देर से आने वाले लोग
ढाबे में देर से आने वाले लोग
कोने में मोरी के पास राख से जूठी थाली-कटोरियाँ
माँजते हुए बर्तनवाले के हाथ की मंद
और काम ख़त्म होने की राहत वाली लय पर
सिर नीचा किए सीढ़ियाँ चढ़ते हैं
और वैसे ही प्रत्याशित ‘आह’ बग़ैर बैठ जाते हैं
रात साढ़े दस बजे सारी गाड़ियाँ
आ-जा चुकी होती हैं और चारों रसोइए चौक से बाहर
पाटों पर अधलेटे हुए या तो शरीर के विभिन्न जोड़ खुजाते हैं
या कानों के पीछे अटकाई हुई बीड़ियाँ
या तकियों के नीचे दबी सचित्र पुस्तकें निकालते हैं
ढाबे में देर से आए हुए लोग
जितनी कुर्सी टेबिलें अभी लगी हुई बची हैं
उन पर बैठे इंतज़ार करते हैं
और कोई एक परोसगार भुनभुनाता हुआ उठता है
और दो घंटे पहले से लगी हुई थालियाँ
उनके सामने सायास रखता है
वे आँखें उठाकर न परोसगार को देखते हैं और न थाली में—
बस हाँफती हुई उँगलियाँ कौर तोड़ती और बनाती और मुँह तक ले जाती हैं
उन्होंने कई बार आलुओं से माचिस की तीलियों को
और थालियों के किनारे चिपकी हुई
सूखी दाल सरीखी किसी चीज़ को निकाला है
बर्तन वाले को वहीं पेशाब के लिए झुकते
और बड़े रसोइए को इस नए नेपाली को गोद में बैठाकर
प्यार करने की कोशिश करते हुए देखा है
किंतु यह सभी जानते हैं
कि ढाबे मे देर से आने वाले ये लोग कुछ नहीं कहते
ढाबे में देर से आने वाले ये लोग परिचय बिना
एक-दूसरे को जानते हैं इसलिए एक मौन संधि में भोजन करते हैं
यदि भूल से आँखें मिल भी जाती हैं तो न उनमें पहचान की चमक
हिलती है और न अभिवादन के लिए हाथ या सिर
या चुकने के बाद जब वे नल पर पहुँचते हैं तो उनके बीच आज के खाने
दुनिया तक़दीर घर वग़ैरह पर वह चर्चा नहीं होती
जो वक़्त से आने वालों मे कुल्ले ख़ख़ार और डकार के दर्म्यान
खड़े-खड़े होती है
ये लोग कौन हैं यह बताना मुश्किल है
शायद सेठ को ही धुँधली तौर पर कुछ अंदाज़ है
लेकिन वह इतना पक्का जानता है कि इन्हीं की वजह से
उसे महीने-भर दोनों वक़्त ढाबे के बंद होने तक बैठना पड़ता है
जो जाते-जाते
उससे धीमे इज़्ज़तदार स्वर में बात करते हैं
और वह सामने फ़क़ीरचंद डॉक्टर की डिस्पेन्सरी तक पहुँचने वाली
आज़िज़ आवाज़ में इनसे पेश आता है
ढाबे में देर से आने वाले ये लोग
जब उतरते हैं तो बावजूद इसके कि वे
अपनी ऊँचाई के कुछ इंच ऊपर ही छोड़ आते हैं सिर झुकाए नीचे आते हैं
उनके ऊपरी ओंठ पर पसीने की हल्की लकीर होती है ठंड में भी
और नीचे अगर सड़क सुनसान हो तो भी
वे आस-पास नहीं देखते क्योंकि उन्हें मालूम है
कि ज़ीने से लगकर बैठा हुआ पानवाला उनकी ओर
जानकार निगाहों से निर्निमेष देख रहा होगा
और उनकी गंध अगर लग गई
तो ऊँघते हुए कुत्ते जागकर देर तक भूँकते रहेंगे।
- पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : विष्णु खरे
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.