पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ
patal nayan kokanad ke se dal dou
पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ,
बलभद्र बासर उनीदी लखो बाल मैं।
सोभा के सरोवर में बाड़व की आभा कैधौं,
देवधुनी भारती मिली है पुन्यकाल मैं॥
काम-कैवरत कैधौं नासिका उडुप बैठो,
खेलत सिकार तरुनी के मुख-ताल मैं?
नोचत सितासित में लोहित लकीर मानो,
बाँधे जुग मीन लाल रेशम की डोर मैं॥
यह पराया देश है, यहाँ नहीं रहना है। यह संसार काग़ज़ की पुड़िया है जो एक बूँद पानी से गल जाती है। यह काँटों की झाड़ी है जिसमें उलझकर लोग मर जाते हैं। यह झाड़−झंखाड़ है जो आग लगते ही जल जाता है। कबीर कहते हैं कि सुनो भाई साधु, सतगुरु का नाम ही आख़िरी ठिकाना है।
- पुस्तक : हिंदी काव्य गंगा, प्रथम भाग (पृष्ठ 189)
- संपादक : सुधाकर पांडेय
- रचनाकार : बलभद्र मिश्र
- प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी
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