आघात
इस पहर एक आवाज़ आती है
अपनी ही साँस चलने की
इस पहर मेरे ही प्राणों के स्पंदन से
चलती है यह सृष्टि
इस पहर चीज़ों के यूँ होने का
मैं ही हूँ दुखद उद्गम
इसी पहर एक चिड़िया अपने घोंसले में
स्वप्न देख रही है
कि यह दुनिया सुंदर हो रही है
एक स्त्री अपनी व्यथा को उतारकर
रख रही है एक तरफ़
चिरपरिचित अपने परिधान को
अपने लंबे बालों को खोलकर दोबारा बाँध रही है
जैसे किसी तैयारी में हो
कहीं जाने की आतुरता हो उसमें
एक सादगी में जैसे वह उतरना चाहती हो
पार करना चाहती हो जैसे कोई नदी
वह पार उतर भी जाती है
जाती हुई दिखती है फिर उधर
जिधर प्रकृति है और हरीतिमा
नए परिधान उसके
जिनमें प्रसन्नचित्त वह प्रतीक्षा करती है
नए आघात की
- पुस्तक : स्वप्न समय (पृष्ठ 20)
- रचनाकार : सविता सिंह
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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