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ख़ुश रहो

khush raho

सरबजीत गरचा

सरबजीत गरचा

ख़ुश रहो

सरबजीत गरचा

दीवारों पर पलस्तर पूरा हो गया है साहब

अब हम चलते हैं

आप पानी मारते रहना

पानी जितना रिसेगा

उतनी ही मज़बूत होगी दीवार

यह कहकर उस राजमिस्त्री ने

उस दिन की मज़दूरी के लिए

अपना हाथ आगे बढ़ाया

पिता ने पैसे थमाए और

धीरे से बंद कर दी मिस्त्री की मुट्ठी

मानो कह रहे हों इस घर की याद

अब तुम्हारे हाथ में है

इसे बड़े जतन से रखना

ताज़े पलस्तर की गंध से

पूरा घर महक रहा था

ठंडी दीवारों को बार-बार

हाथ लगाने और उनसे सटकर

खड़े रहने का मन करता था

छूने पर लगता जैसे

दीवार के ठीक पीछे खड़ा है मिस्त्री

मैं उससे कुछ कहना चाह रहा हूँ

लेकिन वह मुझे सुन नहीं पा रहा है

दूसरी तरफ़ जाने का भी कोई फ़ायदा नहीं

जब तक मैं वहाँ पहुँचूँगा वह जा चुका होगा

सालों बाद अब उभरने लगी हैं

घर में दरारें

ख़ुश रहो कहना जो भूल गया था मिस्त्री को

और वह भी शायद किसी छोटी-सी बात पर

नाहक़ ग़ुस्सा होने से बच नहीं पाया होगा

उसने ज़ोर से भींची होगी अपनी मुट्ठी

तभी तिड़क गई होगी

उसके हाथों में सँजोई

मेरे घर की स्मृति

अब मैं किसी को ख़ुश रहो

कहना नहीं भूलता

स्रोत :
  • रचनाकार : सरबजीत गरचा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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