राजसूय के समय देखकर
विभव पांडवों का भारी,
ईर्ष्या-वश मन में दुर्योधन
जलने लगा दुराचारी!
तिस पर मय कृत सभा-भवन में,
जो उसका अपमान हुआ,
कुरुक्षेत्र के भीषण रण का
मानों वही विधान हुआ॥
धर्मराज का सभा-भवन वह
हृदय सभी का हरता था,
उन्नत नभस्थली का विधु-मुख
मानों चुंबन करता था।
चित्र विचित्र रुचिर रत्नों से
मंडित यों छवि पाता था—
इंद्र-धनुष-भूषित मेघों को
नीचा-सा दिखलाता था॥
वह अद्भुत छवि से “अवनी का
इंद्र-भवन” कहलाता था;
अपने कर्त्ता के कौशल को
भली भाँति दरसाता था।
जल में थल, थल में जल का वह
भ्रम मन में उपजाता था;
इसीलिए वह भ्रांत जनों की
बहुधा हँसी कराता था॥
इसी भ्रांति से जल विचार कर
वहाँ सुयोधन ने थल को,
ऊँचा किया वसन-वर अपना
करके चपल दृगंचल को।
तथा अचल निर्मल नीलम सम
था ललाम जल भरा जहाँ;
गमन शील हो थल के भ्रम से
वह उसमें गिर पड़ा वहाँ॥
उसकी ऐसी दशा देख कर
हँस कर बोले भीम वहीं—
“अंधे के अंधा होता है,
इसमें कुछ संदेह नहीं!”
इस घटना से ऐसा दुस्सह
मर्मांतक दु:ख हुआ उसे;
जब तक जीवित रहा जगत् में
फिर न कभी सुख हुआ उसे॥
वीर पांडवों से तब उसने
बदला लेने की ठानी;
किंतु प्रकट विग्रह करने में,
कुशल नहीं अपनी जानी।
तब उनका सर्वस्व जुए में
हरना उसने ठीक किया—
कार्याकार्य विचार न करता
स्वार्थी जन का मलिन हिया॥
भीष्म पितामह और विदुर ने
उसको बहु विध समझाया;
किंतु एक उपदेश न उनका
उस दुर्मति के मन भाया।
उनका कहना वन-रोदन-सा
उसके आगे हुआ सभी—
मन के दृढ़ निश्चय को विधि भी
पलटा सकता नहीं कभी॥
“जुआ खेलना महापाप है”—
करके भी यह बात विचार,
दुर्योधन के आमंत्रण को
किया युद्धिष्ठिर ने स्वीकार।
हो कुछ भी परिणाम अंत में
धर्मशील वर-वीर तथापि,
निज प्रतिपक्षी की प्रचारणा
सह सकते हैं नहीं कदापि॥
छल से तब शकुनी ने उनका
राजपाट सब जीत लिया;
भ्राताओं के सहित स्व-वश कर
सब विध विधि-विपरीत किया।
फिर कृष्णा का पण करने को
प्रेरित किए गए वे जब;
हार पूर्ववत् गए उसे भी
रख कर द्यूत-दाँव पर तब॥
इस घटना से दुर्योधन ने
मानों इंद्रासन पाया;
भरी सभा में उस पापी ने
पांचाली को बुलवाया।
होने से ऋतुमती किंतु वह
आ न सकी उस समय वहाँ,
भेजा इस पर दु:शासन को
होकर उसने कुपित महा॥
राजसूय के समय गए थे
जो मंत्रित जल से सींचे;
जाकर वही याज्ञसेनी के
कच दु:शासन ने खींचे!
बलपूर्वक वह उस अबला को
वहाँ पकड़ कर ले आया;
करने में अन्याय हाय! यों
नहीं तनिक भी सकुचाया॥
प्रबल-जाल में फँसी हुई ज्यों
दीन मीन व्याकुल होती,
विवश विकल द्रौपदी सभा में
आई त्यों रोती-रोती।
अपनी यह दुर्दशा देखकर
उसको ऐसा कष्ट हुआ;
जिसके कारण ही पीछे से
सारा कुरुकुल नष्ट हुआ॥
दुर्योधन-दु:शासन ने यह
समझी निज सुख की क्रीड़ा,
किंतु पांडवों ने इस दु:ख से
पाई मर्मांतक पीड़ा।
तो भी वचन-बद्ध होने से
ये सब पापाचार सहे;
मंत्रों से कीलित भुजंग सम
जलते ही वे वीर रहे॥
“मुझे एक वस्त्रावस्था में
केश खींच लाया जो हाय!
