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सिलबट्टा धोती लड़कियाँ

silbatta dhoti laDkiyan

मनीष यादव

मनीष यादव

सिलबट्टा धोती लड़कियाँ

मनीष यादव

और अधिकमनीष यादव

    विवाह के बाद ससुराल जाते समय

    माँ ने सिलबट्टा दिखाते हुए

    ओस भरी आँखो से कहा था–

    वहाँ की सिलवट पर पीस देना इसपे मसालों के साथ

    मायके से बिछड़ने का दु:ख!

    सिलबट्टे के समीप जाने के पश्चात

    लहसुन के पोट की भाँति खुलता था मन

    उसके पत्थर को उठा पानी से धोते समय

    ऐसी अनुभूति होती थी

    जैसे धुल रहा हो मन का कीचड़ भी

    किंतु अब माँ सिर्फ़ स्मृतियों में क़ैद है!

    नईहर, माँ के दिए संदूक में।

    और सिलबट्टा, स्टोर रूम के किसी एक कोने में

    देह को बरजोरी नहीं थकाना हमारा निर्णय रहा।

    किंतु मिक्सर के पीसे मसाले की सुगंध

    अब केवल सब्ज़ी तक जाती है...

    ह्रदय का एक पोर तो गंधहीन ही महसूस होता है

    अब पीड़ा को धुलने की दिनचर्या भी समाप्त हो चुकी है

    और आत्मा से संवाद का वह प्रश्नकाल भी।

    सुख तो केवल रिश्तेदारों की भाँति

    पाँत लगाने आता है कुछ क्षण!

    दु:ख मेरा सबसे प्रिय शुभचिंतक है

    बेटियों ने जाना है

    बसंत मे अँधे हो जाने का दु:ख

    उनसे किसी ने नहीं पूछा

    आषाढ़ की बारिश में मौन हो जाने का कारण!

    आषाढ़ में उस स्त्री का जन्मदिवस आता है

    पर अब माँ नहीं आती

    और ही आता है अब उपहार में माँ का वक्त से पहले बुना स्वेटर।

    गंगा के मैदान में रहने वाली मैं

    पच्चीस सालों से पहाड़ों के बीच रह रही

    अपने पैंतालीसवें बरस की उम्र में

    अपनी बेटी को देखते हुए सोच रही हूँ–

    आषाढ़ चुका है

    बुनना चाहिए बेटी के लिए मुझे भी एक स्वेटर

    शायद मेरी माँ मुझमें मिल जाए॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीष यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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