'काव्येषु नाटकं रम्यम्'
kawyeshu natakan ramyam
कथ्य—रसरूप मनुष्य के हृदयगत आनंद की अभिव्यक्ति को काव्य कहते हैं। ब्रह्मानंद और काव्यानंद में केवल यही अंतर होता है कि पहला संसार निरपेक्ष और पूर्णतया आत्मगत होता है परंतु काव्य का आनंद संसार-निरपेक्ष तो नहीं होता किंतु लौकिक से इस बात में भिन्न होता है कि उसमें व्यक्तित्व रहते हुए भी वह क्षुद्र स्वार्थों से ऊँचा उठा हुआ होता है। कवि का हृदय जन-साधारण के हृदय के साथ स्पंदित हो मुखरित होता है। विज्ञान की अपेक्षा कवि का दृष्टिकोण अधिक मानवीय होता है। वैज्ञानिक मनुष्य को भी पत्थर, मेंढक और बंदर की तुलना में रख उसे प्रकृति के धरातल पर ले आता है और कवि प्रकृति का भी मानवीकरण कर उसे भाव-समंवित बना देता है। काव्य में विज्ञान का-सा सामान्यीकरण रहते हुए भी वैयक्तिकता और आनंद की मात्रा अधिक रहती है। सामान्यीकरण में मानसिक तत्त्व रहते हुए भी वह बाह्य-सापेक्ष अधिक होता है किंतु व्यक्ति विशेष में संबंध नहीं रहता।
विभाग- इसी के आधार पर पाश्चात्य देशों में काव्य के विषयगत या अनुकृत (एपिक) और आत्मगत या प्रगीत (लिरिक्स) रूप से दो विभाग किए गए हैं। अनुकृत में जगवीती अधिक रहती है और प्रगीत में आपबीती। भारतीय साहित्य-शास्त्र में काव्य के दृश्य और श्रव्य दो रूप बताए गए हैं। यह आधार काव्य की ग्राहकता के ऐंद्रिक माध्यम पर निर्भर है। इस ग्राहकता के साथ ग्रहण करने वाले के बौद्धिक स्तर के साथ काव्य के प्रभाव क्षेत्र का भी प्रश्न रहता है। दृश्य-काव्य में नेत्र और श्रवण दोनों के ही द्वारा काव्य का आस्वादन किया जाता है। ब्रह्मा से ऐसे ही खेल की याचना की गई थी जो दृश्य और श्रव्य दोनों हो—'क्रीडनकीयमिछामो दृश्य श्रव्य च यद्भवेत्' और श्रव्य-काव्य में श्रवणेंद्रिय का ही काम रहता है। जहाँ दृश्य-काव्य में दो माध्यम होने के कारण दर्शक की कल्पना पर कम बल पड़ता है और प्रभाव अधिक सजीव रहता है वहाँ श्रव्य-काव्य और विशेषकर पाठ्य-काव्य का प्रभाव क्षेत्र सीमित रहता है। बालकों और प्रशिक्षितों के लिए सूक्ष्म की अपेक्षा मूर्त और प्रत्यक्ष अधिक प्रभावोत्पादक होता है। मनुष्य का वर्णन चाहे जितना सजीव हो किंतु चित्र के सामने उसे हार माननी पड़ती है। जब चित्र चलते-फिरते हाड़-माँस-चाम के भाव-भंगिमामय हो तब नकल और असल में विशेष अंतर नहीं रहता है।
नाटक— दृश्य-काव्य में रूपक, नाटक आदि आते हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि दृश्य-काव्य की ग्राहकता के दो एंद्रिक माध्यम हैं—नेत्र और श्रवण। जो नाटक में दिखाया जाता है वह वास्तव में दृश्य श्रव्य ही होता है किंतु वह नितांत बाह्य जगत से संबंध नहीं रखता है। उसका मूल स्त्रोत होता है—भाव-जगत्, जो कि काव्य की आत्मा, रस का आधार है। नाट्य-शास्त्र में आचार्य भरत ने ब्रह्मा के मुख से, जिनके पास पीड़ा और क्लेश से ग्रस्त संसार के आनंद सुलभ साधन की याचना करने गए थे, कहलाया है, 'लोकस्य सर्वस्य नाट्य भावानुकीर्तनम्' (नाट्य-शास्त्र 1।104)। नाटक तीनों लोकों के भावों का अनुकरण है। प्रगीत काव्य में भी भाव रहते हैं किंतु वे वैयक्तिक कुछ अधिक होते हैं। इसमें व्यापक मानवता के भाव रहते हैं। इसमें विषयगतता के साथ भाव-प्रधानता भी रहती है। नाटक का भावानुकीर्त्तन लोक वृत्तानुकरण पर आश्रित होता है।
'नानाभावोपसंपन्न नानावस्थांतरात्मकम्।
लोफवृत्तानुकरणं नाट्यमेंतन्मया कृतं॥'
नाट्य-शास्त्र 1-108।109
दशरूपककार ने नाटक को अवस्थाओं की (जो मानसिक अधिक होती है) अनुकृति कहा है। साहित्य-दर्पणकार ने अभिनय-तत्त्व को प्रधानता देते हुए रूप के आरोप के कारण रूपक कहा है—'रूपारोपात्तु रूपफम्'। अलंकार में उपमेय पर उपमान का (मुख पर चंद्र का) आरोप रहता है। रूपक में नट पर अनुकार्य दुष्यंत आदि का आरोप रहता है। नट से संबंध रखने के कारण नाटक नाट कहलाता है। नाटक यद्यपि रूपक का भेद है (नाटक दशरूपकों में एक है) किंतु अब वह व्यापक बन गया है।
अरस्तू की परिभाषा—अरस्तू ने गंभीर नाटक (ट्रेजेडी) को उत्तम नाटक का प्रतिनिधि मानकर उसकी परिभाषा इस प्रकार की है।
'A Tragedy, then, is the imitation of an action that is serious and also as having magnitude complete in itself, in language, with pleasurable accessories, each kind brought in separately in the parts of the work, in a dramatic, not in a narrative form, with incidents arousing pity and fear wherewith to accomplish its catharsis of such emotions.'
अर्थात 'ट्रेजडी' उस कार्य का अनुकरण है जिसमें गंभीरता के साथ आकार की स्वतः पूर्णता हो और जो सब प्रकार के प्रसन्नतोत्पादक उपकरणों से अंलकृत भाषा में व्यक्त हो और जिसकी रचना नाटकीय ढंग से की गई हो, न कि प्रकथन या विवरण के रूप में की गई हो (यही गुण उसको महाकाव्य से पृथक् कर देता है)। इसमें ऐसी घटनाएँ रहती हैं जो करुणा और भय को जागृत कर उन भावों का रेचन या निकास कर देती हैं। भावों के रेचन (निकास) द्वारा उनका परिष्कार हो जाना नाटक का मुख्य उद्देश्य है। इस परिभाषा में ट्रेजडी के निम्नलिखित तत्त्व मिलते हैं-
विश्लेषण- (1) गाम्भीर्य (2) स्वतः पूर्णता (3) अलंकरणपूर्ण भाषा (4) विवरण के स्थान में अभिनयात्मकता (5) करुणा और भय जागृत करने वाली घटनाएँ (6) उद्देश्य रूप से भावों का परिष्कार।
महत्त्व—हमारे यहाँ भावों को प्राधान्य तो दिया गया है किंतु उनकी परिधि सीमित नहीं बनाई गई है। उसकी कलात्मकता पर काफ़ी बल दिया गया है और उसके साथ उसके ज्ञानात्मक तत्त्व की भी उपेक्षा नहीं की गई है। साथ ही इसके उद्देश्यों में नैतिकता को प्रधानता दी गई है।
लोकोपदेशजनन नाट्यमेतषिष्यति।
न तज्ज्ञान न तच्छिल्पं न सा विधा न सा कला॥
न स योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् धनवृश्यते।
प्रथम अध्याय
