यही दुर्भाग्य है। सर्वत्र, सर्वदा उपस्थित लोग आवश्यकता से अधिक होते हैं। कोण बन जाते हैं। कोने चुभते हैं। दो ही रह जाएँ तो भी कुल उपस्थिति में एक व्यक्ति फालतू प्रतीत होता है। जब वे सोचते हैं कि हम एक क्यों नहीं हो जाते या जब उनमें से एक सोचता है कि मैं इस दूसरे में खो क्यों नहीं जाता, या मैं इस दूसरे के हित मिट क्यों नहीं जाता, तब उनमें प्रेम हो जाने की बात कही जाती है। लेकिन जब प्रेम नहीं होता तब यह दूसरा इतना चुभता है आत्मा में कि हम कहते हैं वही साक्षात् नरक है।