा से अंतिम बार आलिंगन कर रहा था क्योंकि अब तो इसके पश्चात प्रकाश लुप्त हो जाने वाला था। कवि का कहना है कि इस दुख पूर्ण मिलन को देखकर अत्यंत करुणा का संचार हो रहा था उसी समय वन में शोकपूर्ण चकवा-चकवी भी एक दूसरे से बिछुड़ रहे थे। यहाँ यह स्मरणीय है कि इन पंक्तियों में कवि ने अंधकार और सूर्य की अंतिम आभा की भेट को दरिद्र मिलन माना है। इसका अभिप्राय यह है कि जब दो हीन व्यक्ति मिलते हैं तो वे अपने-अपने अभावों की जो कहानी सुनाते हैं उससे वेदना और अधिक गहरी हो जाती है। इसी प्रकार कवि सूर्य और कालिमा तथा चकवा और चकवी का दुहरा वियोग-मिलन दिखाकर संध्या के वातावरण में उदासी को होना स्पष्ट करता है।

    कवि का कहना है कि मनु अभी तक विचारों में लीन हो कुछ सोच रहे थे और उनके कानों में काम का संदेश बार-बार गूँज रहा था। साथ ही उन्होंने जीवनोपयोगी कुछ आवश्यक वस्तुएँ भी एकत्र कर ली थीं और घान, अन्न तथा पशु आदि उनके पास एकत्र हो गए थे।

    कवि कह रहा है कि मनु उस नवीन आगतुक के अर्थात श्रद्धा की किसी भी नवीन अभिलाषा की पूर्ति बड़े उत्साह से करते और उसके सरल शासन में स्वेच्छा से रह रहे थे अर्थात उन्हें उसका वह शासन रुचिकर प्रतीत हो रहा था। कवि का कहना है कि अपनी यज्ञशाला में बैठे हुए मनु नियति की इस उन्मुक्त क्रीड़ा को कौतूहलपूर्वक देखते रहते थे और उन्हें इसमें आनंद आता था।

    कवि कह रहा है कि मनु ने एक दिन यह अत्यंत विचित्र दृश्य देखा कि श्रद्धा के साथ-साथ एक सुंदर पशु रहा है और उन दोनों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो करुणा (श्रद्धा) ने मोह (पशु) में प्राण डालकर साकर कर दिया है अर्थात यदि श्रद्धा करुणा थी तो पशु मोह और वह पशु उस की ममता प्राप्त कर अपने आपको सौभाग्यशाली समझ रहा था। इसे स्पष्ट करने के लिए कहा जा सकता था और श्रद्धा तो करुणा की प्रतिमा होने के कारण समस्त विश्व के लिए स्नेह भावना रखती थी। कवि कह रहा है कि वह (श्रद्धा) अपने कोमल हाथों से उस पशु के अंगों को बार-बार सहला रही थी और वह पशु भी प्यार से गर्दन ऊँची उठाकर उसकी ओर ताकता तथा चेंवर के समान अपनी धने वालों वाली पूँछ हिलाकर अपना प्रेम व्यक्त करता था।

    कवि का कहना है कि श्रद्धा के साथ-साथ चलता हुआ वह पशु कभी तो अत्यधिक प्रसन्न हो अपने रोम समूह से पूर्ण शरीर को उछाल कर श्रद्धा के चारों ओर चक्कर काटने लगता और कभी वह अपने प्रेमपूर्ण भोले नेत्रों से श्रद्धा के मुख की ओर देखकर अपना संपूर्ण प्रेम बिखेर देता था।

