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किराए का मकान

kiraye ka makan

रमेश क्षितिज

रमेश क्षितिज

किराए का मकान

रमेश क्षितिज

और अधिकरमेश क्षितिज

       
    मकान बदलते वक़्त—कस चुकी गठरी के ऊपर
    बैठकर सोच रहा हूँ
    दस वर्ष कहना कोई मामूली वक़्त नहीं!
     
    मीठे सपने जैसा यौवन बीता था इसी कमरे में मेरे
    यहीं बीते थे कॉलेज के दिन
    और शुरू हुई थी सरकारी नौकरी
    यहीं सुनी थी आत्मीय साथी की दुर्घटना की ख़बर
     
    असंख्य फ़साने हैं जिन्हें भूलाया नहीं जा सकता!
    यहीं रहते हुए मिली थी सिल्विया
    वो गहरा प्रेम, जुदाई और आँसू
    फिर दिल में उठे थे दर्द के शूल
    इस मकान के इक-इक कोने ने सुने हैं
    मेरे आँसुओं के आलाप
     
    यह दरीचा चश्मदीद गवाह है—अख़्तर शुमारी में बीते
    मेरे बे-नींद शबों का
    लेकिन स्टेशन के किसी व्यस्त दुकानदार की तरह
    भलीभाँति वाक़िफ़ हुए बिना ही
    हँसते-हँसते विदा कर रहा है
    यह घर आज
     
    किसी को भी खलेगी नहीं मेरी ग़ैर-मौजूदगी
    बल्कि बे-पर्दा ख़ाली खिड़की देखकर
    पूछेगा कोई युवक कमरे का किराया और पानी की आपूर्ति
    मकान मालिक को उसी तरह मिलता रहेगा किराया
    और दुकानदार को मिल जाएगा इक नया ग्राहक
     
    हो सकता है—बॉब मार्ले टाँगे जाएँगे बुद्ध की जगह अब
    महाकवि की जगह मैडोना
    या रखे जाएँगे गमले की जगह टी.वी.
    लेकिन उसी तरह पूरब-पश्चिम ही होंगे पलंग
    (क्योंकि मकान का आकार है ही ऐसा)
     
    कितनी ही प्यारी क्यों न लगे
    बिस्तर पर गिरने वाली चाँद की रौशनी
    आँगन की सरसब्ज़ दूब और पड़ोस की दयालु बुज़ुर्ग औरत
    किसी अज्ञात सफ़र में निकल मुझे ढूँढ़ना है दूसरा मकान
    फिर से बसाना है इक नया जहाँ — जहाँ के मकान में!
    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश क्षितिज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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