कहते उस्ताद थे महीप आप जिनसे
भूपति भवानीसिंह दतिया नरेश के
आश्रित पठान एक निज के सिपाही थे।
होकर प्रसन्न एक बार उन्हें राजा ने
बख़्श दिए अपने पहनने के सोने के
दस्ताने, सहर्ष चले वे उन्हें पहन के।
किंतु ज्यों ही निकले वे ड्योढ़ी से कि सामने
मिल गया एक उन्हें ठाकुर दरिद्र-सा,
कुरता फटा-सा एक पहने हुए था जो,
मैली किंतु टेढ़ी बँधी सिर पर बत्ती थी,
नंगे पैर, किंतु तलवार लिए हाथ में,
उसने उस्ताद को विलोक कर यों कहा—
“दस्ताने कहाँ से मिले तुमको ये राजा के?”
बोले वे कि “ठाकुर, ये बख़्शे हैं हुज़ूर ने।”
“पर यह बख़्शने की चीज़ नहीं, राजा भी,
बख़्श नहीं सकते हैं शोभा यह राज्य की।
पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हें पहनें सवारी में
इतना ही हक़ रखते हैं इन पर वे।
इससे उतार दो इन्हें, इसी में है भला!”
ठाकुर की बात सुन बोले वे कि “तुम क्या
कहते हो? ये तो दिए हमको हैं राजा ने।”
“राजा के भतीजे!”—कहा ठाकुर ने गर्ज के—
“कहता हूँ उतार दे, उतारता है या नहीं?”
ठाकुर ने त्योरियों के साथ तलवार भी
खींच ली तुरंत और क्रोध कर यों कहा—
“पार कर दूँगा अभी, आतें गिर जाएँगी;
कहता हूँ फिर भी उतार दे, उतार दे!”
ठाकुर ने तोली तलवार तब अपनी।
भौंचक से होकर उस्ताद जी ने देख के
दस्ताने उतार चुपचाप उन्हें दे दिए।
ठाकुर ने लेकर तुरंत उन्हें राजा के
सामने जा रक्खा उन्हें देखकर राजा ने
पूछा यों—“सोपतसिंह, पाए कहाँ तुमने?
हमने उस्ताद को दिए थे यह दस्ताने।”
उत्तर दिया यों तब ठाकुर ने उनको—
“पृथ्वीनाथ, पात्र भी थे वे या नहीं इनके?
शूरवीर राजों के भूषण ये, हैं नहीं—
योग्य ऐसे वैसों के कि पहने वे इनको।
इनका महत्व वे क्या जानें भला, देखिए,
ज्यों ही धमकाया ज़रा मैंने तलवार से
तत्क्षण उतार दिया भौंचक के भाव से
इनको उन्होंने, जब बख़्शे थे हुज़ूर ने
फिर क्या उतारना था? मैं ही नहीं वे भी तो
बाँधे तलवार थे, उतारने के पहले
मारना था और मर जाना था उन्हें वहीं।
भीतर खजाने में इनको भिजवाइए
और देना है तो इतना ही या इनसे
दुगना या चौगुना भी सोना उन्हें दीजिए।”
ठाकुर की बातें सुन राजा चुप हो रहे
फिर मुसकाए और बोले प्रेम से कि “तू
पागल है!” इतने में आके चोबदार ने
सूचना दी उनको उस्ताद खड़े द्वारे हैं।
“भेंट नहीं होगी आज,” आज्ञा हुई भूप की।
- पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 204)
- संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
- संस्करण : 1994
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