ध्रुपद का टुकड़ा
झुकी थकी-सी ये नीम जैसे कोई हताशा विलाप करती
ये मौन पतझर की रागिनी है जो डूबकर फिर अलाप भरती
अभी जो तुमको लगा कि कोई पहन के साड़ी उधर गया है
वो था भटकता ध्रुपद का टुकड़ा हवा में उड़ता जो घर गया है
कहाँ पे टूटी वो साँस जिसने कि चंद्रमा तक इसे उठाया
निचाट ऊसर की रेह में भी हँसी का झरना कभी बहाया
हवा को अब तक है याद उसकी उसी से जीवन में है रवानी
वही तो निर्जन की बाँसुरी है वही तो सबकी नज़र का पानी
वो साँस चलती है धौंकनी-सी उसी में दुनिया दहक रही है
कभी वो चिड़िया की प्यास बनकर निदाध में भी चहक रही है
उसी की रंगत है रेत में जो मरीचिका-सी लहक रही है
कभी पिया था नदी का पानी उसी नशे में बहक रही है
मघा के बादल गरज रहे हैं गगन-गुफा में जो साँस घुसती
हलक़ में काँटा अभी फँसा है ग़ज़ब की चुप्पी में साँस घुटती।
- पुस्तक : एक पेड़ छतनार (पृष्ठ 63)
- रचनाकार : दिनेश कुमार शुक्ल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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