मैं नायकविहीन दुनिया में रहने का स्वप्न देखता हूँ
अनुराग अनंत 17 मई 2023
मैं कभी हीरो नहीं होना चाहता था। मैंने कभी कोई स्वप्न ऐसा नहीं देखा जिसमें मैं छिनी उँगली पर गोवर्धन उठाए खड़ा हूँ और लोग उसकी छाया में मेरी प्रशस्ति में गीत गा रहे हैं। सख़्त चेहरों और रोबीली आँखों से मुझे सदैव विकर्षण ही रहा। रोने की इच्छा होने पर मैंने बस रोना चाहा है। यह बात अलग है कि मेरा चाहा कम ही पूरा हुआ। खुलकर रोने की इच्छा अभी इतनी नहीं खुली कि मैं खुलकर रो सकूँ।
नायकत्व के प्रति विकर्षण का एक कारण कंधों पर अतिरिक्त दवाब और अनचाहे ही केंद्र में आ जाने से बचना रहा है। मैंने कभी नहीं चाहा कोई घेरा खींचा जाए और मैं उसका केंद्र हो जाऊँ। लोग मेरी तरफ़ ऐसे निहारें जैसे नावों की तरफ़ देखा जाता है। मेरे लिए यह असहनीय होगा कि वे डूबते हुए मुझे जीवन की लालसा में डूबे हुए देखें। मैं हमेशा से उनके साथ डूबना, उनके साथ उबरना चाहता हूँ। इस तरह होना चाहता हूँ कि अलग न दिखूँ। दृश्य में मेरा होना दृश्य को इस तरह प्रभावित न करे कि वह मेरी तस्वीर हो जाए।
मुझे नायकों के नायक बने रहने की बाध्यता से भी भय लगता है। एक तरह का स्वयं पर अत्याचार। एक तरह की अमानवीयता। एक तरह की कृत्रिमता। एक तरह की अस्वाभाविकता। एक तरह की असहजता। नायकों के लिए ये सब ज़रूरी ही रहा है। उनके लिए सहज मनुष्यता दुर्लभ रही है। उनके स्वप्न में वे बच्चों की तरह दौड़ते चले जाते हैं, चमकते हुए जुगनुओं के पीछे और यथार्थ में पहाड़ों की नक़ल करने में ही बिता देते हैं जीवन। वे सार्थकता और सफलता के एक ऐसे आग्रह से घिरे होते हैं कि इस निरर्थक जीवन को उसकी भरी-पूरी निरर्थकता में नहीं जी पाते। नहीं हो पाते वह जो किसी एक क्षण में वे बस होना ही चाहते हैं। बना लेते हैं एक जेल और चाहे अनचाहे उसी में क़ैद रहते हैं।
हमारे लिए उनका जिया आदर्श, उनका कहा परिभाषा, उनका देखा सत्य, उनका छुआ पवित्र, उनका त्यागा निषेध, उनका सोचा अभीष्ट। कैसा तो रहता होगा हर बार शत-प्रतिशत होने का दबाव। कैसा तो अंधापन उतरता है उनके अनुयायियों में। कैसा तो झूठा-सा सच है कि नायक ही करेंगे उद्धार। जबकि एक कौर अन्न भी ख़ुद के श्रम के बिना असंभव है। बिना मरे मृत्यु भी नहीं मिलेगी किसी को।
मैंने कभी नहीं चाहा कि इस तरह अभिजात्य हो मेरे भविष्य की कल्पना कि कोई मुझमें नायक देखे या मुझे ढूँढ़ना पड़े अपने लिए कोई नायक। मैं नायकों से विहीन किसी दुनिया का नागरिक होना चाहता हूँ। चाहता था। चाहता रहूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ त्रासदियों से घिरे किसी समाज को ही नायकों की आवश्यकता होती है। भय और आशंकाओं से लिथड़ी हुई दुनिया ही देखती है—नायकों का रास्ता। जहाँ नायकों की ज़रूरत नहीं वहाँ त्रासदियाँ ही न होने की कल्पना है। भय और आशंका की अनुपस्थिति है। मैं चाहता हूँ यदि अनिवार्यता ही हो जाए नायक देखने कि तो हर कोई हर किसी में कोई न कोई नायक देख सके। जैसे सड़क पर झाड़ू लगते सफ़ाई कर्मचारी को देखकर सच्चे मन से कहा जाए कि यह स्वच्छता का नायक है। जूता सिलते हुए मोची में यदि नायक देख सके तुम कभी तो तुम्हें पता चलेगा कि यह दुनिया नायकों के बचाने से नहीं बची। न कभी बचेगी। यह दुनिया गुमनाम लोगों के कंधों पर टिकी है। हाँ वही लोग, जिन्हें अपने उद्धार के लिए किसी न किसी नायक की प्रतीक्षा है।
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