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डेढ हजार रु एक सौ
डेढ हजार रु एक सौ, इतने होहिं अंगुष्ट।चौसठि सै अंगुली करै, मन तैं कौन संपुष्ट॥
सुंदरदास
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हूजे कनावड़ी बार हजार-लौं
हूजे कनावड़ी बार हजार-लौं, जौ हितू दीनदयाल-सों पाइए।तीनहुँ लोक के ठाकुर है, तिनके दरबार न जात लजाइए॥
नरोत्तमदास
सागर लहरों-से आओ
पवन की मुट्ठी के तीक्ष्ण शर सेपर्त-पर्त पानी फेंकता अँजुरी में,
प्रहराज सत्यनारायण नंद
हारी जतन हज़ार कै
हारी जतन हज़ार कै, नैना मानहिं नाहिं।माधव-रूप बिलोकि री, माधव लों मँड़राहिं॥