मुझे इंकार है हर उस सूरज के साथ से
जहाँ मैं सूरजमुखी बनी उसे निहारना ही अपना फ़र्ज़ पाऊँ
बदलती रहूँ अपनी दिशाएँ, उसकी दिशाओं के मुताबिक
न समझूँ, न जानूँ, न अपनी दिशाएँ पहचान पाऊँ,
मुझे इंकार है हर उस चाँद के साथ से
जिसकी ठंडक की कीमत मैं ठहरी झील बन चुकाऊँ
भले ही सुलगा हो तन भी, मन भी
पर ठहरकर मैं क्यों आईना बन चाँद का
ख़ुद में उठते भँवर के बीच, उसे निहारने तक सिमट जाऊँ,
मुझे इंकार है मौसमी बरसाती रात से
हर झुलसता दिन मेरे हिस्से आए
और बादल तब बरसे, जब उसका जी चाहे
मैं अपने ग़ुबार को ही ओढ़ लूँगी, बिछा लूँगी
बूँदें बारिश की हों या ठंडक चाँद की
जब मैं चाहूँगी, तभी कपाट खोल उन्हें भीतर आने दूँगी,
मेरी सलवटों को तुम भी तब ही तो मिटा पाओगे
जब मैं तुममें समाऊँगी, तुम मुझमें समाओगे
एक पहल से नहीं पूरी होती कोई पूर्ति
ये जिस्म भी पूरा तब होगा
जब आधा मैं अपने को, आधा तुम अपने को मिटाओगे
फिर क्यों हर कहानी में तुम रहो पूरे, मैं अधूरी
बिना मेरे अधूरेपन को भरे तुम भी अधूरी कहानी ही बन जाओगे...
- रचनाकार : दामिनी यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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