माहवारी
mahvari
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जाँघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियाँ
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रुलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हिस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़ लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफ़िस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूँ कि हर महीने के
इस पाँच दिवसीय झँझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूँ,
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूँ।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता है,
कल के अधूरे काम पर कसकर डाँट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमज़ोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हिस्पर के ही देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख़्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेज़ी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहाँ राहत थी
अस्सी रुपए में ख़रीदे आठ पैड की बदौलत
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और मेरे कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है,
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं सँभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़-नख़रे’ सह लेते हैं
और हँसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौक़े देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूँ
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी न जताऊँ?
और न ही समझ पाती हूँ
कि कैसे तुम्हें ये समझाऊँ!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहा आती हूँ,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक़्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूँ।
और इसी माहवारी के निरंतर दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूँ,
जब अपनी जान पर खेल
नौ महीने बाद तुम्हें दुनिया में लाती हूँ।
इसलिए अरे ओ मर्दो!
न हँसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूँ,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूँ।
- रचनाकार : दामिनी यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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