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प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस

प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस

जब
नाथूराम का नाम लेते
ज़ुबान ने हकलाना छोड़ दिया हो

जब
नेहरू को गालियाँ दी जा रही हों
एक फ़ैशन की तरह

और जब
गांधी की हत्या को वध कहा जा रहा हो

तब
राजेश कमल
तुम्हें किसी ने जाहिल ही कह दिया
तो कौन-सा पहाड़ टूट गया
कहने दो

राजेश कमल पटना के सांस्कृतिक आयोजनों का जाना-पहचाना नाम है—देखा-भला चेहरा। वह कार्यकर्ता के तौर पर बीस वर्षों से पटना की सांस्कृतिक हलचलों से जुड़े रहे हैं। उनका पहला कविता-संग्रह आया है—‘अस्वीकार से बनी काया’ (अंतिका प्रकाशन, 2022)।

यहाँ ऊपर जिस कविता को उद्धृत किया गया, उससे कवि के वैचारिक और रचनात्मक व्यक्तित्व की एक झलक मिलती है। स्पष्ट है कि जहाँ गांधी और नेहरू की छवियों का भंजन हो रहा हो, वहाँ एक सामान्य कार्यकर्ता अपनी छवि को बचाकर क्या करेगा? साथ ही यह भी कि हत्यारों के समर्थक और लोकतंत्र के विरोधी अगर आपको बुरा-भला कह रहे हों, तो यह आपकी सबलता और सही दिशा में होने की पहचान है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि लाभ-लोभ के कारण जब लोग हवा के साथ बह जाने में ही भलाई देख रहे हों, तब अपने विवेक को जागृत रखने और अपनी प्रतिबद्धता के साथ टिके रहने में कुछ बात तो अवश्य है। राजेश कमल का कवि-व्यक्तित्व इसी तरह की ‘कुछ बात’ से निर्मित होता है।

हाँ, यहाँ मैं कवि से एक संवाद अवश्य करना चाहूँगा कि भाई राजेश कमल! वह कह रहे हैं, इससे कुछ फ़र्क़ तो नहीं पड़ता; किंतु उन्हें कहने न दिया जाए। वीरेन डंगवाल की पंक्ति लेकर कहूँ, तो ‘‘मसला मनुष्‍य का है/ इसलिए हम तो हरगिज़ नहीं मानेंगे/ कि मसले जाने के लिए ही/ बना है मनुष्‍य...’’

अस्तु।

इस संग्रह का नाम ही कविता और कवि के विषय में एक ठोस जानकारी दे देता है। यहाँ प्रतिरोध का स्वर है और अस्वीकार का साहस। अस्वीकार की आवश्यकता को कवि समझता है। इसलिए वह अपने निकटतर उपलब्ध लोगों और संस्थाओं से भी स्वयं को अलगाता चलता है। इसमें घर और पड़ोस भी है, परिवार और संबंधी भी, जाति और धर्म भी। उसे जाति और धर्म का कलंक कहलाना मंज़ूर है, किंतु मक्कारों में नायकत्व को स्वीकार करना मंज़ूर नहीं। वह स्पष्ट शब्दों में कहता है :

कोई भी जतन कर ले
भद्र पुरुष की पोशाक में
आततायी नायक नहीं हो जाता
कोई भी जतन कर ले
मक्कारों में नहीं दिखता नायक का अक्स

कवि की दीर्घ सक्रियता देखकर मुझे उम्मीद थी कि इस संग्रह में एक लंबी अवधि की रचनात्मकता दर्ज‌ होगी, किंतु अधिकतर कविताएँ वर्तमान से मुठभेड़ करती दिखती हैं; अर्थात् इस संग्रह में वही समय आया है, जिसे हम इधर देख रहे हैं, समझ-बूझ रहे हैं, झेल रहे हैं और अपने त‌ईं स्वीकार-अस्वीकार कर रहे हैं।

