रजत-गिरी कैलास

rajat giri kailas

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

रजत-गिरी कैलास

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

और अधिकराय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

     

    'सो सही'—ज्यों ही कहा यानेश ने,
    यान उतरे त्वरित ओर नगेश के।
    पर्वतस्थल के निकट वह यानदल जब आ गया,
    दृष्टि में वह सृष्टि का सौंदर्य दूना छा गया।

    यानदल थोडी ऊँचाई पै रहा,
    मंद चाल अमंद शोभ में बहा।
    छवि-निर्देशन हेतु फैले पथिक जन के हस्त थे,
    थे सभी मस्तक झुकाए नेत्र सबके मस्त थे।

    क्या मनोहारी हरे मैदान हैं,
    स्वच्छ कोसों तक छटा की खान हैं!
    फूले-फूले अमित रंगों के प्रभा आगार हैं,
    फ़र्श मखमल सब्ज़ के रंगीन बूटेदार हैं!

    कहीं रिमझिम भरी झरनों की बहार,
    है सुरभि के साथ पावस का बिहार!
    परम शीतल पवन भी इस भाँति आती है चली,
    शरद को भी प्रिय लगी मानो मनोहर ये थली।

    वृंद-वृंद उमंग संग विहंग हैं,
    शब्द सरसीले छबीले रंग हैं।
    कहीं कस्तूरी चमर युत विविध चारु कुरंग हैं,
    सिद्ध गायन के कहीं दरसे रसायन अंग हैं।

    देवता का भाव व्यापक है अपार,
    देव धारा! देव दारा! देवदार!
    देव-ऋषियों का तपस्थल! देव माया का विभास
    देव देव महेश प्रिय! जय अचल देव प्रभा निवास!

    और भी आगे बढ़ी यानावली,
    तुंग शृगों की हुई बाधक अली।
    यानदल को पुनः ऊँचा पवन में जाना पड़ा,
    बहुत ऊँचे शिखर पाकर तदपि कतराना पड़ा।

    देखिये अब और ही कुछ रंग है,
    एक केवल सब गुण जग है,
    जहाँ जाती दृष्टि है बस वहाँ हिम की सृष्टि है,
    परम निर्मल! युद्ध! उज्ज्वल! शांतरस की वृष्टि है।

    धूल हो कर्पूर की भी श्वेतिमा,
    पूर्णचंद्र प्रकाश में ही पीतिमा
    छीर सागर की छटा हो लोल, कर अवलोकना,
    आप ही सम आप है बस अचल आभा शोभना।

    ह्वां विहंगों की नहीं चिहकार है,
    भृंग-पुंजों की नहीं गुंजार है,
    गति कुरंगों की नहीं है नहीं द्रुमलतिका कहीं,
    क्या तमोगुण की चलाई, है रजोगुण तक नहीं!

    वाह, कैसा निर्जनत्व प्रभाव है।
    शैल पै कैवल्य का बस भाव है।
    सत्य की-सी तर्जनी हिम-शृंग के मिस ठौर-ठौर,
    यानियों को दे रही थी शुद्ध शिक्षा और-और—

    मूक 'एको ब्रह्म' की थी गर्जना,
    उस चलाचल की कहीं थी वर्जना।
    इक जगह वह भाव 'सत्यं वद' विसूचक स्वच्छ था;
    कहीं 'धमे चर' सहित उपदेश 'ऊर्ध्वेगच्छ' का!

    मान के उपदेश वे मानो भले,
    धर्मचारी उर्ध्वगामी हो, चले।
    शृंग-बाधा से सुरक्षित यान धाए वेग से,
    पाँथगण समझे नहीं उस मार्ग को उद्वेग से!

    वाह वा! अब क्या धरा द्युतिवंत है,
    हिम सही है पर नहीं हेमंत है!
    मेघ है पर कोई भी बाधा नहीं बरसात की,
    प्राप्त है पर्याप्त सेवा सुखद वासित वात की।

    अतिथि मानो योग-निद्रा से जगे
    स्नेह में इस देश नूतन के पगे।
    छोड़ यानों को सिधारे हंस मानस-ताल को,
    जीव हों ज्यों ब्रह्मगामी त्याग साधन-जाल को।

    यानियों की दृष्टि जो नीचे गई,
    बात देखी इक अचंभे की नई।
    पंक्तियों जो थीं मरालों की हवा में भासमान,
    थीं मही-तल में सुबिंबित और सारा आसमान!

    फिर अधिक ग्रीवा झुका देखी छटा,
    बिंब मिस जंगम विमानों की घटा।
    चलित हों ज्यों क्षीरसागर में विशाल सुहावने;
    यानदल भी वरुण जी के विपुल आकृति के घने।

    X    X    X    X

    आप्तजन उपदेश यों देते हुए,
    प्रेम से बोले—'नमः श्रीशंभवे!'
    यान उतरे स्थित हुए जब उस धरा छवि-रास पे,
    कहा यानधीश ने—'यह रजतगिरी कैलास है।'

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’
    • प्रकाशन : साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1953

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए