अ-भाव का भाव—‘अर्थात्’
आशीष मिश्र 01 नवम्बर 2023
मैंने अमिताभ चौधरी को नहीं देखा है। लेकिन उनकी कविताओं से ऐसा चित्र उभरता है कि कोई जनसंकुल बस्ती से दूर निर्जन अँधेरे बीहड़ में दिशाहीन चला जा रहा है। इस अछोर अँधेरे से आतीं बेचैन प्रतिध्वनियों का हॉरर मुझे अपनी तरफ़ खींचता है, कुछ क़दम बढ़ता हूँ, फिर इस अरक्षित धुंधलेपन की व्याकुलता से अपनी आदतों की सुरक्षित दुनिया में पहले से भी तेज़ क़दम भागता हूँ। मैं भूलना चाहता हूँ, लेकिन भूल नहीं पाता कि उस अँधेरे में कोई चला गया है; उसकी आहट मुझे बेचैन कर रही है, आत्मा की फ़र्द काँप रही है। जीवन की धारणाओं को दुहराए चले जाने में जो निश्चितता और सुरक्षा है, इसके ढीले पड़ते ही मैं निस्सत्व महसूस करने लगता हूँ। शायद मैं होने की क़ैद और न होने की आत्म-पहचानहीनता के बीच व्याकुल कायर दौड़ हूँ। परंतु कोई वास्तविक सर्जक हमारे संज्ञान के बाहर की बीहड़ दुनिया का दुस्साहसी यात्री होता है। बाद में लोग उसके पदचिह्नों पर पहले पगडंडी फिर सपाट राजमार्ग बना लेते हैं। अधिसंख्य लोकप्रिय मीडियॉकर क़िस्म के कवि उसी राजमार्ग के सैलानी होते हैं। इस प्रक्रिया में उसकी बेचैनी और हॉरर पिटकर सामान्य जुमला बन चुका होता है।
पुरानी और परिचित चीज़ों में एक आश्वस्ति होती है। नई में त्रास और रोमांच—ठीक पहले प्रेम की तरह। हम आश्वस्ति और सुरक्षा चुनते हैं; वैचारिक, आर्थिक, यौनिक सुरक्षा… जीवन का रोमांच नहीं। हम अपनी तमाम धारणाओं पर इतने निश्चित और आदतों के ऐसे पवित्रपंथी हैं, कि एक ही ढर्रे की ऊबी-सी ज़िंदगी को सत्कर्म बना लिया है। क्या कविताओं को भी अपनी क़वायदी ज़िंदगी की आश्वस्तिकारी चीज़ समझ लेना जायज़ होगा? शायद नहीं, क्योंकि कविता का काम जीवन को उसकी अनंत संभावनाओं के सामने रखकर उसकी यांत्रिक आवृत्ति को उद्घाटित करना भी है। परंतु हिंदी कविता में किसी विराट और महार्घ का बोध लगातार सिकुड़ता गया है। क्या यह मनुष्य की चपटी होती कल्पनाशीलता, धर्म के आध्यात्मिक सोते का सूखकर सांप्रदायिक प्रकल्प में बदलने या भौतिकवाद के अतिरेकी प्रभाव का परिणाम है? यहाँ इस बहस का अवकाश नहीं है। लेकिन सामयिक कविता के सामान्य मुहावरों से उलट अमिताभ चौधरी की मूल वृत्ति जीवन को किसी विराट और महार्घ के सामने देखने की है। उनकी कविताओं में आसमान, अनंत, शून्य की बारंबारता इसी वृत्ति का फल है। यहाँ ग़रीबी, बेकारी जैसे विषयों के बजाय जीवन, मृत्यु, प्रेम, आग, पानी, शव, आकाश जैसे शाश्वत विषय मिलेंगे। अतः लग सकता कि आप समकालीन कविता की परिचित दुनिया से बाहर किसी और ही काव्य-वृत्त में हैं। सारी कविताएँ एक ही तरफ़ जाती दिखेंगी—स्वयं आपकी तरफ़! ये घेर-घेरकर आपकी वृत्तियों को आपकी तरफ़ लौटाएँगी। आप पाएँगे कि कविताओं के शीर्षक जो हों, विषय एक है—होना; होना… न-होना… होने के परिसर…. न-होने की नीलाभ अनंतता…
“अ-भाव के नीलाभ तुम : कि जैसे—
रिक्त स्थान की पूर्ति का विकल्प न होने की चोट।
जब अपने उदर की भूख ही हाथ नहीं लगती—
तुम मेरे दृष्टकूट पद रचने का आशय इस तरह समझो :
मैंने अपनी छाया में आने के लिए इतनी धूप काटी है
कि काला हो गया हूँ।”
यह अ-भाव, भाव का विलोम नहीं है, भाव का ही एक सिरा या उससे निरपेक्षता है। अ-भाव का वह उन्मुक्त विराट कैसा है? जैसे कि किसी रिक्त स्थान को भरने वाले किसी विकल्प के न होने की ख़लिश, उसकी चोट। यह अ-भाव हमारी ही रिक्तियों की निर्विकल्पता की अनुभूति है। जब अपनी लगती भूख ही समझ नहीं आती कि क्या है जो लगती है, तो अपने अस्तिबोध के स्वरूप को रूढ़ भाषा में समझना कैसे संभव है। जानी हुई भाषा में सिर्फ़ जानी हुई चीज़ें जानी जाती हैं। आख़िर अपनी छाया में आने और छाया में आने के लिए धूप काटने का क्या आशय हुआ? अमिताभ के लिए ‘अपने’ का मतलब कामनाओं, सत्ता और पूँजी की छाया के बाहर का अस्ति है। इसी को अ-समय, अ-काल, अ-ऋतु आदि संज्ञा देते हैं। कामना वृत्त से बाहर के इसी अस्तिबोध को प्रिय, प्रिया, प्रेयसि संबोधित करते हैं। यहाँ किसी सीधे वाक्य से नहीं पहुँचा जा सकता; शायद अंतरालों, रिक्तियों और कौतुक के भीतर वह स्वयं ही आ जाए तो आ जाए। अमिताभ के यहाँ कौतुक बहुप्रयुक्त पद है—“कौतुक है उजास : कि, मैं यहाँ आँख मूँदकर आया हूँ।” आँख मूँदकर क्यों? क्योंकि निश्चय अहंकार-विस्तार के अतिरिक्त और क्या है! जो निश्चितता एक सीधी रेखा में दिखाई पड़ती है, वह अपने ही अहंकार की वृत्तीय गति है : motion without progression. इसलिए यहाँ कोई उद्देश्य नहीं है, कोई निश्चय नहीं है; एक क्रीड़ा है, कौतुक है, क्या पता उसी में झलक जाए वह, आ जाए वह। हमारी कामना-वृत्त का स्वबोध, जो अपनी आवृत्ति के कारण इतना तार्किक और व्यवस्थित लगता है, उतना है नहीं। लेकिन हमारे पास इस आत्मवृत्त के अलावा कुछ और है नहीं इसलिए इसके अंतर्विरोधों और छिछलेपन को हम समझ ही नहीं पाते हैं।
ये कविताएँ सुख-दुखात्मक अनुभूतियों में विभेद नहीं करतीं, बल्कि उन्हें अनुभूति मात्र की तरह लेती हैं। क्योंकि इनका उद्देश्य अनुभूतियों की मूल्य-मीमांसा न होकर अस्तिबोध है। इसलिए आपको मिलेगा कि ये सामान्यतः भाव-संवेदित करने के बजाय भावनाओं और विचारों की गतिकी, उसके अंतर्विरोधों को रचने की कोशिश करती हैं। “ठहरो ! / अभी कंटक चुभे हैं, / चाहने दो / यह फूल।” यह अद्वितीय अनुभूति, पीड़ा और अंदर से स्रावित ख़ून ही फूल है। कारण कि उससे अस्तिबोध होता है। इसलिए दुःख, पीड़ा और अकेलेपन को भी वैसी ही सकारात्मकता से देखते हैं। सुख की कामना, दुःख का विरोध, क्रोध और करुणा यहाँ नहीं मिलेगी। हम सबसे ज़्यादा अपने होने का एहसास चाहते हैं। इसीलिए तो मृत्यु से डरते हैं। लेकिन किन्हीं क्षणों में लगातार होने के एहसास से मुक्ति भी चाहते हैं। जो कुछ फैला है चारों ओर जहाँ लगातार होने और गुर्राने का कोई विकल्प नहीं है, उसके पार जाना चाहते हैं। परंतु प्रश्न यह है कि क्या पीड़ा और प्रसन्नता, दुःख और सुख को एक बराबर रखती हुई कोई कविता मनुष्य को संवेदित कर सकती है? शायद नहीं कर सकती, लेकिन कविता सिर्फ़ संवेदित करती भी नहीं, बल्कि संवेदन-प्रसार हेतु दृष्टि-विस्तार और संवेदन में अंतर्निहित दृष्टियों का पुनर्योजन भी उसका ज़रूरी कार्यभार है।
“एक
प्यास भरा व्यक्ति
इतना जलमग्न हुआ है कि
उसके नाख़ून गल गए हैं।”
आदमी सिर्फ़ पानी से तर नहीं होता, प्यास से भी भरता है। तृप्ति ही नहीं भूख भी भरती है। भूख और प्यास अपनी फ़ंतासी, तीव्रता व कामना से भरती है, बल्कि संतुष्टि प्यास का ही प्रभाव है। अमिताभ इसी ज़मीन से देखते हैं।
“घास में डूबे
एक पुराने पथ पर वर्षर्तु
उसकी शुष्कता की ध्वनि है।”
वर्षर्तु ! यह अमिताभ का बनाया हुआ शब्द है। यह सिर्फ़ ग्रीष्म को वर्षा का कारण बना देना नहीं है, वह तो है ही, परंतु कविता उस वैज्ञानिक कारण में नहीं है; कविता है मनुष्य की भावनात्मक गतिकी में। बारिश का सारा सौंदर्य उस घास की उत्कंठा, प्यास और जीवन कामना से ही आता है। अगर आपने तीव्र प्यास न झेली हो तो तृप्ति भी महसूस नहीं कर सकते। सुख के बाद सुख नहीं, दुःख के बाद ही सुख को महसूस किया जा सकता है। सुख के बाद सुख… के बाद सुख… और सुख में रह रहे लोगों को सुख भी महसूस होना बंद हो जाता है। जैसे निरंतर दुःख में दुःख का अनुभव ही जाता रहता है।
“जैसे झींगुरों के स्वर
किसी कंठ का अवरोध हैं,
रात भर।”
~~~
“कितना प्रकाश
एक छाया के होने में लगा है?
कितनी ध्वनियों में
तुम्हें पुकारती एक कविता है?
दुःख के भाव को आनंदस्वरूप होने में
कितनी मीमांसाएँ हैं?
तुम्हारे गर्भस्थ होने से पहले
अपनी कोख में भटकती माँ की गोद में
यदि तुम हो; तो धरती के ताप को छूकर देखो!”
~~~
“मेरी भूख ही भटकती है रोटी भीतर।”
झींगुरों का संगीत तो सुना ही जाता है, लेकिन कितने कंठों के अवरुद्ध होने पर यह संगीत सुनाई पड़ता है। मुखर कंठों की अभिव्यक्ति में वह आकुलता नहीं थी, यह रुद्ध कंठों की आवाज़ है। आप सोचकर देखिए, किसी छाया को रचने में ओट से ज़्यादा प्रकाश का योग है। एक कविता के पीछे लक्षित-अलक्षित अनंत ध्वनियाँ हैं। एक क्षण का दुःख अगले क्षण के सुख को कैसे खड़ा करता है, इस समझ में बहुत कुछ है। माँ सिर्फ़ जैविक कोख नहीं है, वह आत्मकुक्षि है; हम जन्म लेती हुई माँ में जन्म लेते हैं। दरअसल, अमिताभ हर चीज़ को इसी जगह से—नीचे से देखते हैं। भाव को अ-भाव से, समय को अ-समय से, वर्षर्तु को ग्रीष्म से… वह संवेदित करने से ज़्यादा देखने में भरोसा करते हैं। वह पूर्व-उपलब्ध को संवेदित करके कहने को कविता नहीं समझते, उनकी कविताएँ खोज और अन्वेषण की कविताएँ हैं। वह अनुभूति को बढ़ाने-चढ़ाने के बजाय उसकी मीमांसा में उतरते हैं। उन्हें उतना ही कहना है, जितना उन्होंने पाया है। अगर एक भी शब्द ज़्यादा हुआ तो उसकी सचाई नष्ट हो जाएगी।
अमिताभ जहाँ पहुँचना चाहते हैं, वहाँ पहुँचने का कोई पूर्व-उपलब्ध रास्ता नहीं है, बल्कि वह जगह भी पूर्वस्थित नहीं है। अगर होती तो अपनी पूर्वनिश्चितता के कारण कौतुकहीन और उत्साहनाशक होकर अमिताभ के लिए बेकार हो जाती। वास्तव में अमिताभ का कोई गंतव्य नहीं है, अगर है भी तो वही, जहाँ वह पहले से खड़े हैं। अपने को ही झाँक रहे हैं, आँक रहे हैं, नाप रहे हैं और स्तब्ध हैं। उसी क्षण की निरुद्विग्न स्तब्धता की अभिव्यंजना हैं—ये कविताएँ।
“मैं : कविता की अंतिम पंक्ति से पिछड़ा हुआ अभी-अभी
का कवि
इस पेड़ के नीचे
टूटे-बिखरे पत्तों पर खड़ा
सचेत—
सावधान—
कि मुझे साँस आई कहीं तो मैं कल्पना भी नहीं कर पाऊँगा
कि मैं एक कविता के पूरा होने की आशा में था।
तुम मेरे ठहरे हुए प्राण मेरी आँखों में देख सकते हो—
पलकों की स्थिरता से जो विकल न होने के तीक्ष्ण में सायास
किसी के हस्तक्षेप की घबराहट से बाहर निकली हुई
लाल न होने को जड़ : लाल ।”
इस काव्यानुभूति में भावुक विह्वलता, अदायगी और कुशलता नहीं है। इस काव्य-योग में सारी वृत्तियाँ प्रशांत हो चुकी हैं और वह निरुद्ध प्राण अलभ्य अनुभूति में उतर जाना चाहता है। इस निरवच्छिन्न शांति, निर्जन निस्तब्धता, निविड़ वन्य विजनता में ‘मैं’ नहीं है, केवल एक निर्वैयक्तिक सजगता की अनाविल चेतना सब कुछ की साक्षी है। यह उसका दर्पण बन जाती है। सौंदर्यानुभूति की ऐसी निरुद्विग्न स्तब्धता और ऐसी सायास तटस्थता शमशेर के बाद नहीं है। ऐसा लगता है कि अमिताभ ने उत्तर-अज्ञेय और शमशेर से बहुत कुछ सीखा है। यह भी आश्चर्यजनक है, जब सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरे जीवन को ऐसे आवेश व आवेग से भर दिया है और सहज प्रभावित होने और नक़ल करने के लिए इतने कवि उपलब्ध हैं तो अमिताभ सीखने के लिए शमशेर के पास जाते हैं; वैसा ही मितकथन, पदों के बीच वैसा ही अंतराल, नए शब्द रचने की कोशिश… बहुत-सी चीज़ें हैं, जो शमशेर की याद दिलाती हैं। एक और बात, जिस तरफ़ ज़रूर ध्यान जाना चाहिए कि शमशेर के बाद कविता में चिह्नों का ऐसा सार्थक और रचनात्मक प्रयोग सिर्फ़ अमिताभ के यहाँ ही मिलेगा।
मैं यह जानता हूँ कि इन कविताओं के मुख़ालिफ़ क्या बातें हो सकती हैं। कोई कह सकता है कि इनमें हमारा युग-संदर्भ नहीं है, जीवन-संघर्ष, दुश्वारियाँ और ख़ुशियाँ नहीं हैं; या यही कह दे कि कविता और पहेली के आनंद में अंतर होता है, लेकिन यहाँ इन्हें उठाने और उनका शमन करने की गुंजाइश नहीं है। बस इतना कह सकता हूँ कि कविता का काम क्या है और क्या होना चाहिए, सिर्फ़ इसे कहना नहीं है—क्या हो सकता है, क्या-क्या हो सकता है—यह कहना भी है। जैसे पैर का काम चलना है, लेकिन नृत्य और फ़ुटबाल उसके अनगिनत आयामों और गतियों को उद्घाटित करते हैं। उसकी सीमाओं को तोड़ते हैं। उनके ज़रा-सी लोच से मनुष्यता में छोटी-सी अलक्षित क्रांति घटित होती है—जो हमारे ध्यान में आए भी, यह ज़रूरी नहीं है। इसी तरह कविता का काम भाषा और बुद्धि की अन्यतम संभावनाओं की खोज भी है। इसलिए अगर आप ख़ुद को कविता का अच्छा पाठक समझते हैं, और लगातार ख़ुद को पार करना आपके लिए आनंददायक प्रक्रिया हो, तो यह संग्रह पढ़िए।
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