दुष्ट-बुद्धि दु:शासन का वह
प्रकट देख कर भी अन्याय।
सभ्य, ख्यातनामा ये सारे
सभा मध्य बैठे चुपचाप!
तो क्या पुण्य-हीन पृथिवी में
शेष रहा अब केवल पाप?”
सुनकर रुदन द्रौपदी का यों
कहा कर्ण ने तब तत्काल—
“निश्चय सभी स्वल्प है जो कुछ
हो ऐसी असती का हाल
अच्छा, दु:शासन! यह जिसका
बार-बार लेती है नाम,
लो उतार इसके शरीर से
वह भी एक वस्त्र बेकाम॥”
कर्ण-कथन सुन दु:शासन ने
पकड़ लिया द्रौपदी-दुकूल,
किया क्रोध से भीमसेन ने
प्रण तब यों अपने को भूल—
“दु:शासन का उर विदीर्ण कर
शोणित जो मैं करूँ न पान,
तो अपने पूर्वज लोगों की
पा न सकूँ मैं गतिप्रधान॥”
ग्रसी राहु के चंद्रकला-सी
कृष्णा तब अति अकुलानी,
एक निमेष मात्र में उसने
निज लज्जा जाती जानी।
ऐसे समय एक हरि को ही
अपना रक्षक जान वहाँ;
लगी उन्हीं को वह पुकारने
धर के उनका ध्यान वहाँ॥
“हे अंतर्यामी मधुसूदन!
कृष्णचंद्र! करुणासिंधो!
रमा-रमण, भय-हरण, दयामय,
अशरणशरण, दीनबंधो!
मुक्त अनाथिनी की अब तक तुम
भूल रहे हो सुधि कैसे?
नहीं जानते हो क्या केशव!
कष्ट पा रही हूँ जैसे॥
तनिक देर में ही अब मेरी
लुटी लाज सब जाती है,
क्षण-क्षण में आपत्ति भयंकर
अधिक-अधिक अधिकाती है।
करती हुई विकट तांडव-सी
निकट मृत्यु यह आती है,
केवल एक तुम्हारी आशा
प्राणों को अटकाती है॥
दु:शासन-दावानल-द्वारा
मेरा हृदय जला जाता,
बिना तुम्हारे यहाँ न कोई
रक्षक मुझे दृष्टि आता।
ऐसे समय तुम्हें भी मेरा
ध्यान नहीं जो आवेगा,
तो हा! हा! फिर अहो दयामय!
मुझको कौन बचावेगा?
क्रिया-हीन ये चित्र-लिखे से
बैठे यहाँ मौन धारे;
मेरी यह दुर्दशा सभा में
देख रहे गुरुजन सारे!
तुम भी इसी भाँति सह लोगे
जो ये अत्याचार हरे!
निस्संशय तो हम अनाथ जन
बिना दोष ही हाय! मरे॥
किसी समय भ्रम-वश जो कोई
मुझ से गुरुतर दोष हुआ,
हो जिससे मेरे ऊपर यह
ऐसा भारी रोष हुआ।
तो सदैव के लिए भले ही
मुझको नरक-दंड दीजे;
किंतु आज इस पाप-सभा में
लज्जा मेरी रख लीजे॥
सदा धर्म-संरक्षण करने
हरने को सब पापाचार,
हे जगदीश्वर! तुम धरणी पर
धारण करते हो अवतार।
फिर अधर्म-मय अनाचार यह
किस प्रकार तुम रहे निहार,
क्या वह कोमल हृदय तुम्हारा
हुआ वज्र मेरी ही वार?
शरणागत की रक्षा करना
सहज स्वभाव तुम्हारा है;
वेद-पुराणों में अति अद्भुत
विदित प्रभाव तुम्हारा है।
सो यदि ऐसे समय न मुझ पर
दया-दृष्टि दिखलाओगे,
विरुद-भ्रष्ट होने से निश्चय
प्रभु! पीछे पछताओगे॥
जब जिस पर जो पड़ी आपदा
तुमने उसे बचाया है,
तो फिर क्यों इस भाँति दयामय!
