गणितीय दर्शन और स्पेस-टाइम फ़ैब्रिक पर रची अज्ञात के भीतर हाथ फेरती कविताएँ
प्रतिभा किरण 20 सितम्बर 2023
...कहाँ से निकलती हैं कविताएँ? उनका उद्गम स्थल कहाँ-कहाँ पाया जा सकता है? आदर्श भूषण के यहाँ कविताएँ टीसों के भंगार से, विस्मृतियों की ओंघाई गति से, एक नन्हीं फुदगुदी की देख से, पूँजीवाद की दुर्गंध से मिट्टी और डामर-सी गड़ती-सड़ती वास्तविकता से निकलकर अकहे की रिक्तियों को भरती हुई नज़र आती हैं–
हमारी ईंटें धूप से पगी थीं
हमारे ख़ून का लोहा टनटनाता था
(यहाँ कविता के मूल अर्थ से छेड़छाड़ किए बिना उसका वैज्ञानिक सत्यापन करने को कवि ने अपना दायित्व माना और निभाया भी है।)
कविताओं को अपनी पीड़ा से फूटने और प्रस्तुत होने के लिए पहले किसी सघन में पकना होता है, एक अनियत और स्पष्ट घेराव में धीमी गति से हुँमसना होता है। फिर उन्हें चाहिए होता है कि उपयुक्त शब्दों के कंधों का सहारा और यही कंधे कविता का भाषबिंदु बन पाते हैं। आदर्श की कुछ कविताओं के शीर्षक उनकी अपनी प्रज्ञा और चेतना के जने-बने कंधे हैं, जो बाहर से तो बलिष्ठ दीखते हैं, पर भीतर कई-कई सुकोमल परतों में खुलते हैं। गायताल, दिदृक्षा, निविधायन जैसे नवजात इनके सुकरत्व में ‘फिट’ बैठ जाते हैं; हालाँकि इन्हें दीर्घ स्वीकृतियों में स्थान मिलना अभी बाक़ी है।
डिब्बी के भीतर बंद माचिस की तीलियों की व्यथा एक अच्छे कविता-विषय का चुनाव है। व्यथा इसलिए क्योंकि यहाँ अदृश्य रूपक उँगली (भाग्य) तय कर रहा है कि अब किस तीली की बारी है जलने की। ‘तीलियाँ’ शीर्षक से बिंधी इस कविता में बुझती हुई तीलियों की क्रमशः मोमबत्ती, बल्ब और सूर्य (दीर्घकालिक प्रकाशित) हो जाने की इच्छा समाप्त होते देखना पाठकों को विकल कर देगा :
माचिस की डिब्बियों में बंद
हम तीलियों की उम्र कितनी है
हम नहीं जानतीं
कब रगड़ दी जाएँ
उसी डिब्बी के कूल पर
और सुलग कर राख हो जाएँ
हम नहीं जानतीं
हम जानतीं हैं लेकिन
जलना प्रारब्ध है
और जलते हुए थोड़ा-थोड़ा बुझते रहना विवशता
‘पहाड़’ और उदास दिन-रात के लिए प्रचलित कहन ‘पहाड़ जैसे दिन / पहाड़ जैसी रात’ को एक पाले में ले आने का काम शुरुआत में एक सामान्य कविता का परिचय देता है, लेकिन अगली ही लाइन मेरे इस ‘पाले’ को अनहाइलेट कर देती है। ‘पहाड़ हमारी भाषा जानते हैं’ शीर्षक में पाँच लघु-कविताएँ रखी गई हैं, यह दूसरी कविता के बारे में है, जिसकी पंक्तियाँ मैंने जानबूझकर यहाँ नहीं रखी हैं।
तीसरी कविता की पंक्तियाँ देखिए–
पहाड़ से गिरकर कभी कोई नहीं मरा
पहाड़ से गिरनेवाले को मारनेवाली
उसकी दूरी थी मैदान से
‘ग़ायब लोग’ कविता के रूप में कवि ने वंचितों के हवाले से सामूहिक मुँह खोला है। असफल सरकारी योजनाओं को कीटनाशक बताकर उपस्थितों का खरपतवार, अंततः ग़ायब होना बिम्बों में खीझ दर्ज कर लेता है–
हम खरपतवार थे
पूँजीवादी खलिहानों में
यों ही उग आए थे
हमारे लिए कीटनाशक बनाए गए
पचहत्तर योजनाएँ छिड़क-छिड़ककर मारा गया
