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उजले दिन ज़रूर

ujle din zarur

वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल

उजले दिन ज़रूर

वीरेन डंगवाल

और अधिकवीरेन डंगवाल

     

    निराला को

    आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे

    आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
    है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
    आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
    संशय-विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

    होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
    तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे।

    तहख़ानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
    जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
    हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
    चीं-चीं, चिक्-चिक् की धूम मचाते घूम रहे

    पर डरो नहीं, चूहे आख़िर चूहे ही हैं,
    जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे।

    यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई
    लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
    जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
    लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है।

    सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
    हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे।

    मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
    हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
    हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
    हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।

    आए हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष
    इसके आगे भी तक चलकर ही जाएँगे,
    आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 148)
    • रचनाकार : वीरेन डंगवाल
    • प्रकाशन : नवारुण
    • संस्करण : 2018

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