नाटक के आनंद और विश्रामदायी तत्त्व को भी भरतमुनि ने पर्याप्त महत्त्व दिया है।
दुखार्तानांश्रमार्ताना शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विश्रामजनन लोके नाट्यमेतद्भविष्यति॥
नाट्य-शास्त्र 1-111।112
उसको धर्म, अर्थ और काम का भी साधक और दुर्विनीत लोगों की बुद्धि को ठिकाने लगाने वाला, नपुंसक भीरु और कायरों को बल प्रदान करने वाला तथा शूरों के लिए उत्साहवर्द्धक बताया है। साथ ही अज्ञानियों को ज्ञान देने वाला और पंडितों को पांडित्य देने वाला, विलासियों के लिए विलास का देने वाला, दुखार्त लोगों के चित्त की स्थिरता और शांति का देने वाला कहा है।
धर्मों धर्म प्रवृत्तानां कामः कामोपसेविनाम्।
निग्रहो दुर्विनीतानां मत्तानां दमन क्रिया॥
क्लीवानां घाप्टर्य करणयुत्साहः शूरमानिनाम्।
प्रबोधानां विघोघश्च वैदुष्यं विदुषामपि॥
ईश्वराणां विलासश्च स्थैर्य दुखार्दितस्य च।
अर्थोपर्जीविनामर्थो वृत्तिद्विम चेतसाम्॥1
यह महत्त्व भक्तों का-सा धुतिपाठ नहीं वरन् वास्तविक है क्योंकि इसकी ग्राहकता का प्रभाव व्यापक है। इसीलिए इसको पंचमवेद कहा है और इसका अधिकार शूद्र या कम ज्ञान वाले लोगों को भी बतलाया है—'तस्मात् सृजापर पंचम सार्ववणिकम्। नाटक, महाकाव्य और उपन्यास तीनों ही काव्य रस के साथ जनता में उपदेश की कटु-औषधि को ग्राह्य बनाने के साधन रहे हैं किंतु तीनों में भेद हैं।
महाकाव्य, उपन्यास और नाटक- जगवीती का वर्णन गद्य और पद्य दोनों में हो सकता है। पद्य में जो वर्णन होता है, वह प्रायः महाकाव्य के रूप में होता है। रामायण हमारे यहाँ का आदि महाकाव्य है। महाकाव्य में पद्य के आकार के अतिरिक्त जातीय अथवा युग की भावना का प्राधान्य रहता है। तुलसी के समय हिंदू जनता की भावनाओं का जैसा जीता-जागता चित्र रामचरितमानम में मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। उसका नायक जाति का नायक और प्रतिनिधि होता है। महाकाव्य एक प्रकार से संस्कृति-प्रधान होता है। वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में जैसे पुरुषोत्तम की महर्षि वाल्मीकि को चाह थी, वे सभी गुण भारतीय संस्कृति के मान्य गुण थे। रघुवंश में भी 'शैशवेऽभ्यस्त विद्याना यौवने विषयैपिणा' आदि श्लोकों में भारतीय संस्कृति की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। साकेत में भी 'मैं आर्यों का आदर्श बताने आया' में सांस्कृतिक पक्ष का ही उद्घाटन किया गया है।
गद्य के अनुकरणात्मक रूपों में उपन्यास की मुख्यता रहती है। नाटक गद्य और पद्य के बीच की चीज़ है और अब उसमें गद्य का प्राधान्य होता जाता है। नाटक शुद्ध गद्य तो नहीं होता तो भी उसकी गणना प्रायः गद्य में ही की जाती है। (गीत-नाट्यों की दूसरी बात है)। उसमें कथोपकथन की प्रधानता रहने के कारण वह गद्य के ('गद्' धातु बोलने के अर्थ में आता है) शब्दार्थ का अधिक अनुकरण करता है। महाकाव्य की अपेक्षा इन दोनों में व्यक्ति