कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा
katri ki rukumini aur uski mata ki khanDit gadyaktha
वीरेन डंगवाल
Viren Dangwal
कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा
katri ki rukumini aur uski mata ki khanDit gadyaktha
Viren Dangwal
वीरेन डंगवाल
और अधिकवीरेन डंगवाल
क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय*
मैं थक गया हूँ
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूँ चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में।
गंगा के ख़ुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ों की लदनी ढोकर
शहर की तरफ़ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊँट
अपनी घंटियाँ बजाते प्रात की सुशीतल हवा में
जेठ विलाप के रतजगों का महीना है
घंटियों के लिए गाँव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुँघरुओं के लिए भी।
रंगीन डोर से बंधी घंटियाँ
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख़ की लंबी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुँघरू से सजा देता है
यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है
यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए।
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।
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दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फ़क़त फ़ितूर जैसा एक पक्का यक़ीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने।
जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज़ और ख़रबूज़े
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे।
‘खटक-धड़-धड़’ की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीण धारा की बग़ल में
सफ़ेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार।
शामों को
मढ़ैया की छत की फूँस से उठता धुआँ
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे—
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देश जाते यात्री को यह दृश्य।
ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा माँ के साथ।
बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के जुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुज़रते हुए ढोरों की भी टाँगें चिर जाती हैं।
लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फ़िरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका।
मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गई।
अब माँ भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह।
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कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गाँव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्यःनिर्वाचित ग्रामप्रधान है।
‘प्रधानपति’—यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातांत्रिक शब्दकोश का।
रामखिलौना ने
बंदूक़ और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है।
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुँचाए हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है।
इस सबसे उसका मान काफ़ी बढ़ा है।
रुकुमिनी की माँ को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
माँ का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है।
रुकुमिनी ठहरी सिर्फ़ चौदह पार की
‘भाई’ कहकर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है।
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मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी माँ को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जेसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है।
कभी सिर्फ़ एक अस्फुट क्षीण कराह।
मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाक़े के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार ‘विधायक प्रतिनिधि’
अथवा ‘प्रेस’ की तख़्ती लगी रही है।
यही रसूख़ होगा या बूढ़ी माँ की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफ़ंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से।
एवम् प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द ‘समाज’ का मानी भी पता नहीं।
सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है
और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उस में से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके ख़ालीपन में पटकती है वह अपना शीश।
यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बग़ल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।
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रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी माँ की सपने देखने की आदत
नहीं गई।
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बाँहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लाँघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है।
कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़ियाँ।
सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गई।
उसकी तमन्ना ही रह गई :
एक गाए पाले, उसकी सेवा करे, उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है।
काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
ख़ुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता हे
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आँखों में अब भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित।
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का ख़ामोश गीत गाती है
मुँह अँधेरे जाँता पीसते हुए।
इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्का यक़ीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब।
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*उप-शीर्षक ׃ बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गए बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक ׃ ‘क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय’ अर्थात् भूख के राज्य में धरती गद्यमय है।
- पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 241)
- रचनाकार : वीरेन डंगवाल
- प्रकाशन : नवारुण
- संस्करण : 2018
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