कवि केदारनाथ सिंह की स्मृति में
kavi kedaranath sinh ki smriti mein
आना
जैसे आता है वसंत पेड़ों पर ख़िज़ाँ के बाद
आते हैं माह—
आषाढ़ सावन-भादों
ऋतुएँ मसलन—
वर्षा शरद हेमंत शिशिर
आना
जैसे—
आम पर बौर नीम पर निम्बोरी
गेहूँ में दूध दरिया में रवानी
आँखों की कोरों में फ़क़ीरों की ठहरा हुआ करुणामयी पानी—
आना
किसी झिलमिल रंग की स्वप्निल छवि की तरह
बच्चों के ख़्वाबों के चमन में तितली के पंखों पर फैली बू-ए-गुल की तरह
इबादत-ए-हमदम में मशगूल तस्बीह में गौहर-ए-शबनम की तरह
एक जवान होते जाते लड़के की निगाह में रात के तीसरे पहर चाँद का एक लड़की के बालों में खुसें गुलाब में तब्दील हुए की तरह
किसी चित्रकार के तसव्वुर के मरुस्थल में बहती रेत का नदी में तब्दील हुए की तरह—
आना
मुश्तरका-तहज़ीब की चाशनी में डूबी बिस्मिल्लाह ख़ां की शहनाई में गंगा जैसे
तबले पर ज़ाकिर हुसैन के घोड़ों की क़दमताल जैसे
सरोद में अमज़द अली ख़ां के मियाँ की मल्हार जैसे
गिटार में आर्मिक के नृत्यमग्न प्रेमपत्र जैसे
तस्वीरों में यूसुफ़ कार्श की मदर टेरेसा हेलन केलर और
पाब्लो पिकासो के हाथ जैसे—
बेग़म अख़्तर की आवाज़ में इसरार करती
सुदर्शन फ़ाकिर की ठुमरी के जैसे आना—
‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया
देखा देखी बलम होई जाए’—
दिन-ब-दिन ग़ायब होते जाते ठठेरों मदारियों सपेरों के जैसे आना
चौराहों पर लैटरबॉक्स और दुआरी में टाँड़ के जैसे
महज़ एक मछुआरे की कहानियों में ज़िंदा बचे
दुभा कैंचकी कैला बोड़ाकी और उद्दा वाली जोहड़ों के जैसे आना
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के बाहर इलाज के लिए भटकते
एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति के लिए दरख़्तों की छाँव के जैसे—
आना
मुफ़्लिसी में गाँव छोड़ते बेटे के माथे पर चस्पा जैसे एक माँ के विदामयी बोसे असंख्य
मैदान-ए-जंग में दुश्मन सिपाही की गोली से लहूलुहान जैसे एक दुश्मन सिपाही को घूँटभर पानी
हिटलर की क़त्लगाह से चंद और मज़दूर यहूदी स्त्री पुरुष बच्चे न बचा सकने वाले ऑस्कर शिंडलर का जैसे एहसास—
ए-कमतरी से भरा हुआ कंठ—
आना
मृत्यु के निकट जैसे कोई एक इच्छा आख़िरी
मैदान-ए-हश्र में जैसे कोई एक नेकी बहुत ज़रूरी—
आना
अमन का परिचय लिए आती है जैसे बुद्ध के चेहरे पर मुस्कान
दुनिया को और अधिक मुलायम करने का इरादा लिए आता है जैसे माधुर्य
नेरुदा-नाज़िम की किसी प्रेम कविता में
आना
कोई आता है जैसे अपना बरसों बाद तल्ख़ी-ए-दौराँ को पारकर
आती है जैसे कोहो-दमन पर ख़ुर्शीद-ओ-कमर की रोशनी—
आना
कुछ इस तरह आना—
आते हैं लौटकर अनवरत क्रम में जैसे
थके हारे पंछी
नील गगन से अपने अपने बसेरों की ओर
यह बताने
कि आना—
जाने से
कहीं ज़्यादा बेहतर है।
- रचनाकार : आमिर हमज़ा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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