अर्थात चरित्र-चित्रण की प्रधानता रहती है। रामायण और उत्तररामचरित के राम में थोड़ा अंतर है। रामायण के राम जातीय नेता, उद्धारक, जाति-रक्षक और आदर्श पुरुष हैं। उनमें आर्य-सभ्यता मूर्तिमान होकर आती है। उत्तररामचरित के राम व्यक्ति के रूप में आते हैं। वे राजा हैं किंतु राजा के साथ वे अपना निजी सुख-दुख रखते हैं। सब चीज़ों में उनका निजी संबंध दिखाई पड़ता है। उत्तररामचरित में हमको उनके हृदय का अधिक परिचय मिलता है। जब वे कहते हैं कि दुख के लिए ही राम का जीवन है, तब उनका व्यक्तित्व निखर आता है।
उपन्यास और नाटक में व्यक्ति का प्राधान्य रहता है, किंतु इनके दृष्टिकोण में अंतर है। उपन्यास चाहे जिस रूप में हो, भूत से ही संबंध रखता है। वह आख्यान का ही रूप है। आजकल अँग्रेज़ी में भविष्य से संबंध रखने वाले भी उपन्यास लिखे गए हैं किंतु उनमें भी लेखक भविष्य को देखकर यानी उसे भूत बनाकर उसका पीछे से वर्णन करता है। नाटक का भी विषय भूत का ही होता है, किंतु नाटककार उसे प्रत्यक्ष घटना के रूप में दिखाना चाहता है। वह भूत को आँखों के सामने घटाने का प्रयत्न करता है। उपन्यास घटी हुई घटना को कहता है। नाटककार कहता नहीं है, वरन् वह घटना की प्रत्यक्ष में आवृत्ति कर द्रष्टाओं को उनकी ही आँखों से दिखाना चाहता है। वह सिनेमा के ऑपरेटर की भाँति अपना व्यक्तित्व छिपाए रखता है। यदि उसका व्यक्तित्व कहीं दिखाई पड़ता है तो वह किसी पात्र के रूप में पाठकों के सामने आता है। उसको अगर पाठक लोग आवरण के भीतर से पहिचान लें तो दूसरी बात है लेकिन वह स्वयं आवरण उतारता नहीं है। इसी आधार पर काव्य के दृश्य और श्रव्य दो भेद किए गए हैं।
महाकाव्य में विषय का विस्तार तो उपन्यास का-सा रहता है किंतु महाकाव्य आदर्शोन्मुख अधिक होता है। उपन्यास जीवन का पूरा चित्र देने का प्रयास करता है। यद्यपि उपन्यास में भी चुनाव रहता है तथापि नाटक में चुनाव की कला अधिक परिलक्षित होती है। वह ऐसे दृश्य चुनता है जिनसे कथन का तारतम्य टूटे बिना संक्षेप में पात्रों का चरित्र व्यंजित हो जाए और रस की अभिव्यक्ति हो जाए। इसीलिए नाटक में तीन मुख्य तत्त्व माने गए हैं : वस्तु, नायक और रस। इन्हीं के आधार पर रूपकों का विभाजन होता है। उपन्यास की अपेक्षा नाटक में रस की अभिव्यक्ति कुछ अधिक होती है, कम से कम भारतीय नाटकों में। पाश्चात्य नाटकों में उद्देश्य को अधिक महत्त्व दिया जाता है। नाटक में महाकाव्य और उपन्यास जैसी बाह्यार्थता रहती है किंतु पात्रों की प्रगीत काव्य जैसी भाव-परायणता भी रहती है। नेत्रों के अनुरंजन के साथ शिक्षा और उपदेश 'कांता सम्मिततयोपदेशयुजे' की उक्ति को सार्थक करता है। नाटक में उपन्यास की इसी वास्तविकता के साथ महाकाव्य के से आदर्श की व्यंजना रहती है। नाटक एक साथ मनोरंजन और शिक्षा का कारण बन जाता है।
- रचनाकार : गुलाब राय
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