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स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह

sparsh jo kisi aur ko saumpna chahti thi wo

पवन करण

पवन करण

स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह

पवन करण

और अधिकपवन करण

    जितनी ख़ामोश वह उतना ही शांत एक चेहरा

    लेता जा रहा उसके भीतर आकार

    सहेलियों से घिरी वह सोचती जब मैंने बचा ही लिया

    किसी के जादुई स्पर्श से ख़ुद को

    तब मैं आराम से तैरूँगी किसी की मीठी झील में,

    वह सोचती कैसे बच गई मैं बिना संग के

    जबकि मेरी साथिनों ने बाँट लिए क्षण-विरल

    वह सोचती कितना ग़ज़ब यह किन्हीं हाथों ने

    छुआ तक नहीं उसे, भला कोई मानेगा

    मगर यह सच जानती वह ही, सुनकर

    मन ही मन उसे झूठा कहती सहेलियाँ

    दबा लेतीं दाँतों तले उँगलियाँ

    जब वह बतलाती कि उसे दिखाकर फेंका गया

    पत्थर से लिपटा ऐसा कोई ख़त नहीं

    छोटे-से उसके जीवन में जिसे उठाने

    अकेली गई हो वह घर की छत पर

    ऐसा नहीं कि वह भीतर से सूखी थी

    या अब तक झरना नहीं फूटा था उसके भीतर

    या पानी ने शुरू नहीं किया था उसे परेशान करना

    या उसे स्वप्न नहीं आते थे, या पसंद नहीं थे उसे गीत

    वह भी सबकी तरह अकेले में ख़ुद को

    देर तक निहारती थी और लजाते हुए

    ख़ुद को हाथों से ढाँप लेती थी

    जब कोई उसे भी कुहनियाँ जाता वह भी

    ग़ुस्से या हँसी को अपने भीतर दबा जाती

    सबकी तरह देह नज़रों से बचा पाना

    उसके भी लिए असंभव था सो वह लगातार

    अपनी नज़रों को बचाती, और जब तक कोई उसकी

    चालाकी समझ पाता वह फिसल जाती अपने पानी में

    हालाँकि ख़ुद को प्रेम से बचाने की कोई

    निश्चित योजना नहीं थी उसकी लेकिन वह बची हुई थी

    सो बची हुई थी और अपने नशे में चुप थी

    सब सोचते बड़ी हो रही है कोई तो होगा?

    सबके साथ वह भी सोचती कहीं कोई तो होगा

    और जो होगा उसका चेहरा भी होगा एक

    अभी तो वह उसके भीतर बे-चेहरा था

    वह कम बोलती लेकिन उससे करने के लिए

    वह लगातार अपने भीतर ढेर सारी बातें

    करती जा रही थी जमा, उसे अपने रंग में रँगने के लिए

    रंगों में रंग मिला-मिलाकर बनाती जा रही थी

    नए-नए रंग, उस पर झुक जाने के लिए पेड़ों पर

    पत्तियों की शक्ल में उगाती जा रही थी स्वप्न

    मगर बाहर ख़ुद को महफ़ूज़ मानती वह

    नहीं रख सकी ख़ुद को घर में महफ़ूज़

    जिनके बारे में वह कभी सोच भी नहीं सकती थी

    ऐसे दो हाथ अचानक आए

    और आकर छेड़ गए उसके तारों को

    किसी के लिए प्रतीक्षारत उसके भीतर की

    साफ़-सुथरी दुनिया को कर गए अस्त-व्यस्त

    अनचाहे ही उसके भीतर आकार ले रहे

    एक चेहराविहीन चेहरे पर आकर चिपक गया एक चेहरा

    वह स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह

    उस पर फेर गया अपनी खुरदुरी उँगलियाँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 75)
    • रचनाकार : पवन करण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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