ओ माँ
सरयू के किनारे अनवरत प्रार्थना में लीन माँ,
यमुना का पानी मैं पीता हूँ
और जिस मकान में मैं रहता हूँ,
नहीं कह सकता,
शायद यमुना को पाट कर बनाया था सरकार ने
वह नदी अब कहाँ बहती है
मालूम नहीं
चिंतित हो माँ,
अदृश्य नदी का पानी पीता हूँ
अदृश्य प्रेमिका को प्रेम करता हूँ
अदृश्य बीमारी से डरती हो माँ
दूर देश में सिंधु के किनारे
दूर देश में यांग्त्ज़े के किनारे
दूर देश में अमेज़न के किनारे
या तुम्हारे देश में यमुना के किनारे माँ
असंख्य हत्याएँ होती हैं
नदियाँ ग़ायब हो जाती हैं
और उन पर मकान बन जाते हैं
असंख्य लोगों को नहीं मिलता भोजन
नहीं मिलता प्रेम
ओ प्रार्थना में लीन माँ
अपनी सरयू से पूछना
क्या उसे प्रार्थना और विष्ठा के अतिरिक्त
कभी प्रेम मिला?
मैं यमुना से पूछता पर वह कहीं दिखाई नहीं देती
नदियों के किनारे के कवि को कोई सुनता नहीं
सुनता, तो पास की नहीं पर दूर की तो सुन लेता
यांग्त्ज़े के किनारे सुन लेता
क्या कह रहा है सिंधु का कवि—
‘‘उन दुखी माँओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं में सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं’’
या फिर अमेज़न के जंगलों के किनारे सुन लेता
हिमालय में भटकते और पेड़ों से चिपक जाते
फ़क़ीर का करुणा में डूबा एक वाक्य
हम प्रार्थना की अंतर्धारा से जुड़े हैं माँ
सरयू के किनारे की तुम्हारी प्रार्थना
सुनता हूँ मैं दुस्सह नींद में
उसी नींद में ‘माँ-माँ’ कह कर मेरा बिलखना
सुनना तुम और सरयू
धीरे-धीरे बहुत कुछ
अदृश्य हो रहा है
और हम किसी-न-किसी नदी के किनारे के लोग
उन्हीं अदृश्य होती चीज़ों से खींच रहे हैं
अपना अंतस्सत्व
उठो माँ
अदृश्य होती सरयू के किनारे से
उठो अदृश्य होती नदियों के लोगो
अदृश्य होते जंगलों के लोगो
उसी चूसे गये अंतस्सत्व से
दृश्य में बने रहने की जद्दोजहद करने को,
दृश्य में आओ
सरल होने
न्यून होने
प्रार्थना करने
रोने—
का
सभ्यताओं से प्राप्त मंत्र लेकर
आओ!
- रचनाकार : अमन त्रिपाठी
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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