तुमने मुझे भुलाया है?
इस मरणाधिक दु:ख से जो मैं
मुक्ति आज पा जाऊँगी,
गणिका, गज, गृध्रादिक से मैं
कम न कीर्ति फैलाऊँगी॥
जो अनिष्ट मन से भी मैंने
नहीं किसी का चाहा है;
जो कर्तव्य धर्मयुत अपना
मैंने सदा निबाहा है।
तो अवश्य इस विपत्-सिंधु से
तुम मुझको उद्धारोगे;
निश्चय दया-दृष्टि से माधव!
मेरी ओर निहारोगे॥
करती हुई विनय यों प्रभु से
कृष्णा ने दृग मूँद लिए;
क्षण भर देह-दशा को भूले
खड़ी रही वह ध्यान किए।
तब करुणामय कृष्णचंद्र ने
दूर किया उसका दु:ख घोर;
खींच-खींच पट हार गया पर
पा न सका दु:शासन छोर!
rajasuy ke samay dekhkar
wibhaw panDwon ka bhari,
irshya wash man mein duryodhan
jalne laga durachari!
tis par mai krit sabha bhawan mein,
jo uska apman hua,
kurukshetr ke bhishan ran ka
manon wahi widhan hua॥
dharmaraj ka sabha bhawan wo
hirdai sabhi ka harta tha,
unnat nabhasthli ka widhu mukh
manon chumban karta tha
chitr wichitr ruchir ratnon se
manDit yon chhawi pata tha—
indr dhanush bhushit meghon ko
nicha sa dikhlata tha॥
wo adbhut chhawi se “awni ka
indr bhawan” kahlata tha;
apne kartta ke kaushal ko
bhali bhanti darsata tha
jal mein thal, thal mein jal ka wo
bhram man mein upjata tha;
isiliye wo bhrant janon ki
bahudha hansi karata tha॥
isi bhranti se jal wichar kar
wahan suyodhan ne thal ko,
uncha kiya wasan war apna
karke chapal driganchal ko
tatha achal nirmal nilam sam
tha lalam jal bhara jahan;
gaman sheel ho thal ke bhram se
wo usmen gir paDa wahan॥
uski aisi dasha dekh kar
hans kar bole bheem wahin—
“andhe ke andha hota hai,
ismen kuch sandeh nahin!”
is ghatna se aisa dussah
marmantak duhakh hua use;
jab tak jiwit raha jagat mein
phir na kabhi sukh hua use॥
weer panDwon se tab usne
badla lene ki thani;
kintu prakat wigrah karne mein,
kushal nahin apni jani
tab unka sarwasw jue mein
harna usne theek kiya—
karyakary wichar na karta
swarthi jan ka malin hiya॥
bheeshm pitamah aur widur ne
usko bahu widh samjhaya;
kintu ek updesh na unka
us durmati ke man bhaya
unka kahna wan rodan sa
uske aage hua sabhi—
man ke driDh nishchay ko widhi bhi
palta sakta nahin kabhi॥
“jua khelna mahapap hai”—
karke bhi ye baat wichar,
duryodhan ke amantran ko
kiya yuddhishthir ne swikar
ho kuch bhi parinam ant mein
dharmashil war weer tathapi,
nij pratipakshai ki prcharna
sah sakte hain nahin kadapi॥
chhal se tab shakuni ne unka
rajapat sab jeet liya;
bhrataon ke sahit sw wash kar
sab widh widhi wiprit kiya
phir kirishna ka pan karne ko
prerit kiye gaye we jab;
haar purwawat gaye use bhi
rakh kar dyoot danw par tab॥
is ghatna se duryodhan ne
manon indrasan paya;
bhari sabha mein us papi ne
panchali ko bulwaya
hone se rtumti kintu wo
a na saki us samay wahan,
bheja is par duhshasan ko
hokar usne kupit maha॥
rajasuy ke samay gaye the
jo mantrit jal se sinche;
jakar wahi yagyseni ke
kach duhshasan ne khinche!