वर्तमान परिदृश्य और उससे जुड़े प्रश्न हम सब के सामने हैं। संवेदनशील और जागरूक चेतना किसी न किसी रूप से इनसे टकरा भी रही है। इस टकराव को राजेश कमल ने अपने शब्द देने का काम किया है। उग्र होता सामाजिक-राजनीतिक जीवन, उदार और महान मूल्यों को परित्याग कर संकुचित एवं विभाजनकारी सोच की स्थापना, सभी के जीवन-अधिकारों के प्रति सम्मान-भाव के स्थान पर नियंत्रण की ईप्सा, लोकतंत्र की आड़ में सत्ता की मनमानी ये तमाम परिस्थितियाँ हैं, जिनसे अस्वीकार का यह कवि दो-चार हो रहा है। भारत अपने जिन आदर्शों के लिए जाना जाता है, उनका गिरना कवि को चोट पहुँचाता है।

वर्तमान समय में वैचारिक और राजनैतिक जगत में प्रदूषण की तरह एक बात देखी गई है कि प्रतिद्वंद्वी अथवा विरोधी विचारों अथवा लोगों को अनिवार्य रूप से हानिकारक घोषित किया गया है और उन पर सांघातिक हमले किए जाने लगे हैं। इस संग्रह की ‘प्रदूषण’ शीर्षक कविता इसे प्रामाणिक ढंग से सामने रखती है :

पहले
प्रतिस्पर्धियों का नाम दुश्मन रखा
फिर
दुश्मनों के चेहरे को रंग दिया
बनाया विद्रूप (जितना संभव था)
और फूँक दिया हवाओं में
...

और तब से ही
दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर इधर ही है

दुनिया का आर्थिक विभाजन सबके सामने है। दिनोंदिन यह खाई बढ़ती ही जा रही है। अर्थशास्त्र के अनेकानेक सिद्धांत इसे किसी तरह से कम करने में सफल नहीं हुए, बल्कि इसको स्वीकार्य बनाने की दिशा में लग गए हैं। ‘मुंब‌ई’ कविता में मुंब‌ई पूरा संसार बनकर आया है और यह सवाल मुंब‌ई तक सीमित नहीं रहता :

इसी शहर में
कुछ ऐसे रहनुमा भी हैं
जिनके फ़क़त एक रात का ख़र्च
और फुटपाथियों की ज़िंदगी भर की कमाई
कोई बताए
आख़िर किसने लिखा है
इस देश की आर्थिक राजधानी का अर्थशास्त्र

इस संग्रह में ईश्वर अनेक जगहों पर आता है। ईश्वरीय चेतना का सीधा अस्वीकार तो नहीं है, लेकिन वह आरोपों और सवालों से घिरा हुआ आता है।

‘‘दुनिया तुम्हारी ही रचना है
या तुम दुनिया की रचना हो?’’

‘‘कैसी लीला है प्रभु
तुम पर तो भारी है हत्यारा’’

ये आरोप और सवाल साहित्य के लिए अब पुराने हो चुके हैं, लेकिन किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाते हैं।

कविता में मानवेतर जगत जब आता है, तो यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है, कि वे किस तरह से आ रहा है। यद्यपि इस संग्रह में यह कम ही है, किंतु जहाँ भी है, वहाँ पर मैं इस दृष्टि को परे नहीं कर सका। आलंबन और उद्दीपन की भाषा पुरानी है। उसे छोड़ भी दिया जाए, तो भी आधुनिक संदर्भों में हम देखते हैं कि वे कभी तो स्वतंत्र रूप से आते हैं और कभी प्रतीकों की तरह। प्रतीक रचनाकार की अभिव्यक्ति ढोते हैं, वहाँ प्रश्न उसके सटीक होने अथवा न होने का होता है; किंतु जहाँ वे स्वतंत्र रूप से आते हैं, उनकी अपनी प्रकृति महत्त्वपूर्ण हो जाती है। संग्रह की एक कविता है—‘वो सुबह’। इसमें एक अच्छी सुबह की उम्मीद की गई है। उसकी पहचान में कहा गया :

