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दुर्गा सप्तशती

durga saptashti

इब्बार रब्बी

इब्बार रब्बी

दुर्गा सप्तशती

इब्बार रब्बी

और अधिकइब्बार रब्बी

    जल्दी-जल्दी उठती है

    दौड़कर लाती दूध

    नहलाती

    डाँटती-फटकारती

    कपड़े पहनाती

    जल्दी-जल्दी चाय

    यंत्रवत् खाना पका

    डिब्बों में भर

    बस्तों में रख

    रिक्शे में चढ़ाती बच्चों को।

    पति के जाते ही

    जल्दी-जल्दी बाल बना

    साड़ी बदल

    चल देती बस पकड़ने को

    आज भी देर हो जाए।

    पिटती हुई मशीन सारे दिन

    डिक्टेशन,

    ड्राफ़्ट,

    चिट्ठियाँ,

    पाँच बजे लदर-पदर

    दौड़ती चार्टर्ड पकड़ने को

    रीगल से

    घर की पकड़नी है।

    शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं मुसलायुधम्॥

    खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।

    कुंतायुधं त्रिशूलं शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥

    खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा

    शंखनी चापिनी बाणभुशुंडीपरिघायुधा॥

    सब्ज़ी, फल झोले में

    मूँगफली पर्स में

    बासमती की थैली लटकाए

    बुनाई हाथ में

    बस्ती में घुसती है

    स्कूल से लौटे बच्चे

    सीढ़ी पर बैठे हैं।

    ताला खोल

    कपड़े बदलती,

    झगड़े निपटाती,

    बिस्कुट और टॉफ़ी का

    सही-सही बँटवारा।

    धम्म से गिरकर पलंग पर

    करवट लेती है वह

    अब रात का खाना

    बिस्तर बिछाने हैं

    झाड़ू लगानी है

    ढेर-ढेर कपड़े धोने हैं

    सुबह के लिए लाने हैं

    डबलरोटी और दूध

    सब्ज़ी काटती है वह।

    रविवार को

    जूँ देखती बेटी की

    घुटने के नीचे बेटे की चोट सेंकती

    लेटती है धूप में

    लिखती है माँ को—

    “बहुत ख़ुश हूँ

    मिट गए सब भेद

    लिंग और वर्ण के

    स्वतंत्र स्वाधीन स्त्री हूँ।”

    भूड़भूड़ नहाती

    प्रेम से लथपथ

    पति से कहती—

    “आज सब्ज़ी ला दो।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : इब्बार रब्बी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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