balpurwak wo us abla ko
wahan pakaD kar le aaya;
karne mein annyaye hay! yon
nahin tanik bhi sakuchaya॥
prabal jal mein phansi hui jyon
deen meen wyakul hoti,
wiwash wikal draupadi sabha mein
i tyon roti roti
apni ye durdasha dekhkar
usko aisa kasht hua;
jiske karan hi pichhe se
sara kurukul nasht hua॥
duryodhan duhshasan ne ye
samjhi nij sukh ki kriDa,
kintu panDwon ne is duhakh se
pai marmantak piDa
to bhi wachan baddh hone se
ye sab papachar sahe;
mantron se kilit bhujang sam
jalte hi we weer rahe॥
“mujhe ek wastrawastha mein
kesh kheench laya jo hay!
dusht buddhi duhshasan ka wo
prakat dekh kar bhi annyaye
sabhy, khyatnama ye sare
sabha madhya baithe chupchap!
to kya punny heen prithiwi mein
shesh raha ab kewal pap?”
sunkar rudan draupadi ka yon
kaha karn ne tab tatkal—
“nishchay sabhi swalp hai jo kuch
ho aisi asti ka haal
achchha, duhshasan! ye jiska
bar bar leti hai nam,
lo utar iske sharir se
wo bhi ek wastra bekam॥”
karn kathan sun duhshasan ne
pakaD liya draupadi dukul,
kiya krodh se bhimasen ne
pran tab yon apne ko bhool—
“duhshasan ka ur widirn kar
shonait jo main karun na pan,
to apne purwaj logon ki
pa na sakun main gatiprdhan॥”
grsi rahu ke chandrakla si
kirishna tab ati akulani,
ek nimesh matr mein usne
nij lajja jati jani
aise samay ek hari ko hi
apna rakshak jaan wahan;
lagi unhin ko wo pukarne
dhar ke unka dhyan wahan॥
“he antaryami madhusudan!
krishnchandr! karunasindho!
rama raman, bhay harn, dayamay,
asharnasharn, dinbandho!
mukt anathini ki ab tak tum
bhool rahe ho sudhi kaise?
nahin jante ho kya keshaw!
kasht pa rahi hoon jaise॥
tanik der mein hi ab meri
luti laj sab jati hai,
kshan kshan mein apatti bhayankar
adhik adhik adhikati hai
karti hui wicket tanDaw si
nikat mirtyu ye aati hai,
kewal ek tumhari aasha
pranon ko atkati hai॥
duhshasan dawanal dwara
mera hirdai jala jata,
bina tumhare yahan na koi
rakshak mujhe drishti aata
aise samay tumhein bhi mera
dhyan nahin jo awega,
to ha! ha! phir aho dayamay!
mujhko kaun bachawega?
kriya heen ye chitr likhe se
baithe yahan maun dhare;
meri ye durdasha sabha mein
dekh rahe gurujan sare!
tum bhi isi bhanti sah loge
jo ye attyachar hare!
nissanshay to hum anath jan
bina dosh hi hay! mare॥
kisi samay bhram wash jo koi
mujh se gurutar dosh hua,
ho jisse mere upar ye
aisa bhari rosh hua
to sadaiw ke liye bhale hi
mujhko narak danD dije;
kintu aaj is pap sabha mein
lajja meri rakh lije॥
sada dharm sanrakshan karne
harne ko sab papachar,
he jagdishwar! tum dharnai par
dharan karte ho autar
phir adharm mai anachar ye
kis prakar tum rahe nihar,
kya wo komal hirdai tumhara
hua wajr meri hi war?
sharnagat ki rakhsha karna
sahj swbhaw tumhara hai;
wed puranon mein ati adbhut
widit prabhaw tumhara hai
so yadi aise samay na mujh par
daya drishti dikhlaoge,
wirud bhrasht hone se nishchay
prabhu! pichhe pachhtaoge॥
jab jis par jo paDi apada
tumne use bachaya hai,
to phir kyon is bhanti dayamay!
tumne mujhe bhulaya hai?
