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अपनी मुद्रा के बाबत

apni mudra ke babat

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

अपनी मुद्रा के बाबत

सत्यव्रत रजक

और अधिकसत्यव्रत रजक

    कुनकुने अफ़सोस की वे रातें

    अब इस एहसास में हँस सकती हैं

    कि उनकी ठँडी बूँदें

    लरज़ती हैं जब सफ़ेद आँखों में

    और बहती है अप्रस्तावित स्वप्न की तीसरी नदी

    उतरती है देह और विश्राम लेता पानी

    हिलता है।

    डबडबाए चेहरे उन्नीस की उत्तेजना में

    जैसे मारी गई कोयलों के शव गल जाते हैं सियारों की कमी में

    उनमें दीमक लगता है

    जो साँप की बामियों में बदलते जाते हैं

    (नई चिड़ियाँ उन बामियों में कीड़े

    ढूँढ़ती हैं।)

    पचाई गई आत्म-सूक्तियाँ

    कब प्रभावी हो उठें

    कब संदेह में

    अपना गला रेतने लगी अज्र याद

    कटते गए पेड़ों की ख़ाली जगहों में

    चींटियों के घिरे बिल बरसात के पूर्व के प्रशांत में

    अनाज दबाते हैं

    स्मृतियों के अनुपजाऊ समाज कराहते हैं

    जब मैं उनकी पनाह नहीं लेता

    वे तब भी अपनी कोशिशों के लिए जीते हैं

    (उनके अठारह अर्थ और पचहत्तर मियादें

    नुमाइश की रागिनी अलापती हैं)

    छोड़ो!

    हमें और तुम्हें उन ज़रूरतों के लिए लड़ना है

    जिन्हें हम ढूँढ़ते प्यासे हो उठे

    और तुम्हें अदृश्य भूख ओढ़ चुकी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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