    कवि कहता है कि श्रद्धा अत्यंत स्नेह के साथ उस पशु को पुचकारती थी और अपने हृदय की समस्त सुंदर भावनाओं को अपनी ममता से सिंचित कर व्यक्त कर देती थी अर्थात उसके मानस से उस पशु के लिए पवित्र प्रेम था जो कि शनैः शनै ममता का रूप धारण कर रहा था। कवि का कहना है कि इस प्रकार वे दोनों (अर्थात श्रद्धा और वह पशु) मनु के समीप पहुँच गए तथा सुंदर मधुर निश्छल क्रीड़ा करने लगे अर्थात श्रद्धा उस पशु के अंग सहलाती और वह अपनी गर्दन ऊँची उठाकर उसके प्रति प्रेम निवेदन कर देता।

    कवि का कहना है कि श्रद्धा और पशु की पारस्परिक स्नेह भावना को देख कर मनु के हृदय में संचित वैराग्य और संयमरूपी राग ईष्या रूपी तेज़ पवन के चलने से बिखर गई अर्थात अब मनु के हृदय में ईर्ष्या की भावना जाग्रत हुई और मन के भीतर छिपी हुई कसक अग्नि के समान झलकते लगी। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वायु के चलने से राख बिखर जाती है और उसके नीचे दवी हुई आग की चिनगारियाँ फिर चमकने लगती हैं उसी प्रकार मनु के हृदय में भी श्रद्धा के लिए प्रेम रूपी आग सी जल रही थी जिसे कि वे सग्रम और वैराग्य द्वारा अभी तक दबाए हुए थे परंतु अब श्रद्धा को पशु ले साथ क्रीड़ा करते देख वह आग पुन प्रज्वलित हो उठी। कवि कह रहा है कि मनु का हृदय क्षोम से भर गया और वे सोचने लगे कि मुझे यह क्य हो गया हैं तथा मेरा हृदय में इस पीड़ाजनक ईर्ष्या के उठने का कारण क्या है? कवि ने वहाँ मनु द्वारा यह भी कहाया है कि हिचकी आने से जो दशा होती है वही मेरी भी हो रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि ईर्ष्या का एक तीखा घूँट पीने तीखा घूँट पीने से मनु को हिचकी सी गई और जिस प्रहार हिचकी आने से पेट का रस बाहर जाता है उसी प्रकार ईर्ष्या के उदय होने पर मन की भावनाएँ पुन प्रकट हो उठी।

    मनु सोच रहे हैं कि यह कैसी विढंबना है कि पशु होकर भी इस श्रद्धा का इतना अधिक सरल स्नेह प्राप्त है श्रद्धा उनकी अपेक्षा पशु को अधिक मान देती है। इस प्रकार ईर्ष्यालु मनु के हृदय में अब गर्व की भावना जाग्रत हो उठती है और वे कहते हैं कि ये दोनों अर्थात श्रद्धा और पशु मेरे ही अन्न से इस घर में पलते हैं पर किसी को भी मेरी चिंता नहीं है और मेरा इस घर में कुछ भी महत्व नहीं है परंतु यदि मैं इन्हें अन्न दूँ तो भला ये कैसे जीवित रह सकते हैं। मनु का कहना है कि वे सब अर्थात श्रद्धा और पशु आदि अपना-अपना भाग तो ले लेते हैं पर मेरा तिरस्कार करते हुए मेरा भाग मेरे सामने फेंक देते है।

    मनु कहते हैं कि मेरे प्रति श्रद्धा का व्यवहार तो कृतघ्नता का ही द्योतक है और यह नीच कृतध्नता चिकनी शिला पर लगी हुई उस काई के समान है जो उस शिला को चिकना बनाकर जाने कितने लोगों के शरीर को चोट पहुँचाती है। मनु का कहना है कि आज यह कृतध्नता ही प्रकट करते हैं तथा इससे मनु को अत्यधिक पीड़ा होती है। मनु कहते हैं कि श्रद्धा और इन पशुओं ने मेरी सारी स्वतंत्रता छीन ली तथा ये तो एक प्रकार के डाकू ही हैं जो मेरे यहाँ रहकर भी मुझे किसी प्रकार का कर नहीं देते और स्वयं तो अक्षस्य अपराध करते हैं परंतु मुझसे वही आशा करते हैं कि मैं उन्हें हमेशा सुख प्रदान करता रहूँ। यहाँ कर प्रदान करने से मनु का अभिप्राय यह है कि वे चाहते थे कि श्रद्धा और पशु उनके पशु आदि उन्हें भी अपना स्नेह प्रदान करें परंतु श्रद्धा मनु की उपेक्षा कर, पशु के साथ ही क्रीढामग्न थी अंत उनके हृदय में स्वाभाविक खीझ उत्पन्न हो रही थी।

    मनु का कहना है कि इस जगत में जो भी वस्तुएँ स्वाभाविक रूप से सुंदर महान हैं, उन सबका एकमात्र स्वामी मैं ही हूँ अंत मैं चाहता हूँ कि वे सब मेरे उपभोग में आएँ। मनु अपने आपको सागर की अशांत बडवानल के समान समझते हैं और उनका कहना है कि मैं उसी अग्नि के समान नित्य ही जलता और दुखी रहता हूँ। साथ ही जिस प्रकार सागर की लहरें उस प्रज्जवलित याग्नि को शीतलता प्रदान कर शांत करती है उसी प्रकार मनु भी यही चाहते हैं कि इस जगत की सभी विभूतियाँ उनकी इच्छाओं की पूर्ति में साधन बने। वस्तुत कवि ने बडवाग्नि से मनु के मन की ज्वाला की तुलना कर यह स्पष्ट करना चाहा है कि जिस प्रकार वह सागर के जल के अंदर ही जलती रहती है और ऊपर से दिखाई नहीं देती उसी प्रकार मनु के मन की प्रेमाग्नि भी मन के अंदर ही धधक रही थी।

    कवि कह रहा है कि जब मनु श्रद्धा और पशु की पारम्परिक क्रीड़ा को देख विचार मग्न से थे तभी यह उदार हृदय श्रद्धा उनके पास पहुँच गई। उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो कोई चंचल शिशु खेलते-खेलते कुछ भूल कर उस विस्मृत अवस्था में इधर-इधर फिर रहा हो। इस प्रकार श्रद्धा के मुख पर शैशवोचित सरलता दीख पड़ रही थी। कवि का कहना है कि श्रद्धा ने मनु से आकर पूछा कि तुम क्यों अभी तक इस प्रकार विचार मग्न बैठे हुए ही और तुम्हें देखने में ऐसा जान पड़ता है कि मानो तुम्हारे नेत्र कही अन्यत्र विचर रहे हैं तथा कान कहीं और हैं अर्थात तुम्हारी मन स्थिति ठीक नहीं है।

    श्रद्धा मनु से कहती है कि तुम्हारा मन कहाँ विचर रहा है और तुम्हें क्या हो गया है तथा तुमने आज इतना परिवर्तन क्यों दिखाई पड़ रहा है। कवि का कहना है कि जिस प्रकार बीन की मधुर ध्वनि सुनते ही सर्प का उठा हुआ फण झुक जाता है उसी प्रकार श्रद्धा की मधुर वाणी सुनकर मनु के मन से उठने वाली क्षोम की उमग भी समाप्त हो गई अर्थात उनकी ईर्ष्या कम होने लगी और आयेश भी समाप्त सा हो गया। अब श्रद्धा अपने कोमल सुंदर हाथ से मनु का शरीर सहलाने लगी और मनु उसका सुंदर रूप देखकर शांत हो गए।

    कवि का कहना है कि श्रद्धा के कोमल और मधुर स्पर्श से मनु का विक्षोभ शांत हो गया और उन्होंने उससे कहा कि हे अतिथि, तुम अभी तक कहाँ थे और तुम्हारे साथ रहते हुए भी मुझे अभी तक तुम्हारा स्नेह प्राप्त हो सका। मनु श्रद्धा से