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प्रत्यावर्तन

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अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

विवेक जेना

विवेक जेना

प्रत्यावर्तन

विवेक जेना

और अधिकविवेक जेना

    कब तक फिरता कोहरे में

    अथवा चाँदनी में, मृत तितलियों और

    सूखे पत्तों द्वारा बोझिल कुछ हवा में?

    लौटना निश्चित था, अतः हम लौटे यहाँ

    और कमरे में हर कोने में छुपी आकृतियों को

    बार-बार देखकर भी पहचाना किसी को?

    पहले शायद हमने सोचा कि कमरा है

    अँधेरा, अतः परिचित और पुरातन होने पर भी

    डर लगता पार करने में देहली।

    फिर एक बार दीप जलाने पर यह हवा

    मृत पक्षियों के पंख और तितलियों के डैने

    अथवा सूखे पत्तों को छोड़कर बाहर,

    केवल ज़रा-सी चाँदनी वातायन होकर

    लाए इस घर के अंदर तो शायद हम देखेंगे प्रकोष्ठ में,

    सब कुछ असबाब और पुरानी छवियाँ हैं

    अपनी-अपनी जगह पर जैसे थीं पहले,

    जब हम आए थे बहुत दिन पहले।

    फिर हवा ने खोल दिए सारे झरोखे

    और वातायन से रही चाँदनी में

    कोठरी के सारे कोने दिख गए तब

    संभ्रांत और लंबे-लंबे देवदार की छवि थी

    था असबाब, फूलदान, थाक भरी अलमारी

    जिन्हें भूलने हम खोजते रहे चाँद और हवा

    और जहाँ से बाध्य हो आए थे लौटकर।

    मैंने देखा था केवल वह आधी छाँव आधा आलोक

    सागर में तैरते कई दिन मृत देह-सी

    कुछ आकृतियाँ पड़ी हैं इधर-उधर उस फ़र्श पर

    और कुछ तितलियों के डैने, पक्षियों के पंख

    अंदर मैं खड़ा रहा, अकेला, कोठरी में

    और बाहर सिर पीट रो रहा

    चाँदनी भींगा विकल पवन।

    तुम शायद गुम गई कोहरे में, चाँदनी में,

    जब पवन हो गया बोझिल,

    और इसलिए द्वार-झरोखे बंद करने पर

    मैंने सुना है पवन का स्वर आख़िरी बार

    दूर, बहुत दूर जाने के बाद

    चाँदनी, कोहरे और अस्पष्ट रुलाई में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 144)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : विवेक जेना
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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