श ष स पड़ोसी हैं
भाषा जब से बनी तभी से संग-साथ है इनका
जहाँ एक का काम वहाँ एक लग जाता है
जहाँ दूसरे का वहाँ दूसरा
कभी-कभी एक वाक्य में होते हैं सभी साथ-साथ
अपनी ज़रूरी उपस्थिति से करते वाक्य का बड़ा मन
व्यंजन के साथ लगे रहते हैं
वक़्त ज़रूरत यदि साथ के लिए स्वर ने पुकारा
तो वहाँ भी करने लगते हैं अपने ज़िम्मे का काम
बच्चों के अक्षर ज्ञान में
मिठास की ज़रूरत रेखांकित करता शक्कर का श है
षट्कोण की पहचान कराता ष
सुपारी काटने के सरौता से चिन्हाया जाता स है
जिस जनपद में अधिक प्रचलन में होती है जो चीज़
उसके नाम के पहले अक्षर से चिन्हाए जाते हैं ये तीनों
मैं गाँव-पुरवा से आता हूँ
बोली-बानी से बनी है मेरी ज़बान
इसीलिए इन तीनों का उच्चारण
लगभग एक ही तरह से करती है मेरी ज़बान
महानगर में इन तीनों को बोलते
पहचान लिया जाता हूँ कि
किसी गाँव-जवार से ही है मेरा वास्ता
जब 'भाषा' में ष पूरा लिखता हूँ
'भाष्य' में आधा
तो आधा न लिखा हुआ
लिखे आधे के लिए
बहुत महीनता से देता रहता है अपनी साँस
इसी तरह श और स भी
भाषा-विन्यास में निभाते हैं अपनी भूमिकाएँ
अक्षर में ही यह शक्ति-सामर्थ्य है कि
आधा होकर भी असर रखता है पूरंपूर
ध्वनि-विन्यास में श ष स तीनों
अपनी मौलिकता में ही हैं साथ
इनका साथ होना देता है हमें भी
साथ होने की तमीज़
सगोत्री ही हैं तीनों
पृथ्वी में एकदम पुरातन साथी
लेकिन कंठ में नित-नवल
कभी-कभी तो तीनों मुझे रंगमंच के पारंगत पात्र लगते हैं
एक अपना षड्ज सुर लगाता है
दूसरा शोकगीत पर रोता है
छुपाकर अपनी ही हथेलियों से अपना चेहरा
तीसरा रोते हुए को थमाता है पानी से भरा गिलास
वर्णतालिका में नीचे बैठे हुए श ष स
भाषा में बहुत ख़र्च होने पर भी
सर्वशेष हैं
ये शक्य हैं
सम हैं
विषम हैं
भिन्न षड्ज हैं
लेकिन अभिन्न का सूत
बुने हुए है एक-दूसरे को, एक दूसरे में
तीनों की अपनी-अपनी धूप है
अपनी-अपनी ऊष्मा
लेकिन साथ का उजाला
भाषा का चरित्र चमकाता रहता है!
- रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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