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हँस रहे दुख में अधर, तो

hans rahe dukh mein adhar, to

इति शिवहरे

इति शिवहरे

हँस रहे दुख में अधर, तो

इति शिवहरे

और अधिकइति शिवहरे

    हँस रहे दुख में अधर, तो

    अश्रु की अवहेलना है, 

    आह! कैसी वेदना है।

    कल्पना की कल्प कंचन कामिनी की कह कथाएँ,

    नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।

    मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,

    मोह-मिथ्या की मुखरता बस कलुषता भर रही है।

    द्वंद्व के अंतःकरण में 

    लुप्त होती चेतना है।

    आह! कैसी वेदना है।

    वेद मंत्रों का अनाविल स्वर सकल में घोल देगी?

    आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?

    प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।

    स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।

    मूँद कर अपने नयन अब

    मीन के दृग भेदना है।

    आह! कैसी वेदना है।

    सत्यता सद्भावनाओं, का सतत अतिरेक होगा,

    या कि निर्मल नैन जल से, नेह का अभिषेक होगा।

    मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,

    यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।

    बैठ कर उत्तुंग पर, अब

    मुक्ति की अन्वेषणा है

    आह! कैसी वेदना है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : इति शिवहरे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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