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कितना कठोर मन होगा

kitna kathor man hoga

मनीष यादव

मनीष यादव

कितना कठोर मन होगा

मनीष यादव

उस माँ का

जब बेटी की हथेली को चूमते हुए

उसने कहा—

“जाओ ससुराल,

नए यात्रा की शुरुआत में

अपने जीवन-साथी के साथ!”

जबकि माँ को पता था

वह सिर्फ़ अपने साथ “ब्याह” को ले जा रही...

जीवन तो वो कब का प्रेम को समर्पित कर चुकी।

ध्वनि के साथ-साथ

प्रेम विसरण क्यों नहीं करता?

कलेजे को हर रोज़

एक नए हिस्से में विभक्तकर

कब तक सुनाती रहे वो अपने मन की चुप्पी!

क्या सचमुच बाल के सफ़ेद होने की उम्र में

प्रेम की स्मृतियाँ धुँधली हो जाती हैं?

या उसके छोड़े गए प्रेमी के प्रार्थनाओं की धाँह

दिन प्रतिदिन गलाए जाती होगी देह को,

जैसे गल जाते हैं वो सारे गिरे शहतूत!

जिनके बाग में फल तो बहुत सारे होते हैं

किंतु यात्रियों के अंदर आने की अनुमति नहीं।

लड़कीयाँ जो आज ओसारे में घूँघट

और दुआरे में दहलीज़ से बँध चुकी हैं!

कैसे सिहर उठता होगा मन उनका,

जो कभी हँसी-ठिठोली कर

अपने प्रेमी के संग भाग जाने की

तरक़ीब बताया करती थीं अपनी सहेलियों को।

चिंतित मन दिलासा देता है मुझे

कहता है मत रुठो,

किसी दूर अनज़ान शहर में

जंगल में बैठ,

पेड़ की टहनियों को तकते हुए

वह सारी प्रेमिकाएँ लिख रही होंगी एक प्रेम कविता!

भले ही यह किस्सा छिपा हो

कि उनके हिस्से घर आया, प्रेम॥

स्रोत :
  • रचनाकार : मनीष यादव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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