is marnadhik duhakh se jo main
mukti aaj pa jaungi,
ganaika, gaj, gridhradik se main
kam na kirti phailaungi॥
jo anisht man se bhi mainne
nahin kisi ka chaha hai;
jo kartawya dharmyut apna
mainne sada nibaha hai
to awashy is wipat sindhu se
tum mujhko uddharoge;
nishchay daya drishti se madhaw!
meri or niharoge॥
karti hui winay yon prabhu se
kirishna ne drig moond liye;
kshan bhar deh dasha ko bhule
khaDi rahi wo dhyan kiye
tab karunamay krishnchandr ne
door kiya uska duhakh ghor;
kheench kheench pat haar gaya par
pa na saka duhshasan chhor!
rajasuy ke samay dekhkar
wibhaw panDwon ka bhari,
irshya wash man mein duryodhan
jalne laga durachari!
tis par mai krit sabha bhawan mein,
jo uska apman hua,
kurukshetr ke bhishan ran ka
manon wahi widhan hua॥
dharmaraj ka sabha bhawan wo
hirdai sabhi ka harta tha,
unnat nabhasthli ka widhu mukh
manon chumban karta tha
chitr wichitr ruchir ratnon se
manDit yon chhawi pata tha—
indr dhanush bhushit meghon ko
nicha sa dikhlata tha॥
wo adbhut chhawi se “awni ka
indr bhawan” kahlata tha;
apne kartta ke kaushal ko
bhali bhanti darsata tha
jal mein thal, thal mein jal ka wo
bhram man mein upjata tha;
isiliye wo bhrant janon ki
bahudha hansi karata tha॥
isi bhranti se jal wichar kar
wahan suyodhan ne thal ko,
uncha kiya wasan war apna
karke chapal driganchal ko
tatha achal nirmal nilam sam
tha lalam jal bhara jahan;
gaman sheel ho thal ke bhram se
wo usmen gir paDa wahan॥
uski aisi dasha dekh kar
hans kar bole bheem wahin—
“andhe ke andha hota hai,
ismen kuch sandeh nahin!”
is ghatna se aisa dussah
marmantak duhakh hua use;
jab tak jiwit raha jagat mein
phir na kabhi sukh hua use॥
weer panDwon se tab usne
badla lene ki thani;
kintu prakat wigrah karne mein,
kushal nahin apni jani
tab unka sarwasw jue mein
harna usne theek kiya—
karyakary wichar na karta
swarthi jan ka malin hiya॥
bheeshm pitamah aur widur ne
usko bahu widh samjhaya;
kintu ek updesh na unka
us durmati ke man bhaya
unka kahna wan rodan sa
uske aage hua sabhi—
man ke driDh nishchay ko widhi bhi
palta sakta nahin kabhi॥
“jua khelna mahapap hai”—
karke bhi ye baat wichar,
duryodhan ke amantran ko
kiya yuddhishthir ne swikar
ho kuch bhi parinam ant mein
dharmashil war weer tathapi,
nij pratipakshai ki prcharna
sah sakte hain nahin kadapi॥
chhal se tab shakuni ne unka
rajapat sab jeet liya;
bhrataon ke sahit sw wash kar
sab widh widhi wiprit kiya
phir kirishna ka pan karne ko
prerit kiye gaye we jab;
haar purwawat gaye use bhi
rakh kar dyoot danw par tab॥
is ghatna se duryodhan ne
manon indrasan paya;
bhari sabha mein us papi ne
panchali ko bulwaya
hone se rtumti kintu wo
a na saki us samay wahan,
bheja is par duhshasan ko
hokar usne kupit maha॥
rajasuy ke samay gaye the
jo mantrit jal se sinche;
jakar wahi yagyseni ke
kach duhshasan ne khinche!
balpurwak wo us abla ko
wahan pakaD kar le aaya;
karne mein annyaye hay! yon
nahin tanik bhi sakuchaya॥
prabal jal mein phansi hui jyon
deen meen wyakul hoti,
wiwash wikal draupadi sabha mein
i tyon roti roti
apni ye durdasha dekhkar
usko aisa kasht hua;
jiske karan hi pichhe se
sara kurukul nasht hua॥
duryodhan duhshasan ne ye
samjhi nij sukh ki kriDa,
kintu panDwon ne is duhakh se
pai marmantak piDa
to bhi wachan baddh hone se
ye sab papachar sahe;
mantron se kilit bhujang sam
jalte hi we weer rahe॥
“mujhe ek wastrawastha mein
kesh kheench laya jo hay!