जब नहीं होगा साँपों को विष
और कुत्ते को दुम।

मैं इस जगह पर ठहर जाता हूँ। मुझे लगता है कि एक अच्छा समय वह हो सकता है, जब विषधर के पास ही विष रहे और दुमगर के पास ही दुम। साँपों के पास विष का होना और कुत्ते के पास दुम का होना सहजता है। दिक़्क़त तब होती है, जब विषदंत किसी अन्य के उग आते हैं और कोई अन्य दुम दबाने या डुलाने पर विवश कर दिया जाता है।

राजेश कमल जहाँ से आते हैं, उस समाज की एक बड़ी सच्चाई है—जाति। वैसे तो यह पूरे भारतवर्ष में और पूरे हिंदू समाज का सच है, किंतु हिंदी प्रदेश में विशेष उग्रता के साथ देखी जाती है। वहीं से उठा हुआ कवि क्या इसे उपेक्षित कर सकता है? मुझे लगता है कि उपेक्षा रेत में सिर छिपाना होगा। हमें इसका सामना करना ही पड़ेगा। प्रस्तुत संकलन में इस जाति-व्यवस्था के प्रति क्षोभ और उसे लेकर पीड़ा के दर्शन होते हैं। क्षोभ व्यंग्य में आकार लेता है और पीड़ा भीतर-भीतर मथती है। कवि देखता है कि आज हरेक उपलब्धि को जाति के साँचे में ढाल कर देखे जाने की क़वायद शुरू हो चुकी है। महापुरुषों की जाति पहचानी जा रही है और उसी अनुसार उनको याद किया जा रहा है। इस स्थिति पर व्यंग्य करते हुए कवि ‘जन्मदिवस’ कविता में लिखता है :

शुक्र है जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते
अपने नायकों को।

यह कितनी पीड़ादायक स्थिति है कि नायक जातियों के मसले पर हल्के पड़ रहे हैं। मानो उनके अपने कर्म कोई महत्त्व नहीं रखते‌।

एक दूसरी कविता में बच्चे का जाति को लेकर सवाल असहज और लाजवाब कर देता है। बच्चे को यह सवाल समाज से प्राप्त हुआ है। नाम में जातिसूचक पद नहीं होने पर लोग जाति की खुदाई करने लगते हैं। वह बच्चा अभी इतना ‘ज्ञानी’ नहीं हुआ है, तो पिता से पूछना चाहता है। पिता के पास क्या जवाब हो सकता है? कवि की ही‌ पंक्तियाँ देखें :

इस बार तो
डरा दिया ही बच्चे तुमने
आख़िर कक्षा दो में ही
तुम्हें इसकी क्या ज़रूरत पड़ गई
किसने संक्रमित किया इस सवाल से तुम्हें
किसने ध्वस्त की मनुष्य होने की प्राथमिकता
क्या मनुष्य होने की शर्तों में
शामिल कर लिया गया है यह सवाल
क्या मनुष्य पराजित हो गया है जाति से
मैं क्या जवाब दूँ अपने बच्चे को
कोई बताएगा?

सवाल वही है कि हमारी प्राथमिकता में क्या है, मनुष्य होना अथवा जाति की चौखटों में क़ैद हो जाना? कवि की प्राथमिकता में तो मनुष्य होना शामिल है।

राजेश कमल की कविताएँ अपनी संवेदना, भाषा और शिल्प में वर्तमान हिंदी काव्यधारा के साथ चलती-मिलती हैं। अनूठा, अनोखा, अकेला जैसे विशेषण की यहाँ आवश्यकता नहीं रहती। यद्यपि ब्लर्ब में अंचित ने ‘अपनी तरह का इकलौता कवि’ कहा है, तथापि मुझे लगता है, ऐसे पदबंधों के बग़ैर भी महत्त्वपूर्ण लेखन की पहचान की जा सकती है।

शिल्प और भाषा के स्तर पर चौंकाने वाला काम नहीं किया गया है। प्रमुखता भाव और विचार को प्राप्त है। हाँ, उसे पूरे साहस के साथ बिना लाग-लपेट के व्यक्त किया गया है। इसी से एक सहज शिल्प आकार लेता है। इसी में एक प्रभावी भाषा बसती है।

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