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इमाम दस्ता

imaam dasta

सीमा सिंह

सीमा सिंह

इमाम दस्ता

सीमा सिंह

और अधिकसीमा सिंह

    इमाम दस्ता

    लोहे का था एक मेरे पास

    नानी के ज़माने का

    माँ ने बड़े जतन से रखा था संभाल

    कि एक रोज़ मुझे सौंप देंगी ब्रह्म बेला में

    और हुआ यूँ कि एक दिन सच में

    सौंप दिया माँ ने लोहे का इमाम दस्ता

    कहती थी माँ कि नानी की माँ ने दिया था नानी को

    और नानी की माँ को उनकी माँ ने

    पीढियाँ बदल गईं पर इमाम दस्ता बदला

    ही बदली उसकी जगह

    वह स्त्रियों के जीवन में सदियों से शामिल रहा

    सदियों तलक़

    जंग लगे तो लोहा लोहा ही बना रहता है हमेशा

    कहती थी नानी देते हुए हिदायत कि देखो

    जंग लगने पाए कभी

    बड़े ज़ोर देने पर देख पाती हूँ माँ के घर में

    उसका इस्तेमाल

    लाल सूखी मिर्च की झाँपी के पीछे

    माँ का मिर्च से जलता लाल चेहरा

    पोछते हुए आँख का पानी वो कूटती जाती

    एक के बाद एक मसाले

    सूप में पछोर कर अलग करती जाती

    मसालों की कनकियाँ,

    पर नहीं कर पाई अपने जीवन की कनकियों को

    पछोर कर ख़ुद से अलग

    वे मसालों में मिलावट की तरह शामिल रहे

    उसके जीवन में

    दिनों महीनों सालों की उसकी मेहनत ने

    हमेशा ज़िंदा रखा हमारे स्वादों को और हम

    कम नमक के आधार पर तय करते रहे होना उसका,

    और एक दिन

    घर के सारे स्वादों को भर कर इमामदस्ते में

    सौंप दिया उसने मुझे अपना हाथ

    ये बताते हुए कि कितना भी कूट लो मसालों को

    इमामदस्ते में

    स्त्रियों के जीवन से लोहे का स्वाद नहीं जाता

    नहीं ही जाता!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सीमा सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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