dusht buddhi duhshasan ka wo
prakat dekh kar bhi annyaye
sabhy, khyatnama ye sare
sabha madhya baithe chupchap!
to kya punny heen prithiwi mein
shesh raha ab kewal pap?”
sunkar rudan draupadi ka yon
kaha karn ne tab tatkal—
“nishchay sabhi swalp hai jo kuch
ho aisi asti ka haal
achchha, duhshasan! ye jiska
bar bar leti hai nam,
lo utar iske sharir se
wo bhi ek wastra bekam॥”
karn kathan sun duhshasan ne
pakaD liya draupadi dukul,
kiya krodh se bhimasen ne
pran tab yon apne ko bhool—
“duhshasan ka ur widirn kar
shonait jo main karun na pan,
to apne purwaj logon ki
pa na sakun main gatiprdhan॥”
grsi rahu ke chandrakla si
kirishna tab ati akulani,
ek nimesh matr mein usne
nij lajja jati jani
aise samay ek hari ko hi
apna rakshak jaan wahan;
lagi unhin ko wo pukarne
dhar ke unka dhyan wahan॥
“he antaryami madhusudan!
krishnchandr! karunasindho!
rama raman, bhay harn, dayamay,
asharnasharn, dinbandho!
mukt anathini ki ab tak tum
bhool rahe ho sudhi kaise?
nahin jante ho kya keshaw!
kasht pa rahi hoon jaise॥
tanik der mein hi ab meri
luti laj sab jati hai,
kshan kshan mein apatti bhayankar
adhik adhik adhikati hai
karti hui wicket tanDaw si
nikat mirtyu ye aati hai,
kewal ek tumhari aasha
pranon ko atkati hai॥
duhshasan dawanal dwara
mera hirdai jala jata,
bina tumhare yahan na koi
rakshak mujhe drishti aata
aise samay tumhein bhi mera
dhyan nahin jo awega,
to ha! ha! phir aho dayamay!
mujhko kaun bachawega?
kriya heen ye chitr likhe se
baithe yahan maun dhare;
meri ye durdasha sabha mein
dekh rahe gurujan sare!
tum bhi isi bhanti sah loge
jo ye attyachar hare!
nissanshay to hum anath jan
bina dosh hi hay! mare॥
kisi samay bhram wash jo koi
mujh se gurutar dosh hua,
ho jisse mere upar ye
aisa bhari rosh hua
to sadaiw ke liye bhale hi
mujhko narak danD dije;
kintu aaj is pap sabha mein
lajja meri rakh lije॥
sada dharm sanrakshan karne
harne ko sab papachar,
he jagdishwar! tum dharnai par
dharan karte ho autar
phir adharm mai anachar ye
kis prakar tum rahe nihar,
kya wo komal hirdai tumhara
hua wajr meri hi war?
sharnagat ki rakhsha karna
sahj swbhaw tumhara hai;
wed puranon mein ati adbhut
widit prabhaw tumhara hai
so yadi aise samay na mujh par
daya drishti dikhlaoge,
wirud bhrasht hone se nishchay
prabhu! pichhe pachhtaoge॥
jab jis par jo paDi apada
tumne use bachaya hai,
to phir kyon is bhanti dayamay!
tumne mujhe bhulaya hai?
is marnadhik duhakh se jo main
mukti aaj pa jaungi,
ganaika, gaj, gridhradik se main
kam na kirti phailaungi॥
jo anisht man se bhi mainne
nahin kisi ka chaha hai;
jo kartawya dharmyut apna
mainne sada nibaha hai
to awashy is wipat sindhu se
tum mujhko uddharoge;
nishchay daya drishti se madhaw!
meri or niharoge॥
karti hui winay yon prabhu se
kirishna ne drig moond liye;
kshan bhar deh dasha ko bhule
khaDi rahi wo dhyan kiye
tab karunamay krishnchandr ne
door kiya uska duhakh ghor;
kheench kheench pat haar gaya par
pa na saka duhshasan chhor!
स्रोत :
पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 74)
संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
संस्करण : 1994
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