हमारी इच्छाएँ हमारा परिचय हैं
राकेश कुमार मिश्र 18 अक्तूबर 2023
यह सोचकर कितना सुकून मिलता है कि जिसे हम अपनी अस्ल ज़िंदगी में नहीं पा सके उसे एक दिन भाषा में पा लेंगे या भाषा में जी लेंगे या उसे एक दिन भाषा में जीने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा। मुझे लगता है कि भाषा एक तरह से अंतिम विकल्प है। अंतिम समाधान। अंतिम शरणस्थल। भाषा एक तिजोरी है, जहाँ हम अपनी तमाम इच्छाओं, सपनों और कामनाओं को सुरक्षित रख सकते हैं।
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जिन लोगों के पास हाथ नहीं था, उन्हें दुःख होता था। उन्हें हाथ न होने का दुःख होता था। अगर कोई उन्हें जाकर बताता कि हाथ का न होना एक ख़ास तरह के भार से मुक्ति है तो शायद उनका दुःख कम हो जाता या ख़त्म हो जाता। किसी चीज़ का न होना अस्ल में बहुत सारी चीज़ों के होने की घोषणा भी है। जैसे किसी क़लम का गुम हो जाना क़लम के द्वारा लिखे जा चुके शब्दों को खोजने की घोषणा है। किसी एक शब्द का खो जाना तमाम दूसरे शब्दों को खोजने की घोषणा भी है। किसी चुप्पी का खो जाना, चुप्पी से पैदा हुए संवादों को खोजने की कोशिश है।
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क्या लिखना लगातार कुछ खोने का अभ्यास करना है? लिखना पाना तो नहीं है।
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लगातार लिखने का मतलब अनुभवी होना नहीं है। लगातार लिखना या लगातार लिखने की कोशिश करना एक ख़ास तरह का आत्मविश्वास दे सकता है। पर ये अनुभवी होना नहीं है। एक लेखक हमेशा शून्य के साथ जीता है और एक दिन उसी शून्य के साथ अंतिम साँस लेता है। लिखना कहीं पहुँचना नहीं है, बल्कि उस शून्य को या उस शुरुआत को बेहतर तरीक़े से जानना है।
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संगीत हमें दूसरों को माफ़ करना सिखाता है।
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प्रकृति में जो कुछ है, वह सब कुछ संतुलित है। कुछ भी असंतुलित नहीं है। चिड़ियों के उड़ने में संतुलन है। पेड़ों के पत्तों के गिरने में संतुलन है। बादलों के बदलते रंगों में संतुलन है… यानी पूरी प्रकृति संतुलन का अद्भुत उदाहरण है। पर प्रकृति में अगर कोई सबसे ज़्यादा असंतुलित है, वह है मनुष्य। मनुष्य न सिर्फ़ असंतुलित है, बल्कि उसने पूरी प्रकृति का संतुलन बिगाड़ दिया है। इस असंतुलन के पीछे उसकी इच्छाएँ हैं।
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समय एक गुफा है। इस गुफा में घुसने के बाद कोई लौटकर नहीं आया। ये गुफा न जाने कितने लोगों को निगल गई। मैं जानता हूँ कि मैं इस गुफा से गुज़र रहा हूँ। मेरी कोशिश बस इतनी है कि इस गुफा से गुज़रते हुए इसके दीवारों पर कुछ निशान छोड़ जाऊँ, ताकि भविष्य में कोई जान पाए कि मुझ जैसा कोई प्राणी किसी ख़ास समय में इस गुफा से गुज़रा था।
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मेरे लिए चुप्पी का अर्थ सिर्फ़ संवाद का अभाव नहीं है।
मेरे लिए चुप्पी का अर्थ है : प्रतीक्षा।
चुप रहते हुए हम प्रतीक्षा करना सीखते हैं—उस समय तक चुप रहना जब तक सही या सार्थक शब्द न मिल जाए। हमें चुप्पी की एक सभ्यता बनानी होगी। इस सभ्यता के बग़ैर हम संवाद को नहीं समझ सकते।
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जिन चीज़ों को हमने निर्जीव और बेजान मान लिया है, अस्ल में वहीं चीज़ें हमारे आस-पास में सबसे ज़्यादा साँस लेती हैं।
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हमारी इच्छाएँ हमारा परिचय हैं। हम उतना ही हैं जितना कि हम इच्छा करते हैं—उससे न कम, न ज़्यादा। हम अस्ल में हमारी इच्छाएँ हैं।
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हर एक नई आवाज़ दूसरी आवाज़ का पता दे जाती है। बस एक इंसान के पास दूसरे इंसान का पता नहीं है। शब्द बूढ़े हो रहे हैं और आत्महत्याओं को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने नई योजना शुरू की है।
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जिन दिनों हम ‘समझदार’ थे। उन्हीं दिनों हम मशीन भी थे।
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इस घुटन को देखो। इस घुटन के साथ बहो मत। अभी-अभी मणि कौल की फ़िल्म उसकी रोटी देखकर आ रहा हूँ। अगर हमारे जीवन से संवाद निकाल दिया जाए तो शायद हमारा जीवन मणि कौल के सिनेमा जैसा हो जाएगा। मणि कौल का कैमरा, दृश्यों का बर्ताव और स्थिरता सब कुछ याद रहेगा। मेरा अति उत्साह कब कम होगा? सुनना सीखो। मैं तो सुनने गया था, पर लोगों को मणि कौल के सिनेमा पर ‘प्रवचन’ देकर आ गया।
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मेरा कुछ खो गया है। बस उसी को मैं दिन-रात खोजता रहता हूँ। मेरा कुछ खो गया है। मैं बस इतना ही जानता हूँ। अपनी तमाम हताशा के बावजूद मैं अपनी खोज को बनाए रखना चाहता हूँ। मेरा कुछ खो गया है। इस खोज के बारे में मैं किसी से बात नहीं करना चाहता। मैंने लोगों को चुनाव के पोस्टर में बदलते देखा है। इसलिए मैं अपने दुःख के साथ एक कोने में रहना चाहता हूँ। बस मुझे एक ज़िंदा मनुष्य की तरह देखा जाए। बिना किसी शर्त के मुझे सुना जाए।
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जो धुंध में चलता है, उसे पता है कि धुंध में चलना कितना मुश्किल होता है।
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अनुवाद का काम कुछ-कुछ स्कूल के दिनों वाले प्रेम को जीने जैसा है। इस प्रेम में आपको मिलता कुछ नहीं है। बस आप मन ही मन उड़ते रहते हैं।
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मुझे एक पूरा जीवन चाहिए—स्त्रियों के घरेलूपन और उनके जीवन के बारे में सोचने के लिए। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो पड़ोस में औरतों की मंडली कीर्तन में मगन है। वह कौन-सी चीज़ है जो औरतों को मर्दों से अलग करती है?
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