इसी कड़ी में एक कविता ‘समतल’ स्पेस–टाइम फ़ैब्रिक पर रची हुई नज़र आती है।
समुद्र कहीं किसी कोने में जाकर नहीं गिरता
पृथ्वी का कोई कोना नहीं है
ऐसा पाइथागोरस कहता है
गणितीय दर्शन तथा उसकी बारहमासी असहमतियों के बीच ठीक-ठाक सामंजस्य बिठाती यह कविता प्रेक्षक (कवि) की इस दृष्टि पर ठहर जाती है—
भूख की रात सबसे लंबी होती है और
ग्लानि का दिन सबसे गर्म
दिन और रात एक दूसरे के फलन होते हुए भी अपने दुखों में कितने भिन्न हैं।
मुझे लगता है कि दिसंबर की आधुनिक कविताओं में दो गीत आदर्श के भी गिने जाने चाहिए।
‘दिसंबर अंतिम के अंतिम पर न होने की जगह है’ नाम के भीतर आईं दो कविताएँ इस महीने को एक स्पेक्ट्रम की भाँति देखती हैं। बिल्कुल पठनीय।
कवि की कल्पना किसी सीमित तक ही नहीं खिंची है, बल्कि वह अज्ञात के भीतर भी हाथ फेरना चाहती हैं।
एक फ़्रेम ऑफ़ रेफ़रेंस से अन्य को ताकता प्रेक्षक अपने निष्कर्ष ‘सादृश्य’ में कहता है—
चित्र में यदि वह मनुष्य होता
तो मैं कितना मनुष्य हो सकता था उसके सामने
आदर्श की संवेदनशीलता उनकी सबसे बड़ी ताक़त के रूप में दिखती है, जिसके बलबूते वह काग़ज़ और पानी की चेतना महसूस पाते हुए लिखते हैं—
तली का खुरदुरा काग़ज़
गीलेपन की भाषा में
काठ होने का स्वप्न देखता है
कवि प्रेम लिखता है और पुकारता है जीवन। स्मृतियों में बसी सभी नदियों का स्मरण करना नहीं भूलता।
सरयू से देता है कोई आवाज़
और गंगा-गंडक-बागमती का सिरफिरा बटोही मैं
सुन लेता हूँ यमुना के तीरे
एक कविता में कवि बदलते पतों को घर कहे जाने की विवशता के भीतर पृथ्वी का एक कोना पकड़े दीन नहीं; जिजीवित लगता है :
हाथ पसारता हूँ और बटोर लेता हूँ
अपने हिस्से की पृथ्वी
गले तक भर आता है
एक विस्तृत विदागीत पूर्वजों की लोकभाषा का
कवि की दृष्टि वैज्ञानिक है, साथ ही वह अपने काव्य-सौंदर्य में नए प्रयोग करना जानता है। नदी की तरलता चीन्हता है, तो चाँद को पानी में उतारकर तरल बना देता है।
जब दो देहें जानती हैं
एक-दूसरे की तरलता के बारे में
वे नहीं रखती संदेह उनके वर्तमान की विलुप्ति पर
‘पानी की वर्तनी’ शीर्षक में गुँथी इस कविता में एक ओर कवि ने लिखा है :
‘सब देखेंगे
पानी नहीं देखेगा कोई सपना
भविष्य के बारे में’
और अगले ही पृष्ठ पर आदर्श ने लिखा है :
‘पानी को देखा है
पानी के दिनों में
और पानी न होने के दिनों में भी’
पानी का भविष्य पानी न होना कवि लिख चुका है।
ऐसी ही कई कविताएँ इस किताब में पढ़ी जा सकती हैं, जिनमें किसी एक को सर्वोत्तम घोषित किया जाना संभव नहीं है। उम्मीद है, आने वाले समय में और भी लोगों तक यह किताब पहुँचेगी।
कविताओं के साथ ही किताब के कवर पर भी बात होनी चाहिए। ज्यामितीय आकृतियों को ससम्मान बाइनरी (एक तथा शून्य) रूप में आवरण पर रखना और जीवन की द्विआधारी प्रकृति को कविताओं में नकार देना निश्चय ही अचानक नहीं।
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