उस जनपद का कवि हूँ
us janpad ka kawi hoon
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला—नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता
सकता है। वह उदासीन बिल्कुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गए नहीं हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँस बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : त्रिलोचन
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1985
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