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शुद्ध भाषा किस चिड़िया का नाम है?

कुछ मित्र अक्सर हिंदी में प्रूफ़ रीडिंग की दुर्गति पर विचार करते रहते हैं। ऐसे में अचानक थोड़ी पुरानी बात याद आ गई। मैं एक बार हिंदी के एक बड़े लेखक के घर बैठा हुआ था। मैंने बातों-बातों में ही ख़र्च चलाने के लिए प्रूफ़ रीडिंग की चर्चा की और 10 रुपए प्रति पृष्ठ की बात की, तो वह चौंक गए और बोले कि इतना कौन दे रहा है मुझे भी दिलवाइए। इसके बाद चौंकने की बारी मेरी थी कि एक ऐसे लेखक जिनकी किताबों पर कई लोग रिसर्च कर चुके हैं, वह प्रूफ़ रीडिंग की माँग क्यों कर रहे हैं। 

दूसरा प्रसंग ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली एक किताब का है। मेरे एक आत्मीय लेखक ने कहा कि मेरी आँखें अब साथ नहीं दे रही हैं, छपने के लिए किताब का फ़ाइनल प्रूफ़ आ चुका है; एक बार आप भी देख लें। मेरे मन में ज्ञानपीठ की जो विराट छवि थी उसके आधार पर मैंने कहा कि जब वे लोग तीन बार देख चुके हैं तो मुझे देखने की क्या आवश्यकता है? आदरणीय लेखक ने मुलायमियत से कहा फिर भी एक बार देख लीजिए और फिर से मैं चकित हुआ, क्योंकि शुरू के चार पृष्ठों में ही क़रीब 10 ग़लतियाँ निकल गईं। 

वास्तव में भाषिक शुद्धता को लेकर हमारा रवैया ही अद्भुत है। हिंदी जानने वाले पेंटर अँग्रेज़ी में शुद्ध पेंट करते हैं, जिसे वे नहीं जानते; पर हिंदी में ऐसी-ऐसी ग़लतियाँ कि आप दिल्ली की सड़कों के नाम देख लें तो अनेक जगहों पर ‘रोड़’ लिखा मिलेगा। 

हिंदी प्रकाशन की दुनिया भी अद्भुत है। बड़े-बड़े प्रकाशक तक चाहते हैं कि लेखक ही पांडुलिपि तैयार करें, वे ही उसके प्रूफ़ कई बार चेक करें; यही नहीं प्रकाशित करने का ख़र्चा भी लेखक ही उठाए। अगर वह लेखक थोड़ा प्रतिष्ठित है और प्रकाशन का ख़र्च नहीं दे रहा है तो वह उसका प्रचार-प्रसार करे, लोगों के पीछे पड़कर उसकी ख़रीद के लिए लोगों से मनुहार करे; बार-बार लोकार्पण आदि करवाए। यानी हज़ार दो हज़ार प्रतियाँ उसके परिचय के आधार पर निकल जाएँ, जो ऐसा नहीं कर पा रहा है—वह काहे का लेखक? 

यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हिंदी का लेखक ‘लेखक’ बनने के लिए जितना श्रम, जितना संसाधन और जितना समय ख़र्च करता है—उससे बहुत कम समय में वह किसी भी क्षेत्र में ज़्यादा बेहतर ज़िंदगी जी सकता है। यही कारण है कि अपने ही समाज में इन्हें कोई प्रतिष्ठा के योग्य नहीं समझता, हाँ जब भौतिकता और उच्च जीवन-शैली का इतना दबाव नहीं था तब थोड़ी-बहुत लेखकों और शिक्षकों की प्रतिष्ठा भी थी; परंतु अब तो आपकी प्रतिष्ठा आपके भवन और आपकी कार से तय की जाती है। 

यह कोई संयोग नहीं है कि हिंदी के ज़्यादातर अध्यापक हिंदी के लेखक बन जाते हैं, आधे से ज़्यादा तो मजबूरी में बनते हैं; क्योंकि एपीआई स्कोर और प्रोफ़ेसरी के लिए किताब की ज़रूरत होती है। प्रोफ़ेसर जी के लिए किताबों की अनिवार्यता ख़त्म हो जाए तो शायद ढेर सारे प्रकाशन-संस्थान बंद करने पड़ें। 

कुल मिलाकर हिंदी की दुनिया इसी ढंग से संचालित होती है। जो हिंदी के नीति-निर्माता और भविष्य-निर्माता हैं, वे भी यही चाहते हैं। उदाहरण के लिए प्राध्यापकों की सबसे बड़ी परीक्षा UGC नेट में पहले व्याख्यात्मक प्रश्न हुआ करते थे, छात्रों को लिखना पड़ता था; कामचलाऊ ही सही पर भाषा सीखनी पड़ती थी, अब वैकल्पिक प्रश्नों पर बस टिक लगाना होता है। हर साल पीएचडी में एडमिशन लेने ऐसे-ऐसे जेआरएफ़ पास लोग आते हैं कि उनके बारे में चुप रहना ही अच्छा होगा। अब तो धीरे-धीरे हिंदी विभागों में भी ऐसा माहौल बनने लगा है कि अगर आप भाषिक शुद्धता की बात करेंगे तो लोग पीछे से ये कहेंगे कि ये भाषा-विज्ञान वाले हैं, पता नहीं क्यों हिंदी साहित्य में आ गए हैं?

बाक़ी हिंदी के बड़े लेखकों का भी कितना सम्मान है, ये हम सुरेंद्र वर्मा से लेकर विनोद कुमार शुक्ल तक के प्रसंग में देख ही चुके हैं।

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