वृद्धाएँ धरती का नमक हैं
wriddhayen dharti ka namak hain
‘कपड़ा है देह’, ...’जीर्णाणि वस्त्राणि’ ...वाला
यह श्लोक ‘गीता’ का, सुना था कभी बहुत बचपन में
पापा के पेट पर
पट्ट लेटे-लेटे!
संदर्भ यह है कि
दादाजी गुज़र गए थे,
रो रहे थे पापा धीरे-धीरे
और हल्की हिचकियों से
हिल जाता था जो कभी पेट उनका,
मुझको हिचकोले का आनंद आता था,
हालाँकि डरी हुई थी मैं यों सबके एकाएक रो पड़ने से,
बहुत चकित थी कि जो कभी नहीं रोते थे,
केवल रुलाते थे,
वे सब भी आज रो रहे हैं बुक्का फाड़े,
डरी हुई—सहमी हुई थी—
तभी तो यों चिपकी थी पापा से
पसीने से तर उनके बनियान की तरह
जो शायद फटी भी हुई थी।
समझा रहा था कोई उनको—
‘क्यों रो रहे हो कि
यह देह कपड़ा है,
फटा हुआ कपड़ा बदल देती है आत्मा तो
इसमें रोना क्या, धोना क्या!’
मैं क्या समझी, क्या नहीं समझी—
अब कुछ भी याद नहीं,
अब बस इतना जानती हूँ ‘जीर्णाणि वस्त्राणि’ के नाम पर—
कपड़े जब तार-तार होने लगते हैं,
बढ़ जाती है उनकी उपयोगिता!
फटे हुए बनियान बन जाते हैं झाड़न
और पुराने तौलिए पोंछे का कपड़ा।
फटी हुई साड़ियाँ दुपट्टे बन जाती हैं,
बन जाती हैं बच्चों की फलिया।
धोती के कोरों का अच्छा बनता है इजारबंद,
कहीं न कहीं सबसे मिल जाता है उनका तार-छंद
जो फटकर तार-तार हो जाते हैं—
सार्वजनिक बन जाती है जिनकी निजता!
वृद्धाएँ धरती का नमक हैं,
किसी ने कहा था!
जो घर में हो कोई वृद्धा—
खाना ज़्यादा अच्छा पकता है,
परदे-पेटीकोट और पायजामे भी दर्ज़ी और रफ़ूगरों के
मुहताज नहीं रहते,
सजा-धजा रहता है घर का हर कमरा,
बच्चे ज़्यादा अच्छा पलते हैं,
उनकी नन्ही-मुन्नी उल्टियाँ सँभालती
जगती हैं वे रात-भर,
उनके ही संग-साथ से भाषा में बच्चों की
आ जाती है एक अजब कौंध
मुहावरों, मिथकों, लोकोक्तियों,
लोकगीतों, लोकगाथाओं और कथा-समयकों की।
उनके ही दम से
अतल कूप ख़ुद जाते हैं बच्चों के मन में
आदिम स्मृतियों के।
घुल जाती हैं बच्चों के सपनों में
हिमालय-विमालय की अतल कंदराओं की
दिव्यवर्णी-दिव्यगंधी जड़ी-बूटियाँ और फूल-चूल!
रहती हैं वृद्धाएँ, घर में रहती हैं
लेकिन ऐसे जैसे अपने होने की ख़ातिर हों क्षमाप्रार्थी
—लोगों के आते ही बैठक से उठ जातीं।
- रचनाकार